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नई ऊंचाइयों पर भारत-अमेरिका संबंध

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:14 April 2019 5:27 PM GMT
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अमेरिकी संसद में लगभग आधे दर्जन प्रभावशाली सदस्यों ने भारत के साथ अपने देश की रणनीतिक साझेदारी को स्थाई एवं मजबूत स्वरूप देने के लिए एक महत्वपूर्ण बिल पेश किया है। यदि यह बिल पास हो गया तो अमेरिकी विदेश विभाग भारत के नाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) के सहयोगी का दर्जा देगा और नाटो के सहयोगी देश का दर्जा हासिल करते ही दोनों देशों का रिश्ता संस्थागत रूप तो हासिल करेगा ही बल्कि दोनों देशों को अपनी रक्षा साझेदारी की ऊंची इमारत खड़ी करने में सफलता भी मिलेगी।

दरअसल शीतयुद्ध के बाद जहां एक तरफ भारत को बिखरे सोवियत संघ के गणराज्यों से अलग-अलग संबंध बनाने की जरूरत महसूस हुई वहीं अमेरिका को इस बात का अहसास हुआ कि भारत के साथ वाशिंगटन डीसी को अपने संबंधों में विश्वसनीयता कायम करने की जरूरत है अन्यथा एशिया में चीन की बढ़ती ताकत उसके हितों के लिए खतरा साबित होगी। अमेरिका को पता था कि चीन भले ही भारत के साथ व्यावसायिक रिश्ते बढ़ रहा है किन्तु सामरिक मुद्दों पर वह हमेशा भारत का विरोधी ही रहेगा। मतलब यह है कि भारत और अमेरिका दोनों को एक-दूसरे की जरूरत का अहसास हुआ जिसकी परिणति `वाजपेयी-क्लिंटन समझौता विजन-2000' के रूप में हुई। राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने जिस वक्त नई दिल्ली में इस विजन पत्र पर हस्ताक्षर किए उस वक्त दोनों देशों में इस बात की उम्मीद की गई कि दोनों देशों के बीच दशकों अविश्वसनीयता की गहरी खाई पट जाएगी। भारत के हर रणनीतिक फैसले को शक की निगाह से देखने वाले अमेरिका ने इस विजन पत्र के बाद कभी भी भारतीय कंपनियों पर प्रतिबंध नहीं लगाया। संयोग तो यह है कि बिल क्लिंटन ने भारत आने से पहले कुछ भारतीय कंपनियों पर लगे प्रतिबंधों पर छूट दी थी। यह प्रतिबंध वाजपेयी सरकार द्वारा पोखरण परीक्षण के विरोध में लगा था। दोनों देशों के बीच अवरोध की स्थिति 2012-13 में तब आई जब अमेरिकी कंपनियों को लगने लगा कि भारत कार्यकारी एवं व्यावसायिक अनिर्णय का शिकार हो चुका है। किन्तु सितम्बर 2014 में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति बराक ओबामा की मुलाकात के बाद दोनों देशों के बीच गतिरोध की स्थिति खत्म हो गई। वर्ष 2018 में अमेरिका द्वारा ईरान के खिलाफ लगे प्रतिबंधों पर भारत के एतराज के बाद वाशिंगटन डीसी ने भारत को वह सारी सहूलियतें दीं जो वह अपने मित्र देशों को देता है। मसलन भारत को ईरान से तेल खरीदते रहने की सुविधा तो मिली ही साथ ही भारत को अपनी उन पुरानी परियोजनाओं पर काम करने की छूट भी मिल गई जो भारत-ईरान के बीच महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। भारतीय एवं अमेरिकी रक्षा व विदेश मंत्रियों की 2+2 की बैठक 2014 के अंतिम दिनों में नई दिल्ली में ही सम्पन्न हुई। इस बैठक में अमेरिका ने भारत की उन सभी आपत्तियों को स्वीकार कर लिया जिससे कि भारत को ईरान और रूस से व्यावसायिक संबंधों को कायम रखने में किसी तरह की बाधा न आए। अमेरिका दिल से तो चाहता था कि भारत रूस से अत्याधुनिक मिसाइल सिस्टम न खरीदे किन्तु वास्तविकता को महसूस करते हुए अमेरिकी रक्षामंत्री एवं विदेश मंत्री को स्वीकार करना पड़ा क्योंकि वाशिंगटन डीसी के लिए एक मजबूत भारत जरूरी है न कि मजबूर भारत। भारत ने अमेरिका को इस बात का अहसास दिलाने में सफलता हासिल की कि भारत अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए रूस से भी सौदा करेगा और इजरायल से भी। भारत की जरूरतों के लिए जितना महत्व अमेरिका का है उतना ही रूस का भी है। हैरानी की बात है कि भारत की स्पष्टवादी कूटनीति का ही परिणाम है कि आज नई दिल्ली का जितना बड़ा हितैषी मास्को है उतना ही सोवियत संघ से अलग हुए सारे गणराज्यों से भी भारत उतनी ही मजबूती से संबंध बनाए हुए है जितना कि शीतयुद्ध के वक्त भारत और सोवियत संघ से था। किन्तु अमेरिका ने भारत की इस बेबाकी को सकारात्मक भाव से लिया। अमेरिका की भारत को मिली कूटनीतिक मदद और समर्थन का ही परिणाम है कि भारत के समर्थन में ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, जर्मनी और आस्ट्रेलिया जैसे देश भी खड़े हो गए। यह वह देश हैं जो अमेरिका के मित्र एवं सहयोगी देश हैं। भारत ने पिछले पांच वर्षों में अमेरिका एवं उनके मित्र देशों के साथ सहमति की जो कूटनीति की है उससे चीन का असहज होना स्वाभाविक है किन्तु चीन को इस बात का अहसास हो चुका है कि अब भारत अकेला नहीं है। टकराव की स्थिति में कभी पूर्ण सोवियत संघ भारत के साथ मजबूती से खड़ा होता था तो अमेरिका सहित सभी महाशक्तियां भारत के खिलाफ न सिर्प खड़ी दिखती थीं बल्कि भारतीय संस्थानों एवं कंपनियों पर प्रतिबंध लगातीं और भारत की छवि खराब करती थीं। किन्तु भारत ने सबसे पहले अमेरिका के साथ विश्वास पैदा करने की सफल कोशिश की फिर उसे समझाने की कोशिश की कि भारत के साथ पिछलग्गू जैसा व्यवहार न करें। अमेरिका ने भी भारत के साथ अपनी जरूरतों को महसूस करते हुए सकारात्मक रुख अपनाया। आज भारत ने अपनी शर्तों पर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान और आस्ट्रेलिया से संबंध बुलंदियों तक पहुंचाया है और इन देशों के साथ संबंधों की कीमत स्वरूप रूस के साथ संबंधों पर किसी तरह की आंच न आना, निश्चित रूप से महत्वपूर्ण बात है।

बहरहाल यदि भारत को अमेरिकी संसद से नाटो के सहयोगी राष्ट्र का दर्जा मिल जाता है तो यह दोनों देशों के लिए बहुत ही गरिमामय स्थिति होगी। भारत की व्यावसायिक एवं सामरिक जरूरतें लगातार बढ़ रही हैं इसलिए वह किसी एक गुट के साथ खूंटे में बंध कर नहीं रह सकता। इसलिए अपना मानना है कि सभी गुटों में भारत को सम्मान मिलना ही भारतीय कूटनीति की सफलता है।

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