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लोकतंत्र का उपहास

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:20 May 2018 6:34 PM GMT
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कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा को बहुमत न मिलने से भाजपा की सरकार का पतन हो गया और राज्यपाल ने कुमारस्वामी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर लिया। महत्वपूर्ण घटनाक्रम येदियुरप्पा के शपथ ग्रहण और उनके त्याग पत्र के बीच का है जिसे लोकतंत्र की हत्या, संविधान का हनन इत्यादि कहकर केंद्र सरकार और राज्यपाल की निन्दा की जा रही है। साथ ही येदियुरप्पा के त्याग पत्र को लोकतंत्र की जीत बताया जा रहा है। सच तो यह है कि कर्नाटक की स्थिति ने लोकतंत्र की विडंबना को ही साबित किया है।
लोकतंत्र की विडंबना इसलिए है क्योंकि एक पार्टी ने 104 सीट, दूसरी पार्टी ने 78 सीट और तीसरी पार्टी ने 38 सीट पाई हैं। अब 38 सीटों वाली पार्टी का नेता मुख्यमंत्री होगा तथा 78 सीटों वाली पार्टी उसको समर्थन देगी किन्तु 104 सीटों वाली पार्टी विपक्ष की भूमिका निभाएगी। यह भी माना जा रहा है कि यदि सुप्रीम कोर्ट ने शक्ति परीक्षण की अवधि 15 दिन से घटाकर 24 घंटे न की होती तो येदियुरप्पा बहुमत साबित कर देते। यह बात समझ से परे है कि जो कांग्रेस पार्टी गोवा, मणिपुर और मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी को आमंत्रित न किए जाने पर केंद्र सरकार और राज्यपालों की आलोचना कर रही है वही पार्टी कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी को पहले आमंत्रित करने पर ऐतराज कैसे कर सकती है! क्या गोवा, मणिपुर और मेघालय में कांग्रेस विधायक दल के नेता शक्ति परीक्षण के पूर्व जोड़तोड़ नहीं करते। इसलिए बहुमतविहीन सबसे बड़े दल को आमंत्रित करने का मतलब ही बहुमत के लिए संभावनाएं तलाशने का अवसर होता है और इसी अवसर के लिए सबसे बड़े दल को राज्यपाल अवसर देते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकार के तहत इस व्यवहार को गलत नहीं माना। यही नहीं, केंद्र और राज्य के बीच संबंधों के लिए सर्वमान्य जस्टिस सरकारिया आयोग की रिपोर्ट में भी यही बात है। मतलब खंडित जनादेश की स्थिति में सबसे पहले चुनाव पूर्व गठबंधन, फिर सबसे बड़े दल अंत में चुनाव पूर्व बने गठबंधन को राज्यपाल बुला सकते हैं। राज्यपाल मनमानी करने के लिए विवेकाधीन अधिकार का इस्तेमाल हमेशा केंद्र सरकारों को संतुष्ट करने के लिए ही करते आए हैं। आज तो सुप्रीम कोर्ट साहसपूर्वक राज्यपालों की मनमानी पर टिप्पणी भी कर देता है किन्तु 1980 के दशक तक सुप्रीम कोर्ट का साहस तक नहीं होता था कि राज्यपालों की इस मनमानी के खिलाफ एक शब्द भी टिप्पणी कर दें। प्राय ऐसे मामलों का सुप्रीम कोर्ट से तत्काल निपटारा होता ही नहीं था।
येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद नैतिकता के तमाम दावे किए जा रहे हैं। भाजपा, येदियुरप्पा, केंद्र सरकार और राज्यपाल को घोर अनैतिक बताया जा रहा है जबकि कांग्रेस और जनता दल (एस) की सारे नैतिकता के मानदंडों का पालन करने के लिए तारीफें की जा रही हैं। जबकि सच तो यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान जहां कांग्रेस जेडीएस को भाजपा की बी टीम बता रही थी वहीं जेडीएस कह रही थी कि चुनाव बाद वह भाजपा और कांग्रेस, दोनों में से किसी को भी समर्थन नहीं देगी। कांग्रेस और जेडीएस के चुनाव बाद तात्कालिक गठबंधन से लोकतंत्र की जीत नहीं बल्कि उपहास उड़ रहा है। पहले भी उपहास उड़ता रहा है और आगे भी उड़ता रहेगा यदि राजनीतिक दल त्रिशंकु विधानसभा के लिए कोई ठोस नियम नहीं तय करते। संविधान निर्माताओं को इस बात की संभावना नहीं थी कि खंडित जनादेश मिलने के बाद विधायकों की बोली लगेगी या फिर विपरीत विचारों वाले दल सत्ता के लिए हाथ मिलाएंगे। इसीलिए उन्होंने संविधान में राज्यपाल को विवेकाधीन अधिकार देकर इस विश्वास के साथ कोई व्यवस्था नहीं बनाई कि परिपक्व लोकतंत्र में राजनीतिक दल समस्या का समाधान निकाल लेंगे। किन्तु भाजपा और कांग्रेस, दोनों बड़ी पार्टियां राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकार को बनाए रखना चाहती हैं क्योंकि उन्हें पता है कि सत्ता में आने के बाद राज्यपाल ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। दोनों पार्टियों को चाहिए कि सबसे पहले संसद में एक विधेयक लाएं जिसमें यह प्रावधान हो कि सबसे ज्यादा सीटों वाली पार्टी को पहले कुछ समयावधि फिर दूसरे सबसे बड़े दल को कुछ समयावधि तथा अंत में छोटे दल को कुछ समयावधि तक शासन करने का अवसर मिले। इससे राज्यपालों की भूमिका सीमित होगी ही विधायकों की खरीददारी या विरोधी पार्टियों के विधायकों को तोड़ने का भी टंटा खत्म हो जाएगा।
यदि कर्नाटक में येदियुरप्पा की सरकार बच भी जाती तो भी वह लोकतंत्र के लिए कलंक बनकर चलती क्योंकि उस पर हमेशा विधायकों को खरीद कर बचाई गई सरकार कहा जाता। कुमारस्वामी की सरकार बन जाने के बाद लोकतंत्र का महिमामंडन नहीं हो रहा है क्योंकि उसे भी मौकापरस्त साबित करने वालों की संख्या पर्याप्त है। इसलिए आवश्यक है कि विखंडित जनादेश की स्थिति में राज्यपाल की भूमिका और राजनीतिक दलों की हैसियत एवं सत्ता में उनकी भागीदारी संबंधी विधेयक दोनों पार्टियां सर्वसम्मति से संसद में पारित करें अन्यथा लोकतंत्र का इसी तरह उपहास उड़ता रहेगा।

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