क्या कानून बेटियों को उनका हक दिला सकता है?
-अनिल नरेन्द्र
यह किसी से छिपा नहीं कि तमाम दावों, कानूनों के बावजूद महिलाओं को बराबरी से नहीं देखा जाता। पुरुष प्राधान देश में महिलाओं को अपने हक के लिए हर स्तर पर लड़ना पड़ता है। घर में जब बच्चा पैदा होने वाला होता है तो मां-बाप यही उम्मीद करते हैं कि बेटा हो। अगर बेटी हो तो वह एक बोझ समझा जाता है।
आज भी भ्रूण हत्या की खबरें आती हैं। पिता की सम्पत्ति में बेटों के बराबर बेटी को भी अधिकार मिलना चाहिए, इसे लेकर हमारे समाज में एक तरह से नकारात्मक भाव ही रहा है। हालांकि कानून के मुताबिक करीब 15 साल पहले बेटियों को पिता की सम्पत्ति में बेटों के बराबर हक सुनिाित किया था। लेकिन अब भी उसे लेकर कईं स्तरों पर विवाद जारी था। अब 74वें स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ से ठीक पहले मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस सन्दर्भ में बड़ा पैसला दिया है और इससे एक तरह से सारी उलझनें साफ हो गईं हैं। वैसे हिन्दू महिलाओं को पिता की सम्पत्ति में जन्म से अधिकार हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन कानून, 2005 के कानून में अमल में आने के बाद ही मिल गया था। इस मायने में शीर्ष अदालत का यह पैसला 2005 के कानून का ही विस्तार है। सवाल आखिर यह कि क्यों सर्वोच्च अदालत को 2005 के कानून में संशोधन करने की आवश्यकता पड़ी? वास्तव में शीर्ष अदालत के ही दो विरोधाभासी पैसलों के बाद उठे संशय को दूर करने के लिए यह व्यवस्था देनी पड़ी है। अब सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बैंच ने इस विरोधाभासी पैसलों पर विराम लगाते हुए स्पष्ट किया है कि संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में बेटी का समान अधिकार होगा। भले ही 2005 के कानून के अमल में आने से पहले ही उसके पिता की मृत्यु हो गईं हो।
वास्तव में हिन्दू समाज सम्पत्ति का मामला बहुत जटिल रहा है। महिलाओं को पिता की सम्पत्ति में अधिकार इसलिए नहीं दिया गया था कि सामाजिक व्यवस्था के तहत यह माना जाता था कि बेटी का हिस्सा उसे शादी के समय दहेज के रूप में दिया गया है और जब उसकी शादी हो गईं तो वह दूसरे घर की बेटी बन गईं इसलिए पिता की सम्पत्ति पर उसका कोईं अधिकार नहीं रहता था। आज अदालतों में कईं शादीशुदा सम्पन्न महिलाएं अपने पिता की सम्पत्ति में हक के लिए भाइयों के खिलाफ केस लड़ रही हैं। पिता के घर के साथ उसका सिर्प भावनात्मक संबंध रह जाता था। अब समस्या यह है कि पिता की सम्पत्ति पर कानूनन बेटी का अधिकार भले ही हो, लेकिन व्यवहारिक स्तर पर आज भी पुरानी व्यवस्था ही चली आ रही है कि पिता की सम्पत्ति पर पुत्रों का ही अधिकार रहता है। इस पूरे मसले के सामाजिक पहलू पर भी गौर करना आवश्यक होगा। पिता के परिवार के जितने भी दायित्व होते हैं, उसका निर्वहन पुत्र ही करता है। अगर दुर्भाग्यवश पिता कोईं कर्जा छोड़ता है तो उसे चुकाने का काम भी बेटा ही करता है। इसलिए उत्तराधिकार के मामले में पुत्रों की शिकायत यही रहती है कि खर्च का वहन तो वो करते हैं और सम्पत्ति पुत्री को चली जाती है। ऐसी सूरत में पुत्री के साथ समान बंटवारा पुत्रों को आहत जरूर करता है। जब तक इसका सामाजिक समाधान नहीं निकलता है तब तक इस कानून से बहुत अपेक्षा नहीं की जा सकती है। 7ध्वीं वर्षगांठ पर तमाम देशवासियों को बधाईं।