संघ को समझने की जरूरत
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाहक मोहन भागवत ने गत सप्ताह 17 से 19 सितम्बर तक विज्ञान भवन में संगठन के बारे में जो स्पष्टीकरण दिया उससे संघ के विरोधी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर यह संगठन है क्या? संघ के बारे में जो लोग जानते हैं उन्हें तो मोहन भागवत के स्पष्टीकरण से कोई भ्रम नहीं हुआ किन्तु जो लोग संघ को संकीर्ण विचारधारा का अलगाववादी संगठन मानते रहे वे जरूर भौंचक्के रह गए और कुछ डपोरशंखी तो यहां तक कहने लगे हैं कि संघ प्रमुख ने मजबूरी में संगठन का सिद्धांत ही बदल दिया।
सच तो यह है कि संघ एक अनोखा संगठन है जो सिर्प धर्म विशेष के लिए काम नहीं करता। संघ राष्ट्र के लिए काम करता है और राष्ट्र में जो भी निवास करता है उसके लिए काम करता है चाहे वह किसी भी पूजा पद्धति को मानता हो। हिन्दुस्तान का हर निवासी हिन्दू है चाहे वह सनातनी हो, आर्यसमाजी हो, बौद्ध हो, जैन हो, इस्लामिक हो या ईसाई हो। भावनाओं के इतने विशाल संगठन को समझना संकुचित भावनाओं के राजनेताओं के वश की बात नहीं है। वोट की राजनीति के लिए संघ को एक धर्म विशेष का संगठन बताने वाले संघ को या तो समझते ही नहीं या फिर समझने की जरूरत ही नहीं समझते।
असल में संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने समाज सुधार के लिए व्यक्ति निर्माण को आवश्यक समझा। डॉ. हेडगेवार स्वतंत्रता सेनानी थे और क्रांतिकारियों के कोर कमेटी के सदस्य तो थे ही कांग्रेस के वरिष्ठ कार्यकर्ता भी थे। उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि जब तक व्यक्ति के चरित्र का निर्माण नहीं होगा तब तक समाज में ऐसे लोग नहीं आ पाएंगे जिनकी वजह से स्वतंत्रता आंदोलन सही दिशा में बढ़ सके और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समाज में ऐसे लोग नहीं होंगे जो आजादी मिलने के बाद समाज को सही दिशा दे सकें। उन्होंने व्यक्ति निर्माण के लिए ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन किया था।
संघ प्रमुख की दो बातों पर लोगों की ज्यादा उत्सुकता है। पहली तो यह कि भागवत जी ने दूसरे सरसंघचालक सदाशिव माधव गोलवलकर के विचारों को बदल दिया और दूसरा यह कि जो संघ हिन्दुओं को संगठित करने के लिए था वह अब मुसलमानों और ईसाइयों को भी समाहित करने की बात करने लगा है। सच तो यह है कि संघ ने गोलवलकर की विचारधारा को न तो छोड़ा है और न ही खुद को बदला है बल्कि उससे आगे बढ़ा है। जिस वक्त गोलवलकर जी संघ प्रमुख थे, उस वक्त की परिस्थितियां भिन्न थीं। स्वतंत्रता के बाद मुस्लिम और ईसाई संगठनों ने देश में धर्म परिवर्तन का जो कुचक्र चलाया था उससे तत्कालीन संघ प्रमुख विचलित हुए थे। उनकी पुस्तक `बंच ऑफ थॉट' में जो बातें उस वक्त लिखी गई थीं वे उस वक्त के लिए प्रासंगिक थीं और इसीलिए जो बंच ऑफ थॉट अब संपादित रूप में सामने आई है उसमें वे विवादित अंश नहीं हैं जो उस वक्त संघ की चिन्ता का कारण बने थे। संघ को पोंगापंथी संगठन मानने वालों के लिए यह सबक है कि जिस संगठन को वे संकीर्ण मानते हैं वह संगठन समय के साथ खुद को बदलने में जरा भी संकोच नहीं करता। जो संगठन समय के अनुसार खुद को बदलता नहीं वह संगठन समाज को बदलने का दावा भी नहीं कर सकता। संघ से समाज कमजोर नहीं शक्तिशाली बन सके, इसी मूल मंत्र को ध्यान में रखकर संगठन के कुछ अप्रासंगिक विचारों को बंच ऑफ थॉट से निकाला गया है।
कुछ लोग संघ प्रमुख की इस बात से भ्रमित हैं कि उन्होंने यह कहा कि मुसलमान के बिना हिन्दुत्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। असल में संघ प्रमुख ने स्पष्ट किया कि संघ का हिन्दुत्व किसी का विरोध नहीं करता बल्कि सभी को समाहित करने वाला है। यह भारत की सनातन संस्कृति का हिस्सा है, जो वसुधैव कुटुंबकम की बात करता है। भागवत जी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि हिन्दुत्व का विचार कोई संघ द्वारा खोजा हुआ विचार नहीं है बल्कि यह तो सनातन विचार है। सबका माना हुआ सर्वमत विचार है। इस तरह हिन्दू धर्म सिर्प हिन्दुओं के लिए नहीं बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए है। संघ प्रमुख ने यह बात खुद कही है कि `हिन्दू' शब्द विदेशी है और पहली बार इसका प्रयोग नौवीं शताब्दी में हुआ था। लेकिन आम जनमानस में इसका प्रयोग विदेशी आक्रमणकारियों के दमन के दौरान शुरू हुआ था। किन्तु इसके पहले हजारों वर्षों से विभिन्न संप्रदाय एवं मत-मतांतर के लोग रहते आए थे। इस तरह मध्यकाल में भारत से निकले सभी संप्रदायों का सामूहिक मूल हिन्दुत्व बन गया। संघ प्रमुख के अनुसार इस हिन्दुत्व में सभी की विविधता के सम्मान के लिए पूरी जगह है। भारत में विकसित सभी संप्रदायों का मूल एक ही है कि सभी का भला हो। यह किसी के विरोध में नहीं है। भागवत जी के अनुसार `सबको साथ लेकर चलने के स्वभाव का नाम ही हिन्दुत्व है।' मतलब यह कि इसमें देश के सभी धर्मांवलंबियों को शामिल करने के लिए जगह है चाहे वे मुसलमान हों या ईसाई। सभी को इसमें जोड़े बिना संघ का काम खत्म नहीं होगा। हिन्दुत्व में सभी धर्मों को समाहित करने का संकल्प ही हिन्दुत्व की विशालता का परिचायक है। सवाल उठ सकता है कि आखिर संघ का हिन्दुत्व है क्या? इसका जवाब भी संघ प्रमुख ने ही दिया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि हिन्दुत्व के तीन आधार हैंöदेशभक्ति, पूर्वज गौरव और संस्कृति। ये तीनों भारत में रहने वाले सभी धर्मावलंबियों के साझा हैं। भारत में रहने वाले जो भी हैं, सब एक पहचान के रूप में हैं जिन्हें हिन्दू कहा जाता है।
सच तो यह है कि संघ प्रमुख ने कुछ भी नया नहीं कहा है। उन्होंने जो कुछ भी कहा है वह संघ की स्थायी मान्यता है किन्तु संघ विरोधी वोटों के लिए मुस्लिम और ईसाई समाज में जो भ्रम फैलाते हैं, उससे संघ अन्य धर्मों के विरोधी के रूप में स्थापित हो गया है। यदि मुस्लिम और ईसाई इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि संघ उनका विरोधी नहीं है तो उनकी दुकानें ही बंद हो जाएंगी। बहरहाल संघ एक अनोखा संगठन है जो समाज को एकजुट रखने का प्रयास करता है और उसे समझने के लिए संकीर्ण मानसिकता छोड़नी होगी। समाज में संघ की बढ़ती स्वीकार्यता से यदि कोई राजनीतिक पार्टी तिलमिलाए तो यह उसका संकट है संघ का उससे कुछ भी लेना-देना नहीं है। संघ के खिलाफ मुस्लिम एवं ईसाई समुदाय को यह दुप्रचार करने वाले कि यदि संघ मजबूत हुआ तो उन्हें देश से बाहर कर दिया जाएगा ही समाज में जहर घोलते हैं और अपने वोट के लिए समाज में भय का वातावरण पैदा करते हैं।
ये कोई और नहीं हैं जो संघ की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड, हिजबुल मुजाहिद्दीन, लश्कर-ए-तैयबा और आईएसआईएस से करता है बल्कि ये उन्हीं लोगों के योग्य उत्तराधिकारी हैं जिन्होंने संघ को मुस्लिम-ईसाई विरोधी साबित करने के लिए तमाम दुप्रचार किया और दोनों समुदायों के कट्टरपंथी तत्वों के माध्यम से उनके समाज में संघ को दुश्मन के रूप में पेश किया गया। मुसलमानों से कहा गया कि संघ इस्लाम को खत्म करना चाहता है और ईसाइयों से कहा कि संघ उनका अस्तित्व खत्म करने पर तुला है। ईसाई समाज की अपेक्षा मुस्लिम समाज को संघ से ज्यादा भयाक्रांत करने की कोशिश की गई। क्योंकि मुस्लिम आबादी ज्यादा है और वोटों का फायदा मिलना था। आज समय आ गया है कि मुस्लिम और ईसाई कांग्रेस और अन्य संघ विरोधियों से पूछें कि आज मुस्लिम समाज में व्याप्त अशिक्षा और गरीबी के लिए क्या संघ जिम्मेदार है? आखिर संघ से दूर रहने से क्या मिला मुस्लिम समाज को? मुस्लिम समाज को पूछना चाहिए संघ विरोधियों से कि यदि मुस्लिम समाज संघ पर भरोसा करेगा तो क्या इस्लाम खतरे में पड़ जाएगा? असल में संघ विरोधियों ने उसे जितना बदनाम करने की कोशिश की उसका विस्तार उतना ही ज्यादा हुआ। देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, दर्जनों केंद्रीय मंत्री, दर्जनों मुख्यमंत्री, देश के सैकड़ों सांसद और विधायक संविधान की शपथ लेकर यदि राष्ट्र की सेवा कर रहे हैं और संघ विरोधियों की अपेक्षा ज्यादा स्वीकार्य हैं तो विचार करने की जरूरत है कि सही कौन साबित हुआ संघ या संघ विरोधी? संघ पर तीन बार प्रतिबंध लगाने वाले गलत साबित हुए और संघ के साथ जुड़ने वाले सही साबित हुए। संघ के स्वयंसेवकों ने ही मुस्लिम समाज के एपीजे अब्दुल कलाम को देश का राष्ट्रपति बनाया और संघ के स्वयंसेवक ही ईसाई समाज के पीए संगमा को राष्ट्रपति बनाने के लिए प्रत्याशी बनाया। इसलिए जरूरी है कि मुस्लिम और ईसाई समाज संघ विरोधियों के दुप्रचार को नकार करके संघ को समझें क्योंकि संपूर्ण भारतीय समाज को समाहित करने की क्षमता और चाहत संघ में ही है।