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निरपेक्ष भाव से हो जीएसटी की समीक्षा

👤 Veer Arjun Desk 6 | Updated on:15 Oct 2017 5:11 PM GMT
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भारत में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लेकर जहां एक तरफ जनभावनाओं को उद्वेलित करने की प्रतिस्पर्धा हो रही है वहीं अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं में जीएसटी के समर्थन में बयान भी आने शुरू हो गए हैं। किन्तु सबसे रोचक बयान वित्तमंत्री अरुण जेटली का है जिसमें उन्होंने कहा है कि कांग्रेस पार्टी के मुख्यमंत्री जीएसटी का समर्थन कर रहे हैं किन्तु कांग्रेस पार्टी विरोध कर रही है। असल में जीएसटी परिषद में सर्वसम्मति और आम सहमति से ही प्रक्रिया संबंधी फैसले होते हैं। इसलिए किसी भी पार्टी को यह दावा करने का अधिकार नहीं है कि वह तो ऐसी जीएसटी चाहते थे किन्तु जीएसटी वैसी हो गई। जीएसटी में राज्य सरकारों के हितों का व्यापक ध्यान इसीलिए रखा जा सका है कि केंद्र सरकार के विचारों से राज्यों की सरकारें सहमत हैं और उन्होंने जीएसटी परिषद में अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से रखा और फैसले करवाए। इसीलिए जीएसटी लागू करने का श्रेय यदि केंद्र सरकार और भाजपा लेने का दावा कर सकती है तो उतना ही वे पार्टियां भी कर सकती हैं जिनके मुख्यमंत्री और वित्तमंत्री अपने अथक परिश्रम से जीएसटी के मौजूदा प्रारूप को प्रभावी करा सके हैं। किन्तु यदि जीएसटी में कोई कमी है तो उसके लिए केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्यों के मुख्यमंत्री भी जिम्मेदार हैं क्योंकि जीएसटी परिषद में उनकी सक्रिय भागीदारी है। वहां वे मूकदर्शक नहीं रहते।
बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने जीएसटी की हर प्रक्रिया को बनाने में जीएसटी परिषद की मदद की है तो कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी का जीएसटी की प्रक्रिया के खिलाफ और जीएसटी के कारण देश की क्षति के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराने संबंधी बयान का औचित्य क्या है? इस सवाल का सीधा जवाब तो राहुल गांधी और कांग्रेस के पास बिल्कुल नहीं है किन्तु वह जीएसटी से व्याप्त भ्रम का फायदा जरूर उठाना चाहते हैं इसीलिए उनकी रणनीति सिर्फ उन व्यापारियों की भावनाओं को भड़काने के उद्देश्य से बन रही है जो मोदी सरकार को जीएसटी के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं। कांग्रेस नेता इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि उनके मुख्यमंत्री जीएसटी से संतुष्ट हैं किन्तु उनकी मजबूरी यह है कि वे कुछ न कुछ कमी निकालें ताकि वे व्यापारियों के उस वर्ग के हितैषी बन सकें जिन्हें जीएसटी लागू करने में अपने व्यापारिक हितों के खतरे दिख रहे हैं।
यही हालत केंद्र सरकार से जुड़े उन संगठनों का भी है जो जनता से जुड़े हैं। ऐसे संगठनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषांगिक संगठन शामिल हैं। जीएसटी का सीधा विरोध तो संघ के किसी भी संगठन ने खुलकर नहीं किया किन्तु केंद्र सरकार को इस बात का अहसास दिलाने में भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने संकोच नहीं किया कि 20 लाख तक के व्यापारियों को जीएसटी से मुक्त कर देना चाहिए तथा उन्हें तीन बार की फाइलिंग से मुक्ति मिलनी चाहिए। बीएमएस ने केंद्र सरकार पर वही आरोप लगाया जो आरोप कांग्रेस ने लगाया था कि पूरी तैयारी के साथ जीएसटी लागू की जानी चाहिए थी। यद्यपि केंद्र सरकार और जीएसटी परिषद हमेशा बदलाव एवं सुधार को महत्व देते रहे हैं इसलिए सकारात्मक आलोचनाओं को गंभीरता से लेते हुए ही उन्होंने भारतीय मजदूर संघ की आपत्तियों को माना किन्तु जो लोग सिर्फ क्षुब्ध व्यापारियों का भावनात्मक लाभ लेने के उद्देश्य से राजनीति कर रहे हैं उन्हें विरोध करने के नए तरीके तलाशते रहने हैं।
सच तो यह है कि कांग्रेस `मीठा-मीठा गप कड़वा-कड़वा थू' की रणनीति अपना रही है। यदि जीएसटी से व्यापारियों को कठिनाइयां न होतीं तो कांग्रेस अब तक जीएसटी लागू कराने में मदद करने की कीमत वसूलने की रणनीति बनाती। वह इस बात का अहसास दिलाती कि जीएसटी एक्ट बनवाने तथा इसे लागू कराने में कांग्रेस का भी योगदान है इसलिए इसका अकेले श्रेय भाजपा नहीं ले सकती। मजे की बात तो यह है कि कांग्रेस व्यापारियों की परेशानियों से आहत है किन्तु वह सरकार एवं जीएसटी परिषद से जीएसटी में आवश्यक सुधार करने की सलाह देकर उपभोक्ताओं के हितों पर अपनी नीतियों को केंद्रित करने के लिए तैयार नहीं है। भाजपा और कांग्रेस की रणनीतियां बिल्कुल स्पष्ट हैं। कांग्रेस जहां कुछ परेशान व्यापारियों को भड़का तो रही है किन्तु सरकार को समाधान नहीं सुझा रही है वहीं भाजपा सरकार द्वारा ऐसे व्यापारियों की कठिनाइयों को हल करने के लिए सरकार को सुझाव भी दे रही है। दोनों की अपनी मजबूरी है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जीएसटी से लाभ किसको हो रहा है। सारा ध्यान व्यापारियों, राज्य सरकारों एवं केंद्र सरकारों की आय पर ही केंद्रित होना चाहिए अथवा ग्राहकों के हितों का भी ध्यान होना चाहिए। कांग्रेस भूल रही है कि जीएसटी से प्रभावित व्यापारियों से कई गुना ज्यादा संख्या ग्राहकों की है। यदि जीएसटी ग्राहकों को संतुष्ट करने में सफल रही तो कांग्रेस आज जिस वर्ग विशेष के लिए आंसू बहा रही है उसके उसे फायदे कम और नुकसान ज्यादा दिखेंगे।
असल में मुश्किल यह है कि कांग्रेस विपक्ष में है और उसने अपना पूरे पांच वर्षों का एजेंडा नहीं बनाया। वह सरकार के हर फैसले का विरोध सड़कछाप तरीके से करती है। तथ्यात्मक आधार पर करने से वह खुद ही फंसती है इसलिए अफवाह के आधार पर विरोध करने का जो तरीका अपनाती है उससे अन्य पार्टियां उसके सहयोग के लिए आगे नहीं आतीं। कांग्रेस भले न महसूस करे किन्तु सच यही है कि राहुल गांधी की राजनीतिक शैली से गैर एनडीए पार्टियां सहमत नहीं हैं इसीलिए उनके विरोध का आधार ही कमजोर पड़ने लग जाता है और जिसे वह फायदेमंद राजनीति मानते हैं वही आत्मघाती साबित होना शुरू हो जाती है।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है यहां विरोध की सकारात्मक राजनीति का महत्व हमेशा रहेगा। किन्तु `फटे में टांग अड़ाने की राजनीति' ज्यादा टिकाऊ नहीं होती। यदि सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह विरोध के स्वर को शत्रुता का स्वर न मान बैठे तो जिम्मेदार विपक्ष के लिए भी जरूरी है कि वह सरकार के फैसलों के हर कृष्णपक्ष को संकटग्रस्त साबित कर जनता में भ्रम फैलाए। सरकार को जनादेश मिला है फैसले लेने के लिए इसलिए फैसले लेने पर तो विपक्ष सवाल नहीं उठा सकता। विपक्ष को अधिकार सिर्फ यह है कि वह उन फैसलों को समुचित तरीके से लागू करने के तरीकों पर अपनी सलाह दे। किसी तरह का कदाचार हो तो उसके खिलाफ आवाज उठा सकते हैं किन्तु यदि विपक्ष इसी तरह सरकार को घेरती रहेगी और बिलबिलाती रहेगी तो सरकार को घेरना तो दूर उसके फैसलों का जनता पर पड़ने वाले दुप्रभावों को वह जनता तक पहुंचा भी नहीं पाएगी। मुद्दों को उठाना तो आसान है किन्तु उन्हें उठाने के बाद राजनीतिक फायदे की दृष्टि से अपने पक्ष में करने की कला विकसित करना ही विपक्ष की सफलता की गारंटी है। मुद्दे उठाने के बाद उसे तार्किक परिणति तक पहुंचाने में असफल विपक्ष सरकार को ही फायदा पहुंचाता है। जीएसटी की वजह से आर्थिक मंदी की गढ़ी कहानी झूठी साबित होने के बाद अब `कही-सुनी' पर कोई आंदोलन खड़ा करना संभव नहीं है। एक तिमाही की सुस्ती के बाद आर्थिक विकास दर में सुधार के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की वास्तविकता का आकलन करना मुश्किल नहीं है। वित्तीय घाटा कम करके तथा मुद्रास्फीति को आर्थिक विकास दर से कम करके सरकार ने स्पष्ट संकेत दिया है कि आर्थिक सुस्ती का मतलब अर्थव्यवस्था हाफ नहीं रही है वह गतिशील होने में सक्षम है। घबराने की जरूरत नहीं है। सरकार विपक्ष के हायतौबा का जवाब अपने संवेदनशील फैसलों से ही दे सकती है। इसलिए सरकार को अपनी छवि की चिन्ता करते हुए ऐसा अहसास दिलाना चाहिए कि वह जरूरतमंद वर्ग के लिए संवेदनशील है। यदि सरकार के प्रति जनता में ऐसा संदेश गया कि वह अकड़ू है तो इसका दुष्परिणाम सरकार को भुगतना पड़ेगा। इसलिए सरकार को अपने फैसलों में दृढ़ता लाने के साथ-साथ भूल सुधार में विनम्रता से संकोच नहीं करना चाहिए। यदि विपक्ष अपनी आलोचनाओं में वस्तुनिष्ठता नहीं लाएगा तो वह खुद ही अपनी छवि खराब करेगा। आलोचनाएं यदि सारगर्भित होंगी तो सरकार को जनता ही झुका देगी अन्यथा विपक्ष के लिए भारी पड़ेगा। जनता आर्थिक मामलों की विशेषज्ञ भले ही नहीं है किन्तु उसे इतना जरूर पता है कि अर्थव्यवस्था पूरी तरह जीएसटी की धुरी पर ही नहीं नियंत्रित हो रही है उसे अन्य कारण भी प्रभावित करते हैं। इसलिए जरूरी है कि जीएसटी के गुण-दोष की विवेचना निरपेक्ष भाव से हो लेकिन दुर्भाग्य यह है कि राजनीतिक पार्टियों के लिए निरपेक्षतापूर्ण आलोचना संभव नहीं है।

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