जिसने बचाया उसी को मारा
गत सप्ताह कानपुर के चौबेपुर थाना क्षेत्र के बिकरू गांव के एक शातिर बदमाश विकास दुबे ने क्षेत्राधिकारी (सीओ) स्तर के अधिकारी सहित आठ पुलिस कर्मियों को निर्दयतापूर्वक शहीद कर दिया। सीओ के नेतृत्व में लगभग एक दर्जन पुलिस कमा शातिर अपराधी को गिरफ्तार करने के उद्देश्य से उसके घर गए थे किन्तु उस अपराधी ने कानून को ठेंगा दिखाते हुए पुलिस टीम के ऊपर अपने शूटरों के साथ मिलकर फायरिग कर दी। मौके पर ही सीओ सहित आठ पुलिस कर्मियों की जान चली गईं। हिस्ट्रीशीटर बदमाश विकास दुबे दबंगईं से गांव में रह रहा था। पहले भी उसने कानून का सम्मान करने वालों की हत्या कर दी थी। उसके खिलाफ 60 केस दर्ज हैं किन्तु राजनीतिक प्राभाव से वह बचता रहा। उसका क्षेत्र में आतंक था। किसी का साहस नहीं था जो उसके खिलाफ कोर्ट में साक्ष्य दे। इसलिए आंखों पर पट्टी बांधे खड़ी न्याय की देवी ने भी उसे मुक्त कर रखा था।
संयोग देखिए जिन पुलिस वालों ने उस बदमाश के खिलाफ खड़ा होने की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाईं, उन्हीं की मौत का कारण बना। आज से 19 साल पहले 2001 में यदि पुलिस वालों ने हिम्मत करके विकास दुबे को कानून का अहसास कराया होता तो शायद बिकरू गांव की घटना न घटती। 12 अक्तूबर 2001 को तत्कालीन श्रम संविदा बोर्ड के चेयरमैन (राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त) संतोष शुक्ला को शिवली थाने के अंदर विकास दुबे ने गोली मारी थी। उस वक्त के मुख्यमंत्री राजनाथ सिह ने संतोष शुक्ला के घर जाकर शोक संतप्त परिवार को विश्वास दिलाया था कि वह उनके परिवार को न्याय दिलाएंगे। मुख्यमंत्री राजनाथ सिह ने विकास दुबे को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने का आदेश भी दिया था। किन्तु पुलिस उसे गिरफ्तार नहीं कर पाईं बल्कि चार महीने बाद उसने अदालत में खुद समर्पण किया। 2006 में कानपुर देहात की अदालत में हत्या के चश्मदीद गवाह 16 सिपाही, दरोगा और आईंओ मुकर गए और विकास दुबे आरोप से बरी हो गया। 2006 में उत्तर प्रादेश में बहुजन समाज पाटा की सरकार थी उसने हाईं कोर्ट में सत्र न्यायालय के पैसले के खिलाफ अपील नहीं की। बाद में वह बसपा का प्राभावी नेता बन गया तो सरकार और पुलिस में उसका प्राभाव बढ़ गया।
दरअसल लोकतंत्र में कानून से आम आदमी को बहुत उम्मीद होती है। लेकिन जब कानून आम आदमी की रक्षा करने में असमर्थ हो जाता है तो पुलिस की जिम्मेदारी होती है कि वह ऐसे समाज विरोधी तत्वों के खिलाफ कार्रवाईं करे। विकास दुबे का मामला बहुत सामान्य है। इस मामले में पूरी लापरवाही पुलिस की है। एक छोटे मामले में विकास दुबे के एक रिश्तेदार राहुल की शिकायत पर उसे गिरफ्तार करने के लिए क्षेत्राधिकारी के नेतृत्व में दर्जनभर सब-इंस्पेक्टर और सिपाहियों को भेजा जाता है जिसमें थाने का इंचार्ज सबसे पीछे था। घात लगाकर सीओ, सब-इंस्पेक्टर और सिपाहियों को विकास दुबे और उसके शूटर मार देते हैं जबकि थानाध्यक्ष मौके से भाग जाते हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या थानाध्यक्ष और सीओ को एक-दूसरे पर भरोसा था? घटना को देखकर लगता है कि बिल्वुल नहीं। यदि ऐसा होता तो थानाध्यक्ष विनय तिवारी विकास दुबे के खिलाफ शिकायती राहुल को वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) के पास न भेजते।
सीधा मतलब है कि एसएसपी के दबाव में सीओ ने दुबे को गिरफ्तार करने का पैसला लिया। जिस रात सीओ सहित आठ पुलिस कर्मियों की बदमाशों ने हत्या की उसी दिन थानाध्यक्ष विनय तिवारी और राहुल को विकास दुबे ने पीटा था। असल में विनय तिवारी शिकायती राहुल को लेकर विकास के घर गए थे। विनय तिवारी को निलंबित भी इसीलिए किया गया है कि उन्होंने अपने साथ हुईं मारपीट की रिपोर्ट तक थाने में नहीं लिखवाईं और न तो उच्च अधिकारियों को इसकी सूचना दी। विनय तिवारी की दूसरी गलती यह कि उन्होंने इतने बड़े शातिर बदमाश के बारे में जिले एवं जोन के अधिकारियों को खुद रिपोर्ट नहीं की। तीसरा यह कि वह घटना वाली रात विकास दुबे के घर से फायरिग के बाद भाग गए। मतलब यह है कि चौबेपुर थाने के एसओ को मुखबरी के आरोप में भले ही नहीं निलंबित किया गया किन्तु निलंबित इसलिए किया गया कि वह एक शातिर अपराधी से भयभीत पुलिस अधिकारी है जिसने उस अपराधी की करतूतों को उच्च अधिकारियों से छिपाया। यही नहीं विकास दुबे पुलिस वालों को अपने फोन से इस बात की धमकी दे रहा था कि यदि उसे गिरफ्तार करने के लिए गांव में पुलिस आईं तो वह उनकी लाशें बिछा देगा और उन्हें कोईं वंधा देने वाला भी नहीं रह जाएगा। इससे तो यही लगता है कि थाने के प्राभारी से लेकर सिपाहियों तक को उसने डरा दिया था। सीओ ने दुबे के आपराधिक दुस्साहस का आकलन करने में गलती की। उसने गिरफ्तारी के पूर्व जिस तरह रणनीति बनानी चाहिए थी, नहीं बनाईं। एक वुख्यात बदमाश के घर दबिश डालने वालों की टीम की क्षमता का आकलन भी नहीं किया गया। बदमाश को घेरने के लिए सशस्त्र बल की सहायता लेनी चाहिए थी किन्तु लापरवाही बरती गईं। यह सही है कि दुबे के विरुद्ध कार्रवाईं की बात सिर्प सीओ और एसओ को पता थी किन्तु कार्यांलय में छिपकलियां भी होती हैं। तात्पर्यं यह कि सीओ एवं एसओ कार्यांलय के किसी कर्मचारी द्वारा दुबे को सूचना देना संभव है।
आार्यं की बात तो यह है कि ऐसे दुर्दात अपराधियों से निपटने के लिए राज्यों में विशेष कार्यंबल यानि एसटीएफ की व्यवस्था है। एसटीएफ निगरानी हेतु ऐसे बदमाशों को सूचीबद्ध करता है। राज्य के दर्जनभर से अधिक शातिर अपराधियों की सूची में विकास दुबे का नाम शामिल न होना हैरानी की बात है। इस पूरी घटना से एक बात स्पष्ट हो गईं है कि विकास दुबे को बचाने में सिपाहियों-दरोगाओं से ज्यादा वरिष्ठ आईंपीएस अधिकारियों की भूमिका रही है। आईंपीएस अधिकारी जब चाहते तो राजनेताओं तक के खिलाफ कार्रवाईं करने में संकोच नहीं करते किन्तु जब वे नहीं चाहते तो शासन के चाहने के बावजूद वे अपराधियों को अभयदान देते हैं। इसका मतलब यह बिल्वुल नहीं है कि विकास दुबे को राजनीतिक संरक्षण नहीं रहा होगा। वुछ तो ऐसे लोग हैं जिन्होंने योगी सरकार के पुलिस द्वारा राज्यव्यापी अपराधियों के सफाया अभियान से बचाया। वे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी हो सकते हैं और राजनेता भी हो सकते हैं अथवा दोनों हो सकते हैं।
मजे की बात तो यह है कि राज्य की एक पाटा ने पहले तो योगी सरकार पर अपराधी तत्वों से निपटने में असमर्थता का आरोप लगाया। इस आरोप पर किसी को एतराज नहीं होना चाहिए क्योंकि विकास दुबे से भी दुर्दात अपराधी या तो मार डाले गए या फिर पुलिस से गुहार लगाकर खुद को जेल में सुरक्षित रखने के लिए गिरफ्तार करवा लिए, तो फिर यह बदमाश अब तक बचा वैसे रहा! लेकिन दो दिन बाद जब पुलिस ने विकास दुबे का घर गिरा दिया तो उस पाटा ने नया आरोप लगाना शुरू कर दिया कि राज्य में ब्राrाणों के खिलाफ ही कार्रवाईं होती है जबकि दूसरी जाति के अपराधियों के खिलाफ नहीं। मतलब यह कि अपराधियों में भी जाति खोजी जाने लगी।
बहरहाल राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार पुलिस सुधार लागू करना चाहिए ताकि वुख्यात अपराधी तत्वों के मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप संभव न हो सके। यदि पुलिस सुधार की प्राक्रिया लागू कर दी जाएगी तो निभाक और ईंमानदार पुलिस वाले अपराधियों के खिलाफ कार्रवाईं करने से नहीं घबराएंगे। फिर विकास दुबे जैसे अपराधी या तो पुलिस की गोली का शिकार होंगे या फिर जेल के अंदर।