भारत की कूटनीतिक सफलता
अमेरिकी नाराजगी के बावजूद भारत ने एस-400 मिसाइल रक्षा सिस्टम पर समझौता करके स्पष्ट संकेत दिया है कि वह राष्ट्रीय हितों के लिए किसी की परवाह किए बिना किसी भी देश से समझौते के लिए तैयार है। साथ ही पाकिस्तान की तरफ झुकाव के समर्थक रूसी रणनीतिकारों को संकेत दिया है कि भारत के लिए रूस आज भी विश्वसनीय रणनीतिक सहयोगी है। फिलहाल एस-400 का समझौता करके मोदी सरकार ने सफल कूटनीतिक चातुर्य का परिचय दिया है।
राष्ट्रपति पुतिन के साथ पीएम मोदी की शुक्रवार को 19वीं वार्षिक बैठक थी। दोनों देशों के नेताओं एवं अधिकारियों के बीच बैठक तीन घंटे तक चली जबकि पुतिन-मोदी ने डेढ़ घंटे अकेले में बातचीत की। दोनों देशों के बीच एस-400 के अलावा रूस में भारत की तरफ से नया तेल ब्लाक खरीदना, साथ मिलकर नागरिक विमान बनाना, मुक्त व्यापार समझौते पर सहमति बनाना, साथ मिलकर दूसरे देशों में सम्पर्प परियोजनाओं को लागू करने जैसे मुद्दों पर बातचीत हुई।
इस बैठक में दोनों देशों द्वारा किए गए एस-400 वायु रक्षा प्रणाली पर समझौते को काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसके दो पक्ष हैं। पहला रक्षा नीति की दृष्टि से यह प्रणाली हमारे दुश्मन देशों पाकिस्तान और चीन की रक्षा तैयारियों को देखते हुए जरूरी थी। आज की स्थिति में कोई भी देश वायुसेना की सक्रियता के बिना कोई भी युद्ध जीतने की सोच भी नहीं सकता। भारत की ताकत 28 स्क्वाड्रन की है जबकि उसकी रक्षा जरूरतें 45 स्क्वाड्रन की हैं। वायुसेना इतनी कमजोर स्थिति में एक दिन में नहीं आया है। वास्तविकता तो यह है कि बोफोर्स रक्षा सौदे में उठे बवंडर के बाद कभी भी बड़े रक्षा सौदे की हिम्मत ही नहीं हुई सरकारों की। इसमें सबसे बड़े बाधक बने थे नौकरशाह क्योंकि उन्हें इस बात का डर सताता था कि यदि उन्होंने किसी फाइल पर कोई टिप्पणी की तो बाद में नेता तो बच जाएंगे किन्तु उनकी पेंशन भी रोक ली जाएगी।
2014 में केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद नौकरशाहों को यकीन दिलाया गया कि हर समझौते की प्रक्रिया सामूहिक उत्तरदायित्व के आधार पर तय होगी। किसी भी रक्षा सौदे में बिचौलियों की कोई भूमिका नहीं होगी। दो देशों के शासनाध्यक्षों के बीच, दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों के बीच, दोनों देशों के अधिकारियों एवं विशेषज्ञों के बीच समझौते सरकारी स्तर पर होंगे। रक्षा सौदों की इसी नीति के तहत सारे सौदे हो रहे हैं। इस वक्त पाकिस्तान के पास अपग्रेडेड एफ-16 से लैस लड़ाकू विमानों का 20 स्क्वाड्रन है। चीन से मिले जे-17 विमान भी बड़ी संख्या में हैं। चीन के पास 1700 लड़ाकू विमान हैं। इनमें 800 विमान चौथी श्रेणी के हैं। एस-400 लेकर भारत अपनी मारक क्षमता को इतना बढ़ा लेगा कि पाकिस्तान के सभी लड़ाकू विमान इसके निशाने पर होंगे। चीन से लगती लगभग 4000 किमी सीमा पर वायु रक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए भी भारत इस प्रणाली को जल्दी खरीदना चाहता था। इस प्रणाली के लिए चीन ने भी रूस से समझौता किया है और अब उसे मिलना भी शुरू हो गया है। इस सुरक्षा प्रणाली की मदद से तिब्बत में चीनी सेना की गतिविधियों पर नजर रखने में भारतीय वायुसेना को मदद मिलेगी। इससे चीन की हिन्द महासागर में खुराफाती गतिविधियों की भी जानकारी मिल सकेगी। एस-400 की मारक क्षमता तो भारत के लिए रक्षा दृष्टि से महत्वपूर्ण है ही साथ ही इस समझौते से जुड़ी विदेश नीति संबंधी भारत की साहसिक पहल की भी कूटनीतिक क्षेत्रों में काफी चर्चा है।
विदेश नीति एवं कूटनीतिक दृष्टि से भारत ने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए रूस से एस-400 पर जो समझौता किया है वह नई दिल्ली से अमेरिका को यह संदेश देकर किया कि हर दोस्त की अपनी अहमियत है। भारत इस वक्त वाशिंगटन डीसी का ऐसा रणनीतिक सहयोगी है जैसा कि उसके नाटो सहयोगी हैं। भारत इसीलिए ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, फ्रांस और आस्ट्रेलिया का मित्र राष्ट्र बन चुका है क्योंकि यह सभी अमेरिका के रणनीतिक सहयोगी देश हैं। अमेरिका हमेशा भारत की जरूरतों पर बढ़चढ़ कर बोलता है और कोशिश करता है कि नई दिल्ली को किसी भी तरह दूसरे देशों खासकर रूस की जरूरत न पड़े। भारत भी अमेरिका के साथ सहयोग और समन्वय कायम रखने में कोई कमी नहीं करता क्योंकि आज की तारीख में भारत की जरूरतों को सिर्प रूस पूरा नहीं कर सकता। रूस के साथ खूंटे में बंधा रहकर भारत की रक्षा एवं कूटनीतिक जरूरतें कभी भी पूरी नहीं हो सकतीं। रूस के साथ बंधे रहने पर अमेरिका और उसके रणनीतिक सहयोगी देशों से भी भारत को रक्षा, परमाणु, व्यापार और कूटनीतिक सहयोग जरूरतों के मुताबिक नहीं मिल सकता था। यही कारण है कि भारत ने अमेरिका के साथ अपने संबंधों के सारे आयामों पर खुलकर चर्चा की और विश्वसनीयता की ऐसी मजबूत रस्सी में सहयोग संबंधों को बांधा जिससे नई दिल्ली और वाशिंगटन डीसी एक-दूसरे के सहयोगी बन गए। दोनों देशों में कोई भी एक-दूसरे से मित्रता का अभिनय नहीं करता। दोनों वास्तविक मित्रता के रास्ते में रोड़े हटाने के लिए बैठकें करते रहते हैं। अमेरिका ने इन दिनों रूस के खिलाफ `काउंटिंग अमेरिका एडवर्सीज थ्रू एक्शन एक्ट (काटसा)' लगा रखा है। इसलिए वह कभी भी नहीं चाहता था कि भारत रूस से किसी भी तरह का रक्षा समझौता करे। काटसा के तहत अमेरिका अपने सहयोगी देश पर भी कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र है जो रूस से प्रतिबंधित क्षेत्रों में समझौते करते हैं। लेकिन भारत ने अमेरिका को इस बात का अहसास दिला दिया कि जब हिन्द महासागर में भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के संयुक्त नेवी युद्धाभ्यास पर चीन आंखें तरेर रहा है तो कमजोर भारत किसी भी दृष्टि से अमेरिका के लिए लाभदायक नहीं रहेगा। अमेरिका को खुद चाहिए कि वह भारत को एक मजबूत सहयोगी बनने में सहयोग करे। भारत ने अमेरिका को समझाया कि उसने अपनी रक्षा प्रणाली को समृद्ध एवं सुदृढ़ बनाने के लिए खुद उससे, इजरायल एवं उसके मित्र फ्रांस से रक्षा सौदे किए किन्तु एस-400 के बिना वह चीन और पाकिस्तान से खुद को सुरक्षित नहीं रख सकता। यही कारण है कि भारत और रूस के बीच एस-400 पर हस्ताक्षर के तुरन्त बाद नई दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास ने प्रेस विज्ञप्ति जारी करके यह संकेत दिया कि वह इस सौदे को लेकर फिलहाल विचार कर रहा है। प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक ``काटसा प्रतिबंध का उद्देश्य रूस के रक्षा क्षेत्र में बाहरी मुद्रा को आने से रोकना है किन्तु यह हमारे रणनीतिक साझीदारों की सैन्य क्षमताओं को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं है। यह हर सौदे पर प्रतिबंध लगाने के लिए भी नहीं है। इससे छूट देने की व्यवस्था है।''
अमेरिका की इस तात्कालिक प्रतिक्रिया से एक बात स्पष्ट हो गई कि एस-400 के समझौते से पूर्व भारत ने अमेरिका की नाराजगी की सीमा का समुचित अनुमान लगा रखा था। भारत ने अमेरिका को स्पष्ट संकेत भी दे दिया कि नई दिल्ली अपने राष्ट्रीय हितों के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। साथ ही अमेरिका को इस बात का अहसास भी दिलाया कि नई दिल्ली और वाशिंगटन डीसी के बीच एस-400 समझौते को मुद्दा बनाना हितकर साबित नहीं होगा। अमेरिका के लिए ज्यादा फायदेमंद यही है कि वह इस समझौते को नजरंदाज करने के लिए खुद रास्ते तलाशे। प्रधानमंत्री मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की जोड़ी ने स्पष्ट कर दिया कि भारत की विदेश नीति अमेरिका और रूस दोनों के साथ ठोस विश्वास की नींव पर स्थित है और राष्ट्रीय हितों के लिए वह किसी भी तरह के समझौते करने को तैयार नहीं है। इसीलिए एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली का समझौता और अमेरिका की इस पर नरमी भारत की कूटनीतिक सफलता का परिणाम है।