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राज्यपाल ने तो सभी के पांव तले जमीन खिसका दी

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:24 Nov 2018 6:55 PM GMT
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जम्मू-कश्मीर में बुधवार को सियासी घटनाक्रम तेजी से बदला। सुबह राज्य में सरकार गठन के लिए पीडीपी, कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के बीच गठबंधन की बात तय हुई तो शाम को पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने सरकार बनाने का दावा पेश किया। इसके ठीक बाद पीपुल्स कांफ्रेंस के सज्जाद लोन ने भी दावा पेश कर दिया। लेकिन थोड़ी ही देर में राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने विधानसभा भंग करने का ऐलान कर दिया। राज्यपाल के इस फैसले से सियासी तूफान आ गया। राज्यपाल के फैसले का विरोध भी हो रहा है और समर्थन भी। राज्यपाल ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग करने के चार तर्प दिए। पहलाöविपरीत विचारधारा वाली राजनीतिक पार्टियों के एक साथ आने से स्थिर सरकार बनाना असंभव था। इनमें वह पार्टियां भी शामिल थीं, जो विधानसभा भंग करने की मांग कर रही थीं। पिछले कुछ सालों का अनुभव रहा है कि टूटे जनादेश के साथ स्थिर सरकार बनाना संभव नहीं होता। जो पार्टियां एक साथ आई थीं, वह जिम्मेदार सरकार बनाने की जगह सत्ता पाने की कोशिश में थीं। दूसराöसरकार बनाने के लिए अन्य विधायकों का समर्थन जरूरी था। ऐसे में हार्स ट्रेडिंग यानि खरीद-फरोख्त और पैसे के लेन-देन की संभावनाएं अधिक थीं। रियासत में इस तरह की रिपोर्ट भी मिल रही थी। लोकतंत्र के लिए इस तरह की गतिविधियां हितकारी नहीं थीं। इससे राजनीतिक प्रक्रिया दूषित होती, इसलिए विधानसभा भंग करने का फैसला करना पड़ा। तीसराöअगर विपरीत विचारधारा वाले दलों की सरकार बन भी जाती तो उसके लंबे चलने में गहरा संदेह था। बहुमत हासिल करने के चक्कर में कभी भी इनमें टूट होती। सरकार स्थिर न होती। चौथाöरियासत में सुरक्षा परिदृश्य को देखते हुए यहां आतंक निरोधी ऑपरेशनों में तैनात सुरक्षा बलों के लिए, जोकि धीरे-धीरे हालातों पर नियंत्रण पाने लगे हैं, एक स्थिर और सहयोगी वातावरण की जरूरत है। बेशक राज्यपाल के तर्कों में दम है पर इस फैसले का विरोध करने वालों का कहना है कि संविधान और परंपरा का तकाजा तो यही था कि राज्यपाल सबसे बड़े गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते और उसे विधानसभा में जल्दी अपना बहुमत साबित करने को कहते। सत्यपाल मलिक जैसे मंजे हुए राजनीतिज्ञ को सूबे का राज्यपाल बनाकर भाजपा नए सहयोगी के साथ मिलकर अपनी सरकार बनाना चाहती थी। उसे सज्जाद लोन के रूप में एक नया सहयोगी भी मिला जो पीडीपी और दूसरे दलों के असंतुष्टों को अपने साथ लाने की रणनीति पर आगे बढ़ रहे थे। इस नए राजनीतिक समीकरण को समझते ही तलवार और ढाल की तरह एक-दूसरे से मिलने वाली पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस एक साथ आने पर सहमत हो गई। इनका एक साथ मंच पर आना किसी को भी आश्चर्य में डाल सकता है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे को बचाए रखना और भाजपा को सत्ता से दूर रखने के सिवाय इनके बीच आम सहमति के सभी मुद्दे नदारद हैं। लेकिन पीडीपी-नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस को एक मंच पर आने से यह तय हो गया था कि सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत वह जुटा लेते। ऐसी सूरत में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के पास दो ही विकल्प थेöविधानसभा भंग करके नया चुनाव कराना और सूबे में गैर-भाजपा सरकार बनते देखना। विधानसभा भंग करके राज्यपाल मलिक ने पीडीपी, नेकां और कांग्रेस को तो इतना नहीं चौंकाया जितना उन्होंने भाजपा को चौंकाया होगा क्योंकि सही मायनों में उन्होंने केंद्र में स्थापित भाजपा सरकार के उन कदमों को भी रोक दिया है जिसके तहत भाजपा सज्जाद गनी लोन के कांधों पर बंदूक रखकर सरकार बनाना चाहती थी और मात्र दो विधायक होने के बावजूद वह सरकार बनाने का दावा कर स्थिति को हास्यास्पद बनाने जा रहे थे।

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