पश्चिम बंगाल में भाजपा की बढ़ती चुनौतियां
पश्चिम बंगाल चुनाव में भाजपा कुछ भी दावा करे किन्तु उसके सामने विरोधी पार्टियां चुनौतियों का पहाड़ खड़ा करने की पूरी कोशिश कर रही हैं। पहले और दूसरे चरण की 60 सीटों पर हुए चुनाव में हवा का रुख भांपकर ही टीएमसी प्रामुख ममता बनजा ने पहल करके कांग्रोस और लेफ्ट प्रांट को यह समझाया कि यदि तीनों पार्टियां भाजपा से अलग-अलग लड़ती हैं तो तीनों को नुकसान होगा और भाजपा को चुनावी लाभ मिलना तय है।
इसलिए जो पाटा जहां मजबूत हो वहां पर दोनों पार्टियों को उस मजबूत प्रात्याशी का समर्थन करना चाहिए जो भाजपा प्रात्याशी को हराने में सक्षम हो। मतलब यह कि भाजपा को हराने के लिए तीनों पार्टियों ने हाथ मिला लिया है। वाम मोर्चा के नेता बिमान बोस, कांग्रोस के अधीर रंजन चौधरी और पुरपुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी जो एसएफआईं यानि सेक्युलर प्रांट ऑफ इंडिया के अध्यक्ष हैं, अपनी तरफ से प्राचार की फजा अदायगी तो कर रहे हैं किन्तु उन्होंने ममता बनजा के इस प्रास्ताव का विरोध इसलिए नहीं किया कि उनके प्रात्याशियों को वुछ स्थानों पर टीएमसी का समर्थन मिल जाएगा।
चुनाव के दौरान ऐसा देखा गया है कि शक्तिशाली विरोधी को परास्त करने के लिए पार्टियां आपसी सहमति से ऐसी रणनीति बनाती हैं ताकि कॉमन विरोधी को हराया जा सके। ऐसी सहमति 1996 में लोकसभा चुनाव के वक्त भाजपा को हराने के लिए कांग्रोस और जनता दल (एस) ने कर्नाटक, तेलुगूदेशम, कांग्रोस और वाम मोच्रे ने आंध्र प्रादेश में अपनाईं थी। कांग्रोस, जनता दल (एस), तेलुगूदेशम और कम्युनिस्ट पाटा के नेताओं को लग गया था कि भाजपा दक्षिण में पैर पैला रही है और उसे रोकने का यही एक तरीका था कि भाजपा प्रात्याशी के खिलाफ जो भी प्रात्याशी ज्यादा मजबूत हो उसे दूसरी पाटा समर्थन दे दे ताकि भाजपा उम्मीदवार को आसानी से हराया जा सके और भाजपा दक्षिण के राज्यों में प्रावेश न कर सके। 1996 में भाजपा विरोधी पार्टियों की यह रणनीति सफल भी हुईं थी।
2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रादेश की दो बड़ी पार्टियां समाजवादी पाटा (सपा) और बहुजन समाज पाटा (बसपा) ने रणनीति अपनाईं कि यदि दोनों घोर विरोधी पार्टियां मिलकर लड़ें तो उनके परंपरागत वोटर मिलकर 65-70 प्रातिशत हो जाएंगे और भाजपा की सीटें इतनी कम हो जाएंगी कि वह इतनी सीटें नहीं जुटा पाएगी जिससे कि वह सत्ता हासिल कर सके।
सैद्धांतिक दृष्टि से यह पैसला बहुत ही अच्छा था। किन्तु घनघोर विरोधी पाटा के नेता यह भूल जाते हैं कि उनके विषम समीकरण के एकीकरण से कार्यंकर्ताओं का रसायन शास्त्र बड़ी मुश्किल से प्राभावित होता है। इसलिए सपा-बसपा की यह रणनीति असफल साबित हुईं।
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव विषम परिस्थितियों में हो रहा है। देशी बम की पैक्ट्रियों में ताला जड़ दिया गया है और जो वुछ पहले से बने थे उन्हें सुरक्षा बल ने जब्त कर लिया। बांग्लादेशी और रोहिग्या घुसपैठियों द्वारा फजा वोटर कार्ड पर भी चुनाव आयोग की नजर लग गईं है इसलिए चुनाव वेंद्रों पर तैनात अर्धसैनिक बल चौकसी बरत रहे हैं। घुसपैठिये बेचारे इतने सीधे हैं कि दलालों ने उनका वोटर कार्ड तो बना दिया किन्तु पिता का नाम दूसरे धर्म से संबंधित लिखवा दिया। गांव, कस्बा और शहर तो पश्चिम बंगाल का लिखा किन्तु जिले का नाम बांग्लादेश का डाल दिया जिस कारण बेचारे पकड़े जा रहे हैं।
यदि रणनीति के मुताबिक चुनाव में सफलता की आशा पर पानी फिरे तो आशंकाएं स्वाभाविक हैं। टीएमसी, कांग्रोस और वाम मोर्चा तीनों सेक्युलर चरित्र की पार्टियां हैं इसलिए उनकी आत्मा एक और शरीर भिन्न हैं। वे सेक्युलरिज्म के नाम पर भाजपा के विरुद्ध आसानी से खड़े हो सकते हैं।
चुनाव के पहले रणनीतिक गठबंधन और चुनाव के बाद सीटें कम पड़ने पर बाहर से समर्थन कर देते हैं। इसीलिए पश्चिम बंगाल में भाजपा की चुनौतियां बढ़ती ही जा रही हैं। इस रणनीति से भाजपा को सीटों का नुकसान तो तय है किन्तु इसका दीर्घकालिक नुकसान टीएमसी, कांग्रोस और वाम मोच्रे को भी होगा क्योंकि जनमानस में भाजपा की ऐसी छवि बन जाएगी कि भाजपा को अकेले हरा पाने में कोईं एक पाटा सक्षम नहीं है। यदि ऐसी छवि बन गईं तो आगामी चुनावों में इन तीनों सेक्युलर पार्टियों की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।