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राफेल सौदे में कुछ उलझे सवाल

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:9 Oct 2018 6:36 PM GMT
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सुप्रीम कोर्ट उस जनहित याचिका पर सुनवाई के लिए तैयार हो गया है जिसमें राफेल डील की डिटेल्स अदालत में सौंपने और एनडीए सरकार और यूपीए सरकार के दौरान विमान की तुलनात्मक विश्लेषण पेश करने का निर्देश देने की मांग की गई है। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली बैंच ने कहा कि इस मामले में पहले से पेंडिंग याचिकाओं पर 10 अक्तूबर को सुनवाई होनी है, लिहाजा इस जनहित याचिका को भी उसी दिन सुना जाएगा। फ्रांस से 36 हजार करोड़ की राफेल डील पर सियासी विवाद के बीच एडवोकेट विनीत ढांडा की ओर से दाखिल इस जनहित याचिका में कहा गया है कि भारतीय कंपनी को ठेका दिए जाने के बारे में बताया जाए। इससे पहले एचएल शर्मा ने अर्जी दाखिल करके राफेल डील में तमाम गड़बड़ियों का आरोप लगाया था। एक शब्द है जवाबदेही, इसी का एक पर्यायवाची शब्द उत्तरदायित्व भी है। आसान भाषा में इसका मतलब यह होता है कि जवाब देने का काम किसका है? राफेल सौदे और उसमें अनिल अंबानी की नई-नवेली कंपनी की भूमिका को लेकर बहुत सारे सवाल उठ रहे हैं जिसकी सीधी जवाबदेही प्रधानमंत्री की है क्योंकि वह प्रधानमंत्री हैं और इस सौदे पर उन्होंने दस्तखत किए हैं। इस डील को अंजाम तक पहुंचाने में तत्कालीन रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर या कैबिनेट की किसी भूमिका के कोई सुराग नहीं हैं। यही वजह है कि सवाल पीएम मोदी से पूछे जा रहे हैं। लेकिन जवाब उनकी टीम के सदस्य दे रहे हैं। सवालों की शक्ल में या फिर फिकरे कसकर। पीएम ने मध्यप्रदेश में राहुल गांधी के आरोपों को विदेशी करार दिया, लेकिन जवाब तो दूर, राफेल शब्द उनके मुंह से नहीं निकला, जितना कीचड़ उछलेगा उतना कमल खिलेगा। यह कहने का कोई आधार या सबूत नहीं है कि कोई घोटाला हुआ है या किसी ने रिश्वत ली है। लेकिन यह पूरा मामला राजीव गांधी के कार्यकाल के बोफोर्स की तरह परत-दर-परत खुल रहा है। बोफोर्स मामले में भी यह साबित नहीं हो सका कि वह घोटाला था या राहुल गांधी के पिता ने रिश्वत ली थी, चोर और खानदानी चोर के हो-हल्ले के बीच न तो सही सवाल सुनाई दे रहे हैं, न ही कोई जवाब ही मिल रहा है। सवाल भारत के राष्ट्रीय हितों, सुरक्षा, प्रधानमंत्री के कार्यालय की गरिमा और पारदर्शिता से जुड़े हैं। मामले की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की कैबिनेट के दो मंत्रियों और एक नामी वकील ने इसे घोर आपराधिक अनियमितता बताते हुए कई सवाल पूछे हैं। हवा में कई सवाल तैर रहे हैंöभारतीय वायुसेना की जरूरतों को देखते हुए, फ्रांसीसी कंपनी डासो एविएशन से 126 विमान खरीदे जाने थे। 2012 में मनमोहन सिंह सरकार की फ्रांसीसी कंपनी से बातचीत चल रही थी। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी यह सिलसिला चलता रहा। 2015 में डासो के प्रमुख एरिक ट्रंपिए ने कहा था कि 95 प्रतिशत बातें तय हो गई हैं और जल्दी ही काम शुरू होगा। सवाल नम्बर एकöप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 10 अप्रैल 2015 को अपनी फ्रांस यात्रा के दौरान 17 समझौतों पर दस्तखत किए जिनमें एक समझौता राफेल विमान की खरीद का भी था। विमानों की संख्या 126 से घटकर अचानक 36 हो गई। सरकार ने अभी तक देश या संसद या मीडिया को यह नहीं बताया कि इतना बड़ा बदलाव कब और कैसे हुआ? सवाल नम्बर दोö126 फाइटर जेट खरीदे जाने थे बल्कि उनमें से 108 विमान भारत में टेक्नोलॉजी ट्रांसफर करार के तहत, बेंगलुरु में सरकारी कंपनी हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लि. (एचएएल) में बनाए जाने वाले थे लेकिन वह इरादा छोड़ दिया गया। सरकारी क्षेत्र की कंपनी एचएएल के पास लड़ाकू विमान बनाने का अच्छा-खासा अनुभव है। टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के तहत वहां पहले भी सैकड़ों जगुआर और सुखोई विमान बनाए गए हैं। मेक इन इंडिया में रक्षा क्षेत्र में जोर देने की बात कही गई थी और यह उस दिशा में बहुत बड़ा कदम हो सकता था। लंबी प्रक्रिया को पूरा करके, वायुसेना की जरूरतों का आकलन करने के बाद ही तय किया गया था कि 126 विमानों की जरूरत होगी। क्या भारत की जनता को यह बताया नहीं जाना चाहिए कि वायुसेना की लड़ाकू विमानों की जरूरत कम कैसे हो गई और एचएएल को यह मौका क्यों नहीं दिया गया? सवाल नम्बर तीनöयह एक नया सौदा था क्योंकि विमानों की कीमत, संख्या और बताई गई थी। अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और प्रशांत भूषण का आरोप है कि प्रधानमंत्री ने नियमों का पालन नहीं किया। सवाल यह है कि अगर यह नया ऑर्डर था तो नियमों के मुताबिक टेंडर क्यों जारी नहीं किए गए? यह भी पूछा जा रहा है कि इस फैसले में तत्कालीन रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर और कैबिनेट ऑन सिक्यूरिटी की क्या भूमिका थी? अगर नहीं थी तो क्यों नहीं थी? सवाल नम्बर चारöविमान की कीमत को लेकर सरकार संसद में जानकारी देने से कतराती रही है। सरकार ने विमान की कीमत बताने से यह कहते हुए इंकार किया कि यह सुरक्षा और गोपनीयता का मामला है। आरोप लगाने वाले भाजपा से जुड़े रहे दोनों पूर्व कैबिनेट मंत्रियों का कहना है कि नियमों के मुताबिक गोपनीयता सिर्प विमान की तकनीकी जानकारी के बारे में बरती जाती है, कीमत के बारे में नहीं। क्या सरकार की जिम्मेदारी देश को यह बताने की नहीं है कि खजाने से लगभग 36 हजार करोड़ रुपए ज्यादा क्यों खर्च हो रहे हैं? सरकार के मंत्रियों ने बचाव में कहा है कि विमान में बहुत सारे साजो-सामान और हथियार अलग से लगाए गए हैं इसलिए कीमत बढ़ी है। संसद में दी जानकारी के आधार पर लोग आरोप लगा रहे हैं कि जो पिछला सौदा हुआ था उसमें सभी अतिरिक्त साजो-सामान और हथियारों की भी कीमत में शामिल थी। सरकार को यह बताना चाहिए कि आखिर सच क्या है? जिस दिन नरेंद्र मोदी ने पेरिस में विमान खरीद के समझौते पर हस्ताक्षर किए, वह तारीख थी 10 अप्रैल 2015, 25 मार्च 2015 को रिलायंस ने रक्षा क्षेत्र में एक कंपनी बनाई जिसे सिर्प 15 दिन बाद लगभग 30 हजार करोड़ का ठेका मिल गया। एक ऐसी कंपनी जिसने रक्षा उपकरण बनाने के क्षेत्र में कोई काम नहीं किया है। ऐसे भी फ्रांसीसी कंपनी अपनी मर्जी से ऐसा पार्टनर क्यों चुनेगी यह एक पहेली है। सौदे के समय फ्रांस के राष्ट्रपति रहे फ्रास्वां ओलांद ने एक इंटरव्यू में कहा कि रिलायंस के नाम की पेशकश भारत की ओर से हुई थी। उनके सामने कोई विकल्प नहीं था। सफाई में सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि यह राहुल-ओलांद की जुगलबंदी है, एक साजिश है। भारत में शायद ही कोई बड़ा रक्षा सौदा हुआ हो और उसमें घोटाला, दलाली और रिश्वतखोरी के आरोप न लगे हों लेकिन किसी भी मामले में आरोप साबित नहीं होते, सवालों के जवाब नहीं मिलते। राफेल मामले में भी क्या ऐसा ही होगा? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के जागरूक नागरिकों को टीवी पर तू चोर, तेरा बाप चोर वाला ड्रामा देखकर संतोष करना होगा या परसेप्शन की लड़ाई में कुछ तथ्य और तर्प भी सामने आएंगे? क्या पता? देखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में क्या होता है?

-अनिल नरेन्द्र

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