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जो जैसा है, उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:10 Sep 2018 6:56 PM GMT

जो जैसा है, उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए

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समलैंगिकता अब भारत में अपराध नहीं है। देश, काल और परिस्थितियां बदलने पर किस तरह मूल्य मान्यता एवं नियम-कानून बदल जाते हैं। इसका ही उदाहरण समलैंकिता पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के ताजे फैसले के बाद तीन दशक से भी ज्यादा समय से चल रही वह कानूनी लड़ाई भी अब खत्म हो गई है, जो कुछ लोगों द्वारा निजी जीवन के विकल्पों को अपराध के दायरे से बाहर रखने के लिए शुरू की गई थी। यह फैसला समलैंगिकों के साथ-साथ भिन्न यौन अभिरुचि रखने वाले अन्य लोगों के लिए भी एक बड़ी राहत लेकर आया है। यह फैसला इसलिए भी उल्लेखनीय है कि जिस सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस अंश को रद्द किया जो बालिगों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध घोषित करती थी उसी ने 2013 में ऐसा करने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि यह काम संसद का है। इतना ही नहीं, उसने इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका को भी खारिज कर दिया था। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट की ओर से 2009 में दिए गए उस फैसले को पलटने का काम किया था जिसमें धारा 377 को असंवैधानिक करार दिया गया था। बेशक सुप्रीम कोर्ट ने आखिर समलैंगिकता के सन्दर्भ में जो फैसला दिया है वह ऐतिहासिक और उदार निर्णय है, जिसका एलजीबीटी ही नहीं बल्कि उदारवादी लोकतांत्रिक समाज को लंबे समय से इंतजार था। इसके बावजूद यह सवाल आज भी अपनी जगह खड़ा है कि औपनिवेशिक गुलामी से बुरी तरह जकड़ा और उसी सन्दर्भ में अपने अतीत की व्याख्या करने पर आमादा हमारा समाज क्या उसे दिल से स्वीकार भी कर पाएगा? अदालत ने दो व्यस्कों के बीच होने वाले यौन संबंध को अपराध बताने वाली आईपीसी की धारा से बाहर निकालते हुए जो सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं उनकी व्याख्या गहरी और दूर तक जाने वाली है। कानून व्यक्ति, समाज और देश के हितों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। इसलिए शायद बदली परिस्थितियों के अनुसार उनमें संशोधन होते रहते हैं। हालांकि कटु सत्य यह भी है कि इन बदलावों को लेकर समाज और देश के सभी लोग सहमत और संतुष्ट हों यह जरूरी नहीं है। इसलिए अकसर कानूनी बदलावों को लेकर विरोधी स्वर भी उभरते रहते हैं। समलैंगिकता के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के इसे उचित ठहराने से पहले ट्रांसजैंडर के मामले में अदालत पहले ही फैसला दे चुकी है। समाज में ट्रांसजैंडरों को लेकर भी अच्छा दृष्टिकोण नहीं था। उन्हें कानूनी रूप से बराबरी का हक भी प्राप्त नहीं था। वह उपहास के पात्र थे। उसी श्रेणी में गिने जाने वाले समलैंगिकों को भी समाज में हिकारत की नजर से देखा जाता है। उन्हें कानूनी स्वीकार्यता मिलने से एलजीबीटी कहे जाने वाले लोगों को अब सामान्य नागरिकों को प्राप्त अधिकार मिल सकेंगे। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को मान्यता प्रदान कर भारतीय समाज को संदेश दिया है कि भिन्न यौन अभिरुचि वाले भी आदर और सम्मान से जीने के अधिकारी हैं, लेकिन समाज के उस हिस्से की धारणा बदलने में समय लगेगा जो अलग यौन व्यवहार वालों को अपने से इतर और इसे अस्वाभाविक मानता चला आ रहा है। शायद उन्हें यह समझने की जरूरत है कि अलग यौन व्यवहार वाले भी मनुष्य हैं और उन्हें अपनी पसंद के हिसाब से जीवन जीने का अधिकार है। हमारे धर्मों में इस प्रकार के संबंधों को अच्छा नहीं माना गया। यहां तक कि कुरान में तो यह प्रतिबंधित है। पर समय और परिस्थितियां बदलती हैं और समाज को भी उसके अनुसार बदलना पड़ता है। अपनी इस ऐतिहासिक व दूरगामी परिणाम वाले फैसले में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा कि हर बादल में इंद्रधनुष खोजा जाना चाहिए। इन लोगों को व्यक्तिगत पसंद की इजाजत दी जानी चाहिए। एलजीबीटी समुदाय के पास भी आम नागरिकों के समान अधिकार हैं। (इंद्रधनुषी झंडा एलजीबीटी का प्रतीक है)। जस्टिस चन्द्रचूड़ ने कहा कि धारा 377 के कारण एलजीबीटी समुदाय का शोषण किया जाता है। इनको भी संविधानिक अधिकार है। हम इतिहास को नहीं बदल सकते, लेकिन बेहतर भविष्य के लिए रास्ता निकाल सकते हैं। वहीं जस्टिस इंदु मल्होत्रा का कहना था कि इतिहास में एलजीबीटी समुदाय से उनकी यातना के लिए माफी मांगनी चाहिए। यह समुदाय डर के साये में जीने को विवश था। इन्हें अपराधबोध से मुक्त रहकर जीने का हक है। जस्टिस नरीमन ने कहा कि समलैंगिकता बीमारी नहीं है बल्कि स्वाभाविक स्थिति है। सरकार इस फैसले को ठीक तरीके से समझाए ताकि एलजीबीटी समुदाय को कलंकित नहीं समझा जाए। संसद द्वारा पारित अधिनियम में भी कहा गया है कि समलैंगिकता मानसिक विकार नहीं है। वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचार प्रमुख अरुण कुमार का कहना है कि आरएसएस समलैंगिकता को अपराध नहीं मानती, पर एक लिंग के दो लोगों की शादी का हम समर्थन नहीं करते। हकीकत में भारतीय समाज इतनी विविधता वाला रहा है कि उसने कभी यौन रूझानों के आधार पर समाज में दंड का प्रावधान नहीं किया था। इसलिए अपनी हकीकतों को भूलकर औपनिवेशिक मूल्यों में जीने वाले भारतीय समाज के लिए सुप्रीम कोर्ट के इस उदार और प्रगतिशील फैसले को स्वीकार करके उसके मुताबिक आजादी का अर्थ समझने की चुनौती है। जो ऐसे संबंधों के विरोधी हैं उन्हें यह समझना होगा कि अलग यौन व्यवहार वाले भी मनुष्य हैं और उन्हें अपनी पसंद के हिसाब से अपना जीवन जीने का पूरा अधिकार है। देखना यह है कि हमारा समाज कितना बदलने और इसे समझने को तैयार है?

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