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कर्जमाफी दर्द की दवा, मर्ज की नहीं

👤 admin6 | Updated on:18 Jun 2017 6:34 PM GMT

कर्जमाफी दर्द की दवा, मर्ज की नहीं

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यह सच है कि इन दिनों जितने भी किसान आंदोलन हुए हैं उन सभी की मांगों में एक बात कामन है और वह है कर्जमाफी। कर्जमाफी को किसानों की संवेदनाओं से जोड़ने का श्रेय कांग्रेस को जाता है जिसने 2009 के आम चुनाव को ध्यान में रखकर देशभर के किसानों का लगभग 70 हजार करोड़ रुपए का कर्ज माफ कर दिया। तब की सरकार को खैराती लाल कहकर चिढ़ाने वाली मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा भी कर्जमाफी को मुफ्तखोरी मानती थी और केंद्र सरकार पर आरोप लगाती थी कि सरकार किसानों की समस्याओं का निराकरण करने से कतराती है इसलिए एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट के मुताबिक किसानों की वास्तविक समस्या के बजाय कर्जमाफी की घोषणा करके सिर्फ किसानों को तात्कालिक फायदा पहुंचा कर उनका वोट हथियाने की व्यवस्था की है। लेकिन जब केंद्र में भाजपा की सरकार बनी और विरोधी खासकर कांग्रेस ने कर्जमाफी का चुनावी वादा किया तो भाजपा भी जाल में फंस गई और उत्तर प्रदेश में कर्जमाफी का वादा कर डाला। लेकिन कांग्रेस की कर्जमाफी और भाजपा की कर्जमाफी में अंतर है। कांग्रेस ने एक साथ पूरे देश के किसानों के कर्ज का कुल 70 हजार करोड़ रुपए की कर्जमाफी बजटीय व्यवस्था के तहत किया था जबकि भाजपा ने ऐसा नहीं किया। भाजपा अपनी राज्य सरकारों से अपने संसाधन से कर्जमाफी करवा रही है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने दो टूक शब्दों में कह दिया है कि बैंकों को तबाह नहीं किया जा सकता। इसलिए जो राज्य सरकारें किसानों का कर्ज माफ करना चाहती हैं वे करें, केंद्र इसमें कोई मदद नहीं कर सकता।

सवाल यह है कि क्या कर्जमाफी योजनाओं से किसानों की तकलीफें कम हो सकती हैं? तात्कालिक रूप से तकलीफें कम हो जाती हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि मूल समस्या का निराकरण नहीं हो पाता। किसानों की कैंसररूपी समस्या का निदान दर्द की गोलियां नहीं हो सकतीं। बीमारी के लक्षण का उपचार करने से बीमारी का उपचार संभव नहीं है। भाजपा भी कांग्रेस की तरह ही कर्जमाफी को बीमारी का उपचार मानने की गलती कर रही है।

सच तो यह है कि कर्जमाफी का ऐलान भाजपा को मजबूरी में ही करना पड़ा क्योंकि वह उन उपायों को लागू नहीं कर पाई जो उसने 2014 के आम चुनाव के वक्त की थी। उल्लेखनीय है कि 2014 के आम चुनाव में पार्टी ने वादा किया था कि यदि वह सत्ता में आएगी तो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए अनाज का समर्थन मूल्य लागत का 50 प्रतिशत कर देगी। लेकिन जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया तो केंद्र सरकार ने हलफनामा देकर इस वादे को पूरा करने में असमर्थता जता दी और कहा कि यह संभव नहीं है। लेकिन केंद्र सरकार ने एक वादा और किया है कि 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी कर दी जाएगी। सवाल यह है कि क्या किसान 2022 तक प्रतीक्षा करने की मुद्रा में हैं? लगता है कि किसान अब प्रतीक्षा नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें आसान नुस्खा मिल गया है कर्जमाफी का। यह दूसरी बात है कि कर्जमाफी के बावजूद किसानों द्वारा आत्महत्याओं की संख्या में कमी आने वाली नहीं है क्योंकि आत्महत्या वे किसान करते हैं जो बीज, खाद एवं कीटनाशक दवाओं के लिए कर्ज साहूकारों से लेते हैं। सरकारी बैंकों से कर्ज लेने वाले आत्महत्या नहीं करते। इसका मतलब यह है कि साहूकारों से कर्ज लेने वाले किसानों की पीड़ा की दवा बिल्कुल भी नहीं है कर्जमाफी।

सच तो यह है कि किसानों और किसानी के प्रति जो दायित्व केंद्र व राज्य सरकारों को निभाना चाहिए था, वह ईमानदारी से निभाया ही नहीं गया। देश के 77 प्रतिशत किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है। आज भी कुल कृषि भूमि के 45 प्रतिशत क्षेत्र पर ही सिंचाई की व्यवस्था है। मतलब कि 55 प्रतिशत जमीन पर सिंचाई के लिए आज भी आसमान की ओर टकटकी लगाए रहता है किसान। मोदी सरकार ने सिंचाई के लिए दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर एक योजना शुरू की है किन्तु इसी के साथ यदि राज्य सरकारें पुरानी नहरों में पानी और ज्यादा से ज्यादा नहरों का निर्माण सरकारी ट्यूबवेल की खुदाई जैसे काम करें तो छोटे किसानों को राहत मिल सकती है।

केंद्र सरकार तो अपनी तरफ से प्रयास कर ही रही है। उसने फसल बीमा योजना लागू किया तथा यूरिया पर नीम कोटिंग की परत चढ़ाकर यह सुनिश्चित कर दिया कि अब बाजार में यूरिया का टोटा नहीं पड़ेगा। केंद्र सरकार मृदा स्वास्थ्य कार्ड उपलब्ध करा रही है और किसानों के बैंक खातों में सब्सिडी का पैसा सीधे जमा कराने की भी व्यवस्था की है।

मजे की बात तो यह है कि जो राज्य सरकारें किसानों के नाम की माला जपकर सत्ता के शिखर तक पहुंचती हैं उन्हें किसान क्यों भूल जाते हैं। वे अपनी बला टालने के लिए केंद्र सरकार का नाम भले ही लेती हैं किन्तु सच यह है कि कृषि राज्य सरकारों के तहत आता है। यही नहीं, राज्य सरकारें केंद्र द्वारा दी जाने वाली किसानों की सहायता राशि से कर्मचारियों का वेतन बांटती रही हैं। अब ऐसी धांधली नहीं हो पाती किन्तु राज्य सरकारों ने लघु, मध्यम एवं बड़े किसानों की समस्याओं एवं जरूरतों के मुताबिक न तो नीति बनाई और न ही रणनीति। इसी का परिणाम है कि आज छोटा किसान खेती के बल पर अपने परिवार का पेट भले ही भर ले किन्तु न तो अपने बच्चों को शिक्षा दे सकता है और न ही अच्छा जीवन। ऊपर से यदि किसी साहूकार से कर्ज ले लिया और फसल किसी कारण से खराब हो गई तो उसका बर्बाद होना तय है। इसलिए राज्य सरकारों को चाहिए कि छोटे और मझोले किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए केंद्र सरकार की नीतियों को कड़ाई से लागू करें तथा खुद रुचि लेकर सभी प्रकार के किसानों की जरूरतों को समझें तथा उनकी समस्याओं का निराकरण करें। केंद्र व राज्य सरकारों को यह तथ्य अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि किसानों को सीधे सब्सिडी मिलेगी तो वे ज्यादा उत्साहित होंगे। 1990 के बाद विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का हिस्सा बने भारत ने अपने किसानों को मिलने वाली सब्सिडी में कटौती करके बहुत बड़ी भूल की है। अमेरिका और विकसित यूरोपीय देशों में किसानों को बहुत ज्यादा सब्सिडी मिलती है। भारत के किसान अमेरिकी और यूरोपीय किसानों की तुलना में तो बहुत छोटे हैं। भारत की इस नासमझी का प्रभाव पड़ा छोटे किसानों पर। अभी भी समय है कि केंद्र व राज्य सरकारें किसानों की समस्याओं को पहचानें और सहानुभूतिपूर्वक उनका निराकरण करें अन्यथा वामपंथी विचारधारा वाली किसान यूनियनें किसानों के पीछे छिपकर हिंसात्मक आंदोलन फैलाने का अवसर तलाशती रहेंगी।

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