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गुजरात चुनाव के मायने

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:22 Oct 2017 6:36 PM GMT

गुजरात चुनाव के मायने

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गुजरात विधानसभा चुनाव की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी है। चुनाव आयोग कभी भी तारीखों का ऐलान कर सकता है। संभावना है कि चुनाव दिसम्बर में ही होंगे। लेकिन भाजपा और कांग्रेसी नेता अपनी पूरी तैयारी कर चुके हैं और इस चुनाव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के भविष्य के साथ जोड़कर देख रहे हैं। भाजपा मान रही है कि यदि गुजरात चुनाव एक बार फिर भाजपा जीत जाती है तो 2019 तक भाजपा बुलंदियों पर रहेगी और कांग्रेस में मातम छाया रहेगा जबकि कांग्रेस मानती है कि यदि 2017 का गुजरात चुनाव भाजपा हार जाती है तो यह हार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार मानी जाएगी और 2019 का आम चुनाव कांग्रेस पार्टी के लिए उत्साहवर्धक रहेगा। कांग्रेस मानती है कि गुजरात मॉडल की सफलता को प्रचारित करके ही 2014 में भाजपा सत्ता में आई थी और यदि 2017 में भाजपा गुजरात विधानसभा चुनाव ही हार जाती है तो कांग्रेस को 2019 के आम चुनाव में यह दावा करने का अवसर मिल जाएगा कि भाजपा का 2014 का दावा ही छलावा था। यही कारण है कि राहुल गांधी दो बार गुजरात गए और व्यापक दौरा भी किया। दूसरी तरफ भाजपा नेताओं में नरेंद्र मोदी और अमित शाह को पता है कि गुजरात चुनाव पार्टी के भविष्य के लिए कितना महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि एक महीने यानि अक्तूबर में ही तीसरी बार प्रधानमंत्री ने गुजरात का दौरा किया। प्रधानमंत्री ने 7, 16 और 22 अक्तूबर को गुजरात प्रवास के दौरान कई महत्वाकांक्षी योजनाओं का उद्घाटन किया। इसके पहले सितम्बर में 14 और 17 तारीख को प्रधानमंत्री ने विकास परियोजनाओं के उद्घाटन-शिलान्यास के लिए गुजरात का दौरा किया। खबरों के मुताबिक 2017 में प्रधानमंत्री ने 10 बार गुजरात का दौरा किया।
पाटीदार आंदोलन के बाद भाजपा के कान खड़े हो गए थे क्योंकि राज्य में 17 प्रतिशत जनसंख्या सिर्फ पटेल समुदाय की है। इनमें दो जातियां ऐसी हैं जिन्हें पहले से ही ओबीसी आरक्षण मिल रहा है किन्तु पटेलों में पाटीदारों को यह आरक्षण नहीं मिलता। पाटीदार समाज अत्यंत सम्पन्न और प्रभावशाली है। मौजूदा वक्त में राज्य के 29 सांसदों में से 6 पाटीदार समाज के हैं जो भाजपा से चुने गए हैं। इनमें से तीन मंत्री भी हैं। राज्य के 4200 उद्योगों में से 1700 सिर्फ पाटीदारों के ही हैं। 22 अक्तूबर को प्रधानमंत्री मोदी ने 615 करोड़ की रो-रो फेरी सेवा का उद्घाटन दक्षिणी गुजरात से सौराष्ट्र को मिलाने के उद्देश्य से किया है जिसका सबसे ज्यादा फायदा पटेल समुदाय को ही मिलना है।
बहरहाल हार्दिक पटेल के हौवा से निपटने के लिए भाजपा पिछले एक वर्ष से ही प्रयासरत है यही कारण है कि पाटीदार आंदोलन से जुड़े हार्दिक के खास सहयोगियों को भी तोड़कर भाजपा में मिलाने की कोशिश शुरू हो गई है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि जहां कांग्रेस ने अपना पूरा फोकस पाटीदारों पर किया हुआ है वहीं भाजपा ने पाटीदारों के आंदोलन को कुंद करके अन्य गैर पाटीदार पटेलों को अपने साथ मिलाने की रणनीति अपनाई हुई है। कांग्रेस ने ओबीसी नेता अल्पेश को अपने साथ मिलाने में कामयाबी जरूर हासिल की है किन्तु अल्पेश ने हमेशा पाटीदारों को आरक्षण देने का विरोध किया है जबकि पाटीदारों के आंदोलन की जड़ में ही ओबीसी आंदोलन का विरोध है। इसके विपरीत भाजपा गुजरात की अन्य जातियों पर फोकस किए हुए है। राहुल गांधी अपनी हर जनसभा में पाटीदारों का नाम लेकर उन्हें आरक्षण का भरोसा देते हैं किन्तु उन्हें यह नहीं पता कि पाटीदारों के खिलाफ रहीं दलितों, अनुसूचित जातियों, पिछड़ी जातियों, अन्य पिछड़ी जातियों और आदिवासियों को हिन्दुत्व के नाम पर एकजुट करके तीन बार चुनाव जीत चुके हैं। ये सभी जातियां पाटीदारों के खिलाफ हैं। गुजरात में कांग्रेस जीतती ही इसलिए थी कि उसने क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान यानि खाम फार्मूला जिनकी संख्या 70 प्रतिशत थी, का उन्हें समर्थन हासिल था। किन्तु हालात बिल्कुल बदल चुके हैं। खाम टूट चुका है। नरेंद्र मोदी ने बड़ी चालाकी से क्षत्रियों और हरिजनों को खाम से अलग कर दिया है। मुसलमानों में ही काफी लोग ऐसे हैं जो भाजपा सरकार की इसलिए तारीफ करते हैं कि 2002 के बाद राज्य में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ जबकि 1995 के पहले राज्य के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में दो से तीन महीने के कर्फ्यू लगे रहते थे। कर्फ्यू में सबसे ज्यादा नुकसान व्यवसायी वर्ग का ही होता है चाहे वह हिन्दू हो या फिर मुस्लिम। इसीलिए गुजरात में यह माना जाता है कि जब से नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तब से दंगों के कारण व्यवसायी वर्ग को कोई परेशानी नहीं हुई।
यह सही है कि गुजरात का चुनाव नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच है किन्तु एक सच्चाई यह भी है कि गुजरात में कांग्रेस के पास आज ऐसा कोई नेता नहीं है जो चुनाव में पार्टी को जिताने का दावा कर सके। कांग्रेस अच्छी तरह समझती है कि वह जैसे ही अहमद पटेल का नाम आगे करेगी तो न सिर्फ पार्टी के अंदर अर्जुन मोडवाडिया, भरत सिंह सोलंकी और शक्ति सिंह गोहिल भितरघात शुरू कर देंगे बल्कि भाजपा हिन्दुत्व का अपना एजेंडा आगे करके चुनाव में ध्रुवीकरण की राजनीति खुलेआम करेगी। और यदि राज्य में खुलकर ध्रुवीकरण का एजेंडा चला तो कांग्रेस के सारे समीकरण धरे के धरे रह जाएंगे।
लब्बोलुआब यह है कि 22 वर्षों के लंबे शासनकाल में काफी लोग भाजपा की सरकार से असंतुष्ट हैं किन्तु राज्य में समृद्धि को सुरक्षा से जोड़कर देखने वालों की संख्या भी बहुत ज्यादा है इसीलिए यह कह पाना मुश्किल है कि जो लोग नरेंद्र मोदी, अमित शाह और भाजपा के प्रति किन्हीं व्यक्तिगत परेशानियों से उदासीन हैं वे कांग्रेस और राहुल गांधी के प्रति विश्वास व्यक्त करके उन्हें जिताने के लिए `कमल' का साथ छोड़कर `हाथ' थामेंगे। गुजरात के लोगों की निगाहें `विशुद्ध लाभ' पर रहती हैं। वे लफ्फाजी और आश्वासनों पर ज्यादा भरोसा नहीं करते। उन्हें जहां लगेगा `अब ठीक है, यही ठीक है, वे उसे ही वोट देते हैं।' इसलिए भाजपा और इसके नेता यह तो मानते हैं कि दो दशकों से ज्यादा शासन में रहने के बाद यदि कुछ लोग नाराज हैं तो बहुत सारे वर्गों में उसका आधार बढ़ा भी है। प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को घेरने के लिए जितनी भी तैयारी राहुल गांधी और कांग्रेस ने की हो किन्तु उन्हें मोदी के इस आरोप का जवाब तो देना ही पड़ेगा कि पिछले 10 वर्षों तक गुजरात में विकास संबंधी परियोजनाओं को पर्यावरण के नाम पर बाधित करने के लिए केंद्र की कांग्रेस सरकार ने तरह-तरह के अड़ंगे भी लगाए हैं। कांग्रेस को उम्मीद है कि वह केंद्र सरकार की नीतियों को जन विरोधी बताकर तथा पाटीदार समाज को पटाकर भाजपा को चित कर देगी। लेकिन इतना तो तय है कि दिसम्बर में होने वाले गुजरात चुनाव में हार-जीत का सीधा असर 2019 के चुनाव पर पड़ना तय है।

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