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कर्ज माफी नहीं, सक्षम बनाने की जरूरत

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:2 Dec 2018 5:33 PM GMT

कर्ज माफी नहीं, सक्षम बनाने की जरूरत

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अपनी मांगों को लेकर संसद भवन के सामने प्रदर्शन करने के उद्देश्य से पहुंचे 24 राज्यों के 35 हजार किसानों को संसद मार्ग पर ही रोक लिया गया। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के तत्वावधान में आयोजित किसानों की रैली को 21 राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त था जबकि इनके मंच से जिन आठ नेताओं ने भाषण दिया या तो उनकी पार्टियां सत्ता में रही हैं या वह खुद ही सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे हैं। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के महासचिव के मुताबिक तो किसानों की दो मुख्य मांगें हैंöपहली कर्ज माफी और दूसरी उपज के लाभकारी मूल्य।

यह सही है कि किसान दयनीय दशा में हैं इसीलिए अनेक राज्य कृषि ऋण को माफ भी कर रहे हैं। किन्तु यह दीर्घकालीन समाधान नहीं माना जा सकता। आरबीआई के गवर्नर ने तो कर्जमाफी से राजकोषीय घाटा बढ़ने की आशंका भी जताई है और यदि राजकोषीय घाटा बढ़ गया तो न सिर्प कई योजनाएं ठप करनी पड़ेंगी बल्कि मुद्रास्फीति भी बढ़ जाएगी। आवश्यक है कि ऐसे उपाय किए जाएं जिससे कि किसानों को कर्ज लेने की जरूरत ही न पड़े। पिछले कुछ वर्षों से किसानों के कर्जे माफ किए गए बदले में किसानों से वोट भी लिए गए किन्तु परिणाम वही ढाक के तीन पात। सच तो यह है कि कृषि ऋण माफ करने से किसानों को ही नुकसान हुआ है। इससे साख व्यवस्था प्रभावित हो चुकी है। सुदूर ग्रामीण अंचलों में सहकारी समितियों की जो पकड़ आम आदमी तक है, वहां अन्य वित्तीय संस्थाओं की नहीं है। अनेक प्रयासों के बाद भी यह संस्थाएं वहां लघु एवं सीमांत कृषकों को छोटे ऋण देने से कतराती हैं। स्थानीय स्तर पर सहकारी समितियों के माध्यम से वितरित ऋण एवं अन्य कृषि सामग्री सरकार के निर्देशों के अंतर्गत सस्ती दरों में बांटी गई अथवा घाटे पर दिए गए ऋणों की वसूली पर भी रोक लगाई गई जिसके कारण सहकारी समितियों की वित्तीय दुर्दशा देखने को मिलती है और इससे धीरे-धीरे पूरा सहकारी ढांचा न केवल चरमरा गया बल्कि समाप्ति की ओर है। ऐसी स्थिति में ग्रामीण क्षेत्रों की साख व्यवस्था पर न ध्यान देने के कारण वहां की दरिद्रता और बढ़ती गई। यदि सहकारी समितियों को स्वतंत्र रूप से उनके वास्तविक सदस्यों द्वारा संचालित किया जाए मतलब कि जो समिति के कष्ट को अपना कष्ट समझें तो निश्चित रूप से वह कृषि क्षेत्र में चमत्कारी भूमिका निभा सकेंगे।

किसानों को ऋण दिए जाने की व्यवस्था और सुविधाओं को मजबूत तथा उदार बनाने की आवश्यकता है। समय-समय पर केंद्र व राज्य सरकारों ने किसानों को ऋण से मुक्त कराने के लिए ऋण माफी की अनेक योजनाएं घोषित की हैं पर गंभीरतापूर्वक विचार करके निर्णय लिया गया होता तो किसानों की दुर्दशा शायद कुछ कम होती। ऋण माफी से निश्चित रूप से उन किसानों को फायदा हुआ जो कभी भी अच्छे ऋण भुगतानकर्ता थे ही नहीं और उनमें यह प्रवृत्ति विकसित हुई कि ऋण की अदायगी से कोई लाभ नहीं है। किसी न किसी समय जब भी सरकार इसे माफ करेगी तो इसका लाभ हमें भी मिलेगा। साथ ही ऐसे किसान जो सदैव समय से ऋण अदायगी करते रहे हैं, वह ऋण माफी की कार्रवाई से ठगा महसूस कर चुके हैं। उन्हें लगता है कि वह तो धोखा खा गए। इसलिए उनमें भी यह भावना विकसित हो रही है कि समय से ऋण भुगतान करने से कोई लाभ नहीं है और जब बकायेदार सदस्यों का कुछ नहीं बिगड़ रहा है तो हमारा क्या बिगड़ेगा। किसान किसी न किसी रूप में लगभग सभी वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करके बकायेदार बन गए और बकायेदारों को ऋण न देने की नीति के कारण वह किसान दोबारा उन संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने के लिए अयोग्य ठहरा दिए गए हैं। जब किसानों को फिर सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन हेतु किसी न किसी रूप में धन की जरूरत पड़ती है तो वह फिर उसी साहूकार के पास बाध्य होकर हाथ फैलाता है जो उसकी मजबूरी का फायदा उठाकर अपनी शर्तों पर ऋण देते हैं। साहूकार पांच से 10 रुपए प्रति सैकड़ा प्रतिमाह की दर से किसान को ऋण देता है जिसकी कोई गारंटी नहीं होती और न ही कोई दस्तावेज मांगे जाते हैं बल्कि उनकी चल-अचल सम्पत्ति और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को देखते हुए ऋण दिया जाता है। आकंठ ऋण में डूबे किसानों की दुर्दशा यदि ऋण माफी से ही करनी है तो बहुत सोच-समझ कर की जानी चाहिए अन्यथा सरकार की हमदर्दी जिस तरह किसानों के लिए जानलेवा साबित हुई उसी तरह आगे भी होती रहेगी।

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के महासचिव आशीष मित्तल के मुताबिक दूसरी मांग उपज की लाभकारी मूल्य है। निश्चित रूप से किसानों की लागत और आय के बीच फासले बढ़ाने के लिए यह मांग अत्यंत आवश्यक है। किसानों के लिए कृषि कार्य के अलावा तमाम और सामाजिक दायित्व होते हैं। यदि वह कृषि कार्य में पूर्णकालिक रूप से लगा है तो उसकी अन्य सामाजिक एवं पारिवारिक जरूरतें पूरी करने के लिए धन कहां से आएगा। इसलिए सबसे सरल एवं उचित तरीका यही है कि किसानों की उपज का समर्थन मूल्य बढ़ा दिया जाए। इस दिशा में केंद्र सरकार ने कैबिनेट में चार जून को एक प्रस्ताव पारित करके खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की मंजूरी दे दी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018-19 के बजट में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने खरीफ फसलों के लिए उनकी लागत का 1.5 गुना मूल्य देने का ऐलान किया था। खरीफ की फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी से किसानों की आय बढ़ेगी। उम्मीद की जा रही है कि जल्दी ही रबी के फसल की भी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की घोषणा होगी। सरकार को 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के अपने वादे पर काम करना होगा। राज्य सरकारों को किसानों को मिलने वाली बिजली, नहर की सिंचाई पर उचित रियायत तथा सिंचाई के ट्यूबवैल के इंजन, ट्रैक्टर एवं मड़ाई की मशीनों के लिए रियायती दर पर ऋण सुविधा की व्यवस्था करनी चाहिए और फसल बीमा योजना को कड़ाई से लागू किया जाना चाहिए।

हैरानी की बात है कि किसानों को संबोधित करने वाले राजनेताओं ने किसानों, राफेल सौदे, अडाणी-अंबानी, अयोध्या में मंदिर-मस्जिद, महाभारत की कहानियां और एनपीए की कहानी तो सुनाई किन्तु रैली में मौजूद शरद पवार यह नहीं बता पाए कि उन्होंने 10 वर्षों तक कृषि मंत्री रहते हुए कौन-सी ऐसी योजना लागू की जिससे कि किसानों को राहत मिली और उनकी आय बढ़ी। झूठे भाषण सुनकर भले ही किसान गद्गद् हो गए हों किन्तु इससे सरकार का दायित्व कम नहीं हो जाता। एनपीए के 12 लाख करोड़ की कहानी बताकर यदि किसानों से यह कहा जाता है कि औद्योगिक घरानों का ऋण बट्टे खाते में चला गया तो इससे किसानों का कोई फायदा होने वाला नहीं है क्योंकि 12 लाख करोड़ का एनपीए इसलिए है कि यह ऋण 2009 से 2013 के बीच दिए गए। चक्रवृद्धि ब्याज बढ़कर ज्यादा हो गए हैं। यदि किसानों को यह कहानी सुनाई गई कि औद्योगिक घरानों के लाखों रुपए के कर्जे माफ कर दिए गए तो यह झूठ है क्योंकि कोई कर्ज माफ नहीं हुआ है बल्कि वह `राइट ऑफ' है। यदि किसानों को इस बात से डराया जा रहा है कि 12 लाख करोड़ का एनपीए भी माफ करने की तैयारी है तो यह झूठ भी अकल्पनीय है।

बहरहाल देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि से जुड़ी है और भारत विकसित देश बनने का दावा करता है। सवाल है कि कृषि क्षेत्र को अविकसित छोड़कर क्या भारत विकसित देश होने का दावा कर सकता है? सामान्य समझ का व्यक्ति भी इस सवाल का जवाब नहीं में देगा। सरकार को किसान की हालत सुधारने के लिए हर वर्ग के किसानों के लिए अलग-अलग तरीके से योजनाएं लागू करके इस बात का संकल्प लेना होगा कि घाटे की खेती फायदे का उद्योग बन जाए। इसके लिए केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को प्रयास करना होगा और ऐसा तभी होगा जब सरकारें किसानों को ऋण माफी की तात्कालिक सुविधा के बजाय उन्हें इतना सक्षम बनाने की नीति अपनाएं जिससे कि ऋण लेने की जरूरत ही न पड़े।

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