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सड़कों पर उतरने के लिए किसान मजबूर क्यों?

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:4 Oct 2018 6:38 PM GMT
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सरकार की नीतियों और वादाखिलाफी से नाराज गत दिनों किसानों को एक बार फिर दिल्ली कूच करने को मजबूर होना पड़ा। यह दुख की बात है कि यह इस साल में तीसरा मौका है जब हमारे अन्नदाताओं को अपनी मांगें लेकर सरकार तक पहुंचाने के लिए राजधानी का दरवाजा खटखटाना पड़ा है। किसान संघ की अगुवाई में दिल्ली प्रदेश में घुसने की कोशिश कर रहे किसानों की 23 सितम्बर से हरिद्वार से किसान क्रांति निकालते हुए दिल्ली सीमा पर प्रशासन-पुलिस से जबरदस्त झड़पें हुईं। आयोजक भी जानते होंगे कि दो अक्तूबर को जब दिल्ली में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के आयोजन चल रहे होंगे और दुनियाभर के अतिथि यहां मौजूद होंगे, तब उन्हें ट्रैक्टर-ट्रालियों पर लदकर किसान घाट नहीं पहुंचने दिया जाएगा, जो महात्मा गांधी के समाधि स्थल राजघाट का एक हिस्सा है। राजनीतिक विरोध प्रदर्शन के कार्यक्रम ऐसे अवसरों को ध्यान में रखकर ही बनाए जाते हैं और यही हुआ भी। हजारों की संख्या में उमड़े किसानों को दिल्ली की सीमा पर बैरिकेड और दफा-144 वगैरह लगाकर रोक दिया गया। दिल्ली की सीमाओं पर जो हुआ, वह अगले कुछ दिन के लिए उनकी राजनीतिक पूंजी बन गया है। जैसा मैंने कहा कि यह पहला मौका नहीं जब किसान खेतों को छोड़कर सड़कों पर उतर आए हों। कुछ ही दिन पहले महाराष्ट्र के किसानों ने नासिक से मुंबई तक लांग मार्च किया था। जुलाई महीने में अखिल भारतीय संघर्ष समन्वय समिति ने दिल्ली में किसानों का एक बड़ा प्रदर्शन किया था। सितम्बर की शुरुआत में 23 राज्यों के किसानों ने रामलीला मैदान तक एक बड़ा प्रदर्शन किया था। सवाल है कि आखिर किसानों को बार-बार गुहार लगाने को क्यों मजबूर होना पड़ रहा है। सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से ऐसे कोई ठोस प्रयास क्यों नहीं किए होते जो किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान निकालें बजाय इसके ऐसे कदम उठाए जाते हैं जो फौरी राहत से ज्यादा कुछ नहीं होते। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इस साल कई फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाया गया, किसानों के कल्याण के लिए योजनाएं भी बनी हैं। लेकिन इनमें स्थायी समाधान की झलक नहीं मिलती। कर्जमाफी, बिजली के पुराने बिलों की भुगतान की माफी जैसे कदम लुभावने घोषणाओं का झुनझुना ही साबित होते हैं। चुनावों से पहले जिस तरह वादों की झड़ी लगा दी जाती है उससे किसानों को लगता है कि अब अच्छे दिन आ जाएंगे। लेकिन हकीकत सामने आते देर नहीं लगती। आजादी के सात दशक बाद भी देश के सत्रह राज्यों में किसान परिवार की औसत सालाना आय महज 20 हजार रुपए है, जो किसान कर्ज लेकर खेती करते हैं वह फंस जाते हैं और कर्ज नहीं चुका पाने की वजह से आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि कृषि प्रधान देश का किसान इतनी बुरी हालत में है। इनकी मांगों पर गंभीरता से विचार कर ठोस व स्थायी हल निकाला जाए। यह नहीं भूलना चाहिए कि किसान देश के सबसे बड़े वोट बैंक भी हैं।

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