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सुप्रीम कोर्ट विवाद : राजनीति न हो

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:14 Jan 2018 6:45 PM GMT

सुप्रीम कोर्ट विवाद : राजनीति न हो

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जिस सुप्रीम कोर्ट से पूरे देश को न्याय की उम्मीद होती है उसी के चार जजों ने जनता से न्याय की गुहार लगाई और जिस सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति को देश न्याय का भगवान मानती है उसी सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायमूर्तियों ने अपने ही मुख्य न्यायाधीश को पक्षपाती बताया। सभी चार न्यायाधीशों ने यह कहते हुए मीडिया को संबोधित किया कि मुख्य न्यायाधीश सही तरीके से काम नहीं कर रहे हैं। उनका जोर इस बात पर था कि मुख्य न्यायाधीश केस आवंटन की जिम्मेदारी न्यायसंगत तरीके से नहीं निभा रहे हैं। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि जब मुख्य न्यायाधीश सही तरीके से केस आवंटन नहीं कर रहे हैं तो इस मामले में जनता क्या कर लेगी? संभव है कि चारों न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश से केस आवंटन में तार्किक आधार की बात की हो किन्तु उन्होंने उनकी बात पर ध्यान न दिया हो परन्तु इसका हल निकालने के लिए और भी तरीके थे जिन्हें चारों न्यायाधीश अपना सकते थे किन्तु उन्होंने नहीं अपनाया। न्यायाधीश चाहते तो सुबह होने वाली बैठक में इस मुद्दे पर व्यापक विचार-विमर्श कर सकते थे। ये चारों न्यायाधीश चाहते तो केस आवंटन प्रक्रिया के खिलाफ स्वयं संज्ञान लेते हुए निर्णय कर सकते थे। ऐसा कोई फैसला होता तो कम से कम वह न होता जो शुक्रवार को सड़क पर मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ हुआ।
संवाददाता सम्मेलन के औचित्य या अनौचित्य पर बहस तो होती ही रहेगी किन्तु सवाल यह है कि क्या ये चारों न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाना चाहते हैं? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जब इन चार न्यायाधीशों से संवाददाता सम्मेलन में एक सवाल पूछा गया कि क्या वे मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाना चाहते हैं तो उनका जवाब था कि यह समाज तय करेगा। सच तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट के किसी भी न्यायाधीश को हटाने के लिए सिर्फ एक ही तरीके का संविधान में उल्लेख है और वह है महाभियोग। इसलिए मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग तो संभव नहीं है।
चारों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने संवाददाता सम्मेलन करके दो काम किए हैं। पहला तो यह कि अब देश के उच्च न्यायालयों में भी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों को इसी तरह विद्रोह का झंडा बुलंद करने की नजीर पेश कर दी और दूसरा यह कि खुद ये चारों न्यायाधीश शेष 20 न्यायाधीशों से खुद को श्रेष्ठ बताकर यह साबित करना चाहते हैं कि यदि केस इन चारों के पास आए तो न्याय संभव है अन्यथा असंभव।
यह तथ्य सभी चारों न्यायाधीशों को पता है कि वे खुद चाहें तो त्याग पत्र देकर अपना असंतोष व्यक्त कर सकते हैं किन्तु न्यायाधीश ऐसा नहीं करेंगे।
असल में सुप्रीम कोर्ट में दो तरह के कार्य होते हैंöपहला न्याय का निष्पादन और दूसरा न्याय प्रशासन। मुख्य न्यायाधीश के पास दोनों काम होते हैं जबकि अन्य न्यायाधीशों के पास सिर्फ पहला काम ही होता है यानि न्याय निष्पादन अर्थात मामलों में फैसला करना। मुख्य न्यायाधीश प्रशासनिक कार्य भी देखता है इसलिए केस आवंटन का कार्य वही देखता है।
सच तो यह है कि इन चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने न्यायपालिका की गरिमा के अनुकूल आचरण नहीं किया है। न्यायशास्त्र के विद्वान न्यायाधीशों को पता है कि कानून से बड़ा कोई भी नहीं होता चाहे वह न्यायाधीश ही क्यों न हो। अदालत की अवमानना की परिभाषा के मुताबिक वे सारे बयान अदालत की गरिमा के प्रतिकूल होते हैं जिनसे अदालत की अवमानना होती है। अदालत की अवमानना संबंधी प्रावधानों को ध्यान से पढ़ें तो स्पष्ट हो जाएगा कि सभी चार जजों के बयान अदालत की अवमानना की श्रेणी में आते हैं। अभी कोई अखबार या न्यूज चैनल का रिपोर्टर यदि किसी न्यायाधीश की कार्यप्रणाली पर आपत्ति करे तो उसके खिलाफ अदालती अवमानना के आरोप में कार्रवाई हो जाती है। जस्टिस कर्णन को इसी सुप्रीम कोर्ट ने अदालती अवमानना के लिए जेल भेजा था। इन्हीं चारों न्यायाधीशों में से एक ने पूर्व न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू को अपने एक फैसले के खिलाफ टिप्पणी करने पर सुप्रीम कोर्ट में बुला लिया था। इसलिए अदालती अवमानना का मामला यदि किसी सामान्य नागरिक के लिए होता है तो इन सभी वरिष्ठ न्यायाधीशों को खुद ही फैसला करना चाहिए कि उन्होंने अपने मुख्य न्यायाधीश के विवेक एवं उनके फैसलों के खिलाफ जो कुछ भी बोला है आखिर उसके लिए वे देश की जनता से मीडिया के माध्यम से ही क्षमा मांगेंगे?
बहरहाल सरकार ने यह प्रतिक्रिया व्यक्त करके सही किया कि यह मामला न्यायपालिका का है और वे खुद ही निपटारा कर लेंगे किन्तु कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने तो इस हालात को अपने पक्ष में भुनाने का प्रयास किया। सीपीआई के नेता डी. राजा ने इन चारों न्यायाधीशों में से एक से मुलाकात की जबकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस करके यह बताना जरूरी समझा कि देश का लोकतंत्र खतरे में है। यही नहीं, राहुल गांधी ने यह भी कहा कि सीबीआई के पूर्व जज लोया की मौत की जांच का कार्य वरिष्ठ न्यायाधीशों को सौंपा जाए। कितना हास्यास्पद है कि अब राजनेता यह बताएंगे कि कौन-सा केस किस जज को सौंपा जाना चाहिए और यदि केसों का आवंटन राजनेताओं की मांग पर होना शुरू हो गया तो क्या लोकतंत्र खतरे से बाहर आ जाएगा? एक तरफ कांग्रेस उन सभी चारों वरिष्ठ न्यायाधीशों के इस तर्क का समर्थन कर रही है कि सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीश बराबर हैं, न कोई बड़ा और न कोई छोटा किन्तु साथ ही यह भी कह रही है कि उन मामलों को वरिष्ठ न्यायाधीशों को ही सौंपा जाना चाहिए जो समाज और देश पर गहरा असर डाल सकें। कांग्रेस की नामसझी इसी से जाहिर होती है कि वह सभी चारों वरिष्ठ न्यायाधीशों को अन्य न्यायाधीशों से भिन्न साबित करके सरकार से हिसाब चुकाने के लिए उपयोगी बता रही है। सच तो यह है कि आज नहीं तो कल इन सभी चार न्यायाधीशों को इस बात का अहसास जरूर होगा कि उन्होंने अपने अंदर की समस्या को सड़क पर लाकर अच्छा नहीं किया क्योंकि अब राजनेताओं को न्यायपालिका के फटे में टांग अड़ाने का बहाना मिल गया है और यह न्यायपालिका के लिए एक और समस्या बन गई है। उचित यही होगा कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मिलकर इस समस्या का समाधान निकालें और सुनिश्चित करें कि ऐसी समस्या यदि कभी खड़ी हो तो या तो खुद समाधान निकालें या फिर राष्ट्रपति के सामने अपनी समस्याओं के निस्तारण का प्रस्ताव करें। कम से कम सुप्रीम कोर्ट जैसी विश्वसनीय संस्था को व्यक्तिगत अहंकार या वर्चस्व की जंग का शिकार न बनाएं।

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