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चीन की फजीहत

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:13 Aug 2017 6:33 PM GMT

चीन की फजीहत

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सैन्य शक्ति एवं भौगोलिक क्षेत्र से लेकर आर्थिक महाशक्ति का दंभ भरने वाले चीन पर तरस आता है कि वह भारतीय नेतृत्व के बारे में इतना डपोरशंख साबित हुआ कि अब उसे अपनी फजीहत से बचने के लाले पड़ गए हैं।

चीन की रणनीति हमेशा दूसरे को हैरान करने वाली रही है। अंतर्राष्ट्रीय संधियों, अभिसमयों एवं पंचाटों को अपनी सुविधा के अनुसार ही मानना और अपने पड़ोस के देश की जमीन पर इंच-इंच कब्जा चुपके से करते रहना और पकड़े गए तो अपना बताना फिर शांति का हवाला देकर दूसरे को पीछे हटने का आग्रह करना और न हटने पर खुद को पीड़ित बताना फिर भी सफल नहीं हुए तो धमकाना और परिणाम भुगतने की चेतावनी देना रही है। भारत उसकी रणनीति को समझ चुका है। जब भारत में समझौतावादी सरकारें रहीं तो चीन खुद को सहज महसूस करता था किन्तु अब जबकि देश में एक मजबूत एवं द़ृढ़निश्चयी सरकार है तो चीन की ये सारी रणनीतिक दांवपेंच बेकार साबित हो चुके हैं। अब वह इस बात का आंकलन करने में लगा है कि पिछले दो महीने से डोकलाम में उसके अड़े रहने से उसकी फजीहत कितनी हुई है? चीन की दो झूठी तरकीबें ही उस पर भारी पड़ रही हैं। पहला यह कि उसके विदेश विभाग द्वारा यह दुप्रचार कि `भारत ने समझदारी दिखाते हुए डोकलाम से कुल 400 सैनिकों में से 40 को छोड़कर शेष को वापस बुला लिया है। भारत डर गया इसलिए शांति के लिए ऐसा किया है।' दूसरा यह कि चीन की सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स का यह दावा कि भूटान की मीडिया मान रही है कि डोकलाम चीन का ही क्षेत्र है। इसके पहले ये युद्ध की धमकी वगैरह देकर खुद को एक उच्छृंखल पड़ोसी साबित कर चुका था किन्तु इन दोनों घटनाओं ने चीन के चेहरे से झूठ का नकाब उतार दिया। भारत द्वारा 400 से 40 की बात को तो हमारे विदेश विभाग के प्रवक्ता ने ही खारिज कर दिया और चीन मीडिया के झूठ का हवाला भूटान के विदेश मंत्री ने भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मिलकर साबित कर दिया।
हैरानी होती है कि चीन ने खुद को इतना शातिर देश बना लिया है कि आज उसकी बचकानी हरकतों की अमेरिका के विश्लेषक खिल्ली उड़ा रहे हैं। चीन ने अपनी बचकानी हरकतों के कारण ही जापान, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, वियतनाम, फिलीपींस, दक्षिण कोरिया और भारत जैसे उन देशों को अपने संदेहास्पद गतिविधियों पर नजर रखने के लिए विवश कर दिया। चीन ने भले ही डोकलाम एपीसोड भारत से चिढ़कर उठाया हो क्योंकि भारत ने उसकी महत्वाकांक्षी परियोजना ओबीओआर का विरोध किया था या फिर हो सकता है कि भारत पर दबाव डाल कर वह ओबीओआर का समर्थन पाने की गलतफहमी पाल लिया हो लेकिन उसे यह पता न चल पाना कि भारत में अब एक ऐसी सरकार है जो दुनिया में अपनी बुलंद आवाज उठाता है तो लोग ध्यान से सुनते हैं। इसीलिए जब चीन की प्रतिबंधित सरकारी मीडिया ने दुप्रचार किया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने देश पर युद्ध थोप रहे हैं तो शायद ही भारत के अंदर या दुनिया के किसी देश में किसी ने इस बकवास को गंभीरता से लिया हो।
असल में चीन एक कम्युनिस्ट देश है उसकी जनता की इच्छा-अनिच्छा का उसकी सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन भारत एक लोकतांत्रिक देश है और भारत की सरकार अपनी जनता की अनिच्छा को महसूस करती है। यही कारण है कि बीजिंग और नई दिल्ली की आंतरिक नीतियों का उनकी विदेश नीति पर भी प्रभाव पड़ता है। चीन की लोक नीति और कूटनीति दोनों ही छल प्रपंच से युक्त हैं जबकि भारत की हमेशा ही स्पष्ट और दो टूक रही है यही कारण है कि दुनिया में भारत की विश्वसनीयता सराहनीय है जबकि चीन इसी विश्वसनीयता के संकट से जूझ रहा है।
दुनिया में चीन की विश्वसनीयता के संकट का इससे बड़ा और उदाहरण क्या होगा कि अमेरिका मानता है कि उत्तर कोरिया को सही तरह समझाने में भारत सफल होगा क्योंकि भारत की बातों को सभी देश गंभीरता से सुनते हैं। मतलब यह कि अब अमेरिका यह मान रहा है कि चीन की बातों पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
भारत और अमेरिका के बीच बढ़ी घनिष्ठता के लिए यदि कोई एक देश जिम्मेदार है तो वह है चीन। भारत पाकिस्तान की शिकायत ही चीन से करता रहा किन्तु चीन ने ऐसी दादागिरी दिखाई कि भारत के लिए जरूरी हो गया कि वह अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया एवं यूरोपीय देशों से संबंध बढ़ाए ताकि चीन की असलियत सबके सामने रखी जा सके। चीन ने अपनी जड़ें अफ्रीकी देशों में जमा रखी थीं किन्तु भारत ने जिस तरह अफ्रीकी देशों में अपना प्रभाव जमाया है उससे चीन का असहज होना स्वाभाविक है। इसलिए विश्व स्तर पर भारत ने चीन को इस बात का एहसास तो करा ही दिया है कि वह अब तक जिस भारत को समझता था वह अब बहुत पीछे छूट गया है। चीन भारत के साथ अपनी सीमाओं का निपटारा इसीलिए नहीं करता ताकि वह भारत को ब्लैकमेल करता रहे। पिछले दिनों चीन ने भारत को प्रस्ताव दिया कि यदि अक्साई चिन से अपना दावा छोड़ दे तो वह अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा छोड़ देगा किन्तु भारत ने न सिर्फ उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया बल्कि उसके प्रस्ताव को गंभीरता से लिया ही नहीं। चीन ने अपनी इसी रणनीति के तहत भारत के नेताओं से तिब्बत पर अपना अधिकार मनवा लिया था। उसी रणनीति को जारी रखते हुए वह एक क्षेत्र के बदले दूसरे क्षेत्र पर आधिपत्य जमाने की उधेड़बुन में लगा रहता है। तभी तो अपने पड़ोसियों से सीमा निर्धारण में उसने मैकमोहन रेखा को मान लिया किन्तु भारत के साथ न मानने में उसे फायदा दिख रहा है इसलिए मसले को लटकाए रहता है और ब्लैकमेलिंग करता रहता है।
बहरहाल इस बार चीन को भी ऐसा महसूस हो रहा है कि उसके सारे तिकड़म उसी पर भारी पड़ गए। अब विश्व बिरादरी में अपनी फजीहत से बचने के लिए चीन क्या तरकीब निकालता है यह तो वह जानता होगा लेकिन इस बात से उसे भारतीय नेतृत्व ने आश्वस्त कर दिया है कि हम आपके साथ `नो वार नो पीस' यानि युद्ध तो नहीं किन्तु शांति भी नहीं की स्थिति में आ गए हैं। भारत बिल्कुल स्पष्ट कर चुका है कि डोकलाम में बखेड़ा आपने खड़ा किया इसलिए शांति स्थापित करने की जिम्मेदारी भी आपकी ही है।

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