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बेशक अविश्वास से निपटने में सरकार सक्षम है तब भी...
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संसद के दोनों सदनों में कायम गतिरोध लगातार 11वें दिन भी सोमवार को जारी रहा। इसके चलते तेदेपा और वाईएसआर कांग्रेस द्वारा सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर सदन में हंगामे के चलते कोई कार्यवाही नहीं हो सकी। हालांकि सरकार की ओर से स्पष्ट तौर पर कहा गया कि उसे अविश्वास प्रस्ताव सहित किसी भी मुद्दे पर चर्चा से कोई परहेज नहीं है। यह बात शीशे की तरह साफ है कि तेलुगूदेशम, वाईएसआई के अविश्वास प्रस्ताव से नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं गिरने वाली है पर इससे एनडीए की दरार जरूर उजागर होगी और विपक्षी एकता का माहौल जरूर निर्मित होगा। तेदेपा के एनडीए से नाता तोड़ लेने के बावजूद अभी भाजपा के ही 274 सांसद हैं। एनडीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का कोई असर भले ही न पड़े, लेकिन हालिया उपचुनाव के नतीजों, खासकर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर तथा बिहार के अररिया में भाजपा की करारी हार के बाद आगामी चुनावों के मद्देनजर इसने विपक्ष को माहौल गरमाने का सामान तो दे ही दिया है। आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू खासी जल्दबाजी में हैं और विशेष राज्य के मामले में वह किसी और को कोई मौका नहीं देना चाहते। तब तो और भी नहीं, जब वाईएसआर कांग्रेस के रूप में एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी सामने हो, जिसके नेता जगनमोहन रेड्डी पहले से नाराज राज्य की जनता को यह बताने में सक्रिय हों कि चार साल तक केंद्र और राज्य, दोनों की सत्ता में रहने के बावजूद नायडू राज्य को कुछ नहीं दिला सके। रेड्डी की यह सक्रियता नायडू के गले की फांस बन गई है। पिछले लोकसभा चुनावों में उनके गठबंधन के वोट शेयर और वाईएसआर कांग्रेस के वोट शेयर में महज ढाई फीसदी का अंतर उन्हें बेचैन कर रहा है। जाहिर है कि नायडू न तो वाईएसआई को कोई मौका देना चाहते हैं, न ही जनता को यह सवाल पूछने का मौका देना चाहते हैं कि केंद्र का पिछलग्गू बनने के बावजूद वे राज्य को कुछ दिला क्यों नहीं सके? ऐसे में सरकार और गठबंधन से नाता तोड़ना ही सबसे आसान तरीका था। उधर तृणमूल कांग्रेस और माकपा ने भी अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन करने का वादा करके पश्चिम बंगाल की अपनी प्रतिद्वंद्विता को किनारे कर दिया है। देखना है कि समाजवादी पार्टी जिसके लोकसभा सदस्यों की संख्या अब सात हो गई है वह क्या फैसला लेती है? अब सवाल यह है कि शिवसेना, शिरोमणि अकाली दल और उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी का रुख क्या है। यह पार्टियां एनडीए का हिस्सा होते हुए भी प्रधानमंत्री मोदी के रवैये से नाराज हैं। इस बीच अन्नाद्रमुक ने कावेरी प्रबंधन बोर्ड की मांग उछालते हुए सरकार को चेतावनी दी है कि अगर उसने बोर्ड का गठन नहीं किया तो वह भी विरोध में मतदान करेगी। देखा जाए तो टीडीपी-वाईएसआर, सीपी और अन्नाद्रमुक की मांगें एक प्रकार से चुनावी मौके पर की जाने वाली सौदेबाजी की रणनीति ही है। दूसरी ओर केंद्र सरकार का यह कहना सैद्धांतिक रूप से ठीक हो सकता है कि 14वें वित्त आयोग में विशेष राज्य के दर्जे जैसा कोई प्रावधान ही नहीं है, लिहाजा वह तेदेपा की मांग पूरी नहीं कर सकती। होना तो यह चाहिए कि राज्य इतने सक्षम और आत्मनिर्भर बने कि उन्हें केंद्र की बैसाखी की जरूरत ही न हो और इसके लिए केंद्र और राज्य दोनों के बीच बेहतर तालमेल जरूरी है तभी सहकारी संघवाद व्यावहारिक रूप से हो सकेगा। संसदीय कार्यमंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने ठीक ही कहा है कि यह चुनावी वर्ष है और ऐसा विरोध व अविश्वास प्रस्ताव परंपरा का एक हिस्सा है। जाहिर है कि भाजपा अपने संख्याबल और संगठन के माध्यम से ऐसी चुनौतियों से निपटने में सक्षम है। यह एनडीए के घटक दलों की ओर से लगाए जाने वाले आरोप मोदी सरकार की छवि ज्यादा तेजी से बिगाड़ेंगे। मौजूदा सरकार के चार साल के कार्यकाल के इस पहले अविश्वास प्रस्ताव से कई दलों की झिझक टूटेगी और वे आगामी चुनाव के लिए अपने दोस्त और दुश्मन का फैसला कर सकेंगे। यह सब इसलिए भी हो रहा है क्योंकि अपने चार साल के कार्यकाल में उपचुनावों में भाजपा की हार से सभी को उछलने का मौका मिल गया है।
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