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मुद्दे कांग्रेस के, फायदा भाजपा को

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:7 April 2019 5:58 PM GMT

मुद्दे कांग्रेस के, फायदा भाजपा को

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चुनाव में मुद्दे दो तरह से बनते हैं। पहला तरीका राजनीतिक पार्टियां अपने लिए सुविधाजनक और विरोधी के लिए असुविधाजनक मुद्दों को उठाती हैं और उन्हें प्रचारित करती हैं। दूसरा तरीका यह है कि मुद्दों को बनाने और उन्हें प्रचारित करने में विरोधी ही मदद करते हैं। यद्यपि वे चाहते नहीं किन्तु उनकी नीतियों, वक्तव्यों एवं आलोचनाओं से ऐसी स्थिति बनती है कि मुद्दे अपने आप स्पष्ट हो जाते हैं।

भारतीय जनता पार्टी यह बात अच्छी तरह जानती है कि सिर्प विकास से कोई भी पार्टी इतने बड़े देश में चुनाव कभी भी नहीं जीत सकती। इसलिए स्पष्ट बहुमत के लिए विकास के साथ-साथ भावनात्मक मुद्दे आवश्यक होते हैं। यह बात कांग्रेस भी जानती है कि सिर्प विकास और खैराती योजनाओं की घोषणा से देश की जनता उसे वोट देने वाली नहीं है। अपने घोषणा पत्र में कांग्रेस ने किसानों और गरीबों के लिए अपनी योजनाओं के ऐलान के बाद दो ऐसे भावनात्मक मुद्दों का ऐलान अलगाववादियों, कश्मीर और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों को ध्यान में रखकर के कर दिया जिसे भाजपा ने अपने लिए सुविधाजनक मान लिया। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में अफस्पा यानि सशस्त्र विशेषाधिकार कानून तथा देशद्रोह कानून को खत्म करने का वादा किया तो भाजपा ने अफस्पा को 1958 में संसद द्वारा पारित अशांत क्षेत्रों में सेना के लिए रक्षा कवच तथा देशद्रोह विरोधी कानून को राष्ट्रवाद से जोड़कर अपने चुनाव अभियान में विकासवाद के साथ राष्ट्रवाद को भी खड़ा कर दिया। कांग्रेस अपने अतीत का हवाला देकर राष्ट्रवाद पर अपना अधिकार जमाती है किन्तु कांग्रेस की नीतियों के विपरीत अब उसने जो नई नीति अपना रखी है उससे वह भाजपा की ही मदद कर रही है। शनिवार को कांग्रेस नेत्री सोनिया गांधी ने तालकटोरा स्टेडियम में आयोजित जन सरोकार 2019 एजेंडा कार्यक्रम पेश किया। इस एजेंडे में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की सलाह पर कानून बनाने एवं संशोधन का काम किया जाता है। इस परिषद की अध्यक्षता सोनिया गांधी कर चुकी हैं जिसमें वामपंथी विचारक एवं कार्यकर्ता शामिल थे। उन्हीं की सलाह पर सरकार काम करती थी। एनएसी की सबसे उल्लेखनीय सफलता यह है कि उसने देश में हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा को मूर्तरूप विकसित किया ताकि इस्लामिक आतंकवाद की वजह से देश के मुस्लिम समाज को मानसिक राहत दी जा सके। मजे की बात तो यह है कि आतंकवाद का कोई मजहब न होने की बात करने वाले देशवासियों को भगवा आतंकवाद की तूल दिए जाने की बात अच्छी नहीं लगी। असल में एनएसी के सदस्य अपने-अपने एनजीओ के प्रमुख थे जो नक्सलवाद के सैद्धांतिक संरक्षक एवं प्रेरणास्रोत थे उन्होंने अल्पसंख्यक कट्टरता को बहुसंख्यक कट्टरता से कम खतरनाक बताकर हिन्दू आतंकवाद का ऐसा भूत खड़ा किया कि यूपीए सरकार ने अल्पसंख्यकों के संरक्षण हेतु एक कानून बनाने का फैसला किया और उसका प्रारूप 14 जुलाई 2010 को तैयार किया गया। उसका नाम था सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण अधिनियम। यह कानून बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए इतना घातक था कि न तो कांग्रेस और न ही यूपीए सरकार का कोई मंत्री सार्वजनिक रूप से उसकी चर्चा करने को तैयार था। एनएसी की सलाह पर तैयार उक्त विधेयक को पारित कराकर कांग्रेस अल्पसंख्यकों एवं जनवादी संगठनों में लोकप्रियता एवं विश्वसनीयता का स्थाई भाव कायम करने वाली थी। इस कानून में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का प्रावधान था किन्तु अल्पसंख्यकों के आक्रमण से बहुसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने का कोई प्रावधान नहीं था। इसका विरोध करने वाली भाजपा, अन्नाद्रमुक, टीएमसी, शिवसेना का कहना था कि यह कानून बहुसंख्यकों के खिलाफ अल्पसंख्यकों के लिए घातक हथियार है। किन्तु चुनाव नजदीक होने और देश में प्रस्तावित विधेयक के खिलाफ उठी आवाज की आहट से सकपकाई कांग्रेस ने विधेयक को संसद में पेश ही नहीं किया।

मजे की बात तो यह है जब सोनिया गांधी दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश और अहमद पटेल जैसे अपने वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में अपने वामपंथी और अल्पसंख्यकवादी एजेंडे पर जोर दे रही थीं उसी वक्त प्रधानमंत्री अफस्पा पर कांग्रेस की आलोचना कर रहे थे और गृहमंत्री राजनाथ सिंह देशद्रोह कानून को और अधिक मजबूत करने की बात कर रहे थे। है न दोनों विरोधी एजेंडे वाली पार्टियां। एक पार्टी के नेता की छवि आतंकियों के मारे जाने के बाद रातभर रोने और न सोने की बनाई जाती है। उसी पार्टी के नेता `भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह' के समर्थन में खड़े होते हैं। उस पार्टी के लोग एक ऐसी जमात को इकट्ठा किए हुए हैं जो राष्ट्रवाद की खिल्ली उड़ाते हैं। जबकि दूसरी तरफ वे लोग हैं जिन्होंने राष्ट्रवाद पर ही अपने चुनाव प्रचार को केंद्रित कर दिया है। इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि देश में राष्ट्रवाद आकर्षक नारा है या जनवाद। सोनिया गांधी जिस जनवाद को अपना सैद्धांतिक चोला पहना चुकी हैं उसका ढोंगी आवरण देश की जनवादी पार्टियों सीपीएम और सीपीआई का बेड़ागर्प कर चुकी हैं। इस देश में जनवाद की अपेक्षा राष्ट्रवाद से आकर्षित होने वालों की संख्या ज्यादा है।

यदि जनवाद से काम चलता तो पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा जी अब तक भारतीय इतिहास की किताबों में बड़े जनवादी नेता होते। किन्तु उन्हें भारतीय जनमानस के बारे में पता था कि राष्ट्रवाद के मुकाबले जनवाद नहीं टिक सकता। जनवाद विरोधाभासी विचारों से भरा अवसरवादी विचार सिद्ध हो चुका है। जनवाद की आतंकवाद और नक्सलवाद की परिभाषा से देश की जनता कभी भी सहमत नहीं हो सकती।

सच तो यह है कि कांग्रेस देश में सक्रिय वामपंथी एवं अल्पसंख्यकवादी समूह के लिए लोकप्रिय है। यह समूह शनिवार को ही भारतीय जनता पार्टी को वोट न देने का एक अनुरोध पत्र भी जारी कर चुका है। ऐसा ही अनुरोध 2014 में भी उन्होंने जारी किया था। उनके अनुरोध का असर आम जनता पर तो कुछ भी नहीं पड़ता किन्तु उनके असहिष्णुता के नारे से देश में माहौल बनता-बिगड़ता रहा है। अब तो इस जनवादी समूह का बड़ा आकार बन गया है। इसमें नक्सल समर्थक, आतंकवाद और अलगाववाद समर्थक तो पहले से ही थे किन्तु अब सक्रिय कट्टरपंथी अल्पसंख्यकवादी भी शामिल हो चुके हैं।

भाजपा और मोदी की चाहे जितनी आलोचना करें किन्तु जब उनके राष्ट्रवादी एजेंडे की आलोचना की जाती है तो वे सारे तर्प और कुतर्प उन्हीं के पक्ष में जाते हैं। स्थिति यह है कि भाजपा चाहती है कि उसकी विरोधी पार्टियां राष्ट्रवाद के मुद्दे पर उसके खिलाफ बयानबाजी करें, कांग्रेस वही कर रही है। इससे तो स्पष्ट होता है कि कांग्रेस अपना रास्ता चुनकर भाजपा को अपने रास्ते पर मजबूती से चलने के लिए सहयोग कर रही है। डर इस बात का है कि जब भारत में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ रहा है तो कांग्रेस की छवि अल्पसंख्यकवादी, नक्सलवाद एवं आतंकवाद के प्रति ढुलमुल नीति अपनाने वाली पार्टी की बनती जा रही है। इस राष्ट्रीय पार्टी के चरित्र पर संदेह करने के कारण स्पष्ट होते जा रहे हैं। यह स्थिति सिर्प इसलिए है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं नीति-निर्धारक भारतीयता एवं राष्ट्र चिति से अविज्ञ हैं। उन्हें भ्रम की स्थिति से निकलकर कांग्रेस की सैद्धांतिक जड़ों को पहचानना होगा अन्यथा सबसे पुरानी इस पार्टी का नुकसान तो होगा ही, देश के लिए भी अशुभ संकेत हैं।

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