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मुठभेड़ पर सवाल

👤 Veer Arjun | Updated on:13 July 2020 6:56 AM GMT

मुठभेड़ पर सवाल

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कुख्यात बदमाश विकास दुबे ने निर्ममतापूर्वक आठ पुलिस अधिकारियों एवं कर्मियों की हत्या कर दी और कईं अन्य को घायल कर दिया तो मीडिया के वर्ग में और देश के वुछ लोगों ने पुलिस की अक्षमता पर मर्सिया पढ़ा था। इसमें सिपाही से लेकर वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक सभी को लपेटा गया। लेकिन शुव््रावार को पुलिस ने विकास को मुठभेड़ में मार गिराया तो अब विकास दुबे की मुठभेड़ को न्याय की हत्या और फजा बताकर पुलिस को गाली दी जा रही है।

इस मुठभेड़ का कोईं भी स्वतंत्र गवाह नहीं है। पुलिस इसे असली और विकास के समर्थक प्रायोजित बता रहे हैं। वास्तविकता तो जांच के बाद ही सामने आएगी। यह जांच पुलिस, सीआईंडी, सीबीआईं या न्यायिक मजिस्ट्रेटीय कोईं भी हो सकती है। जांच परिणाम से पहले ही न तो पुलिस दोषी है और न ही निदरेष। सवाल उठता है कि बिना जांच परिणाम के ही पुलिस को दोषी वैसे घोषित किया जा सकता है? विकास दुबे ने पुलिस स्टेशन के अंदर राज्य मंत्री स्तर के राजनेता की हत्या की और गवाही के अभाव में न्यायालय ने उसे दोष मुक्त कर दिया। लेकिन किसी का भी साहस नहीं है कि वह न्यायालय को इस पैसले के लिए दोषी ठहराए। बिना किसी जांच परिणाम के पुलिस को तो दोषी ठहराने का कोईं औचित्य नहीं है।

हैरानी की बात है कि हत्या, बलात्कार और ठगी करने वाले न्यायालय से निदरेष का प्रामाण पत्र लेकर माननीय सांसद, विधायक और मंत्री बन सकते हैं, लेकिन पुलिस के खिलाफ कोईं मुकदमा चलने से पहले ही वुछ लोगों ने अभी से छाती पीटना शुरू कर दिया है। इन बुद्धिजीवियों, पूर्व नौकरशाहों, वकीलों को अपने आपसे पूछना चाहिए कि यदि उनके सगे संबंधियों की हत्या अथवा अपहरण हुआ होता या उनकी बहन बेटियों के साथ गैंगरेप हुआ होता तो क्या ये लोग तब भी ऐसे दुर्दात अपराधी के मारे जाने पर इसी तरह गला फाड़ते? सच तो यह है कि पुलिस विकास दुबे को एक मुकदमे में गिरफ्तार करके कोर्ट में पेश करने गईं थी, उसे मारने नहीं। उसे एक सब इंस्पेक्टर ने इस बात की सूचना भी दे दी थी लेकिन उसने गिरफ्तार होने या भागने के बजाए पुलिस अधिकारियों एवं कर्मियों की हत्या करना बेहतर माना। यह संपूर्ण राज्य सत्ता के विरुद्ध अक्षम्य दुस्साहस नहीं तो और क्या है? लोकतंत्र, संविधान और न्यायिक मर्यांदा की दुहाईं देने वालों से पूछा जाना चाहिए कि क्या आठ जनसेवकों की हत्या का अपराध सामान्य है? यदि विकास 2 जुलाईं को गिरफ्तार हो जाता तो उसे पुलिस कब तक जमानत न देती? जब पुलिस स्टेशन में हत्या करके वह बेदाग छूट सकता है तो रात के अंधेरे में पुलिस वालों की हत्या में तो कोईं स्वतंत्र गवाह भी नहीं है और पुलिस वालों की गवाही तो न्यायालय मानता ही नहीं। एक गंज़ेडी, शराबी रिक्शा वाले की गवाही तो मान्य है लेकिन पुलिस की नहीं।

मजेदार तथ्य है कि बिहार में पुलिस की गवाही सजा होती है, किन्तु उत्तर प्रादेश में रिहाईं, जबकि कानून एक ही है। बेहमईं में 1981 में पूलन देवी द्वारा 19 व्यक्तियों की हत्या का मुकदमा अभी भी निचली अदालत में चल रहा है। ऐसे कानून और न्यायिक परंपरा में आठ शहीद पुलिस कर्मियों के परिजनों को न्याय मिलता या नहीं, यदि मिलता भी तो कब, पता नहीं। तब तक विकास दुबे न जाने कितने और घृणित कार्यं करता रहता। विकास दुबे के मानवाधिकार और मौलिक अधिकार के लिए गला फाड़ने वालों को यह समझने की जरूरत है कि पुलिस जनों का पुलिस में भता हो जाने के बाद मौलिक अधिकार एवं मानवाधिकार समाप्त नहीं हो गए। सच तो यह है कि ये अधिकार मानवों के हैं दानवों के नहीं। कोईं व्यक्ति या समूह देश अथवा समाज के विरुद्ध लगातार अपराध कर रहा है तो क्या कानून के रखवाले उसे बार-बार गिरफ्तार करके भेजते रहें और वह छूट कर बार-बार अपराध करता रहे? संविधान, लोकतंत्र, न्याय व्यवस्था और कानून देश और समाज के हित के लिए है, अपराधी के लिए नहीं। जिस कानून से समाज का भला न हो, उसे शीघ्र बदल ही देना चाहिए। आज मुकदमे 15-20 वर्ष के पहले निचली अदालतों से ही नहीं निपटते जबकि हाईं कोर्टो और सुप्रीम कोर्ट में भी जाते हैं। तब तक न्याय की प्रातीक्षा करनी होती है। लोगों का धैर्यं टूटना स्वाभाविक है। इसीलिए त्वरित न्याय की व्यवस्था होनी चाहिए।

विकास दुबे ने अपनी तरफ से बचने की पूरी कोशिश की। उसने अपने नेटवर्व और प्राभाव का जमकर इस्तेमाल किया। पुलिस को चकमा देकर वह उज्जैन के महाकाल मंदिर तक पहुंचा फिर वहां गिरफ्तारी दी उसे कानपुर ले आते समय मीडिया की गािड़यां उसकी सुरक्षा को सुनिाित करने के लिए, उसके पीछे चल रही थीं। जानकारों के मुताबिक इस व्यवस्था के लिए उसने पानी की तरह पैसा बहाया था।

बहरहाल जब तक मुठभेड़ की जांच नहीं हो जाती और कोईं रिपोर्ट यह नहीं कहती कि मुठभेड़ फजा है, तब तक पुलिस जनों के खिलाफ अभियान चलाना उचित नहीं है। शहीद पुलिस के परिवार और आम जनता में विकास को मुठभेड़ में मार गिराए जाने को लेकर संतोष और हर्ष का भाव है।

रही बात वुछ लोगों के दुष्प्राचार के इस अभियान का कि विकास दुबे ब्राrाण था, इसलिए उसको मुठभेड़ में मारा गया, यह एक शरारती खुरपेच है। सच तो यह है कि जिस दिन अपराधी को न्याय उसकी जाति के आधार पर, कानूनी कार्रवाईं जाति के आधार पर और अपराधों का आकलन जाति के आधार पर होना शुरू हो जाएगा उसी दिन देश का कानून चूं-चूं का मुरब्बा बन जाएगा। ऐसी खुराफाती सियासत करने वाले लोकतंत्र, संविधान एवं न्याय व्यवस्था के प्राच्छन्न दुश्मन हैं।

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