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आर्थिक विकास की ठोस पहल

👤 Veer Arjun | Updated on:3 Feb 2021 8:01 AM GMT

आर्थिक विकास की ठोस पहल

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मोदी सरकार का यह बजट कोरोना महामारी के दौरान आया है इसलिए न तो इसमें बहुत सारे वादे हैं और न ही बहुत ज्यादा राहत। किन्तु इस बजट में सरकार ने इस बात का स्पष्ट संदेश दिया है कि वह भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास, सामाजिक दायित्वों एवं आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने की दिशा में बढ़ रही है। बजट में कृषि, स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर बल दिया गया है। किन्तु मध्यम वगाय जनता को कुछ खास राहत नहीं मिली है।

कृषि क्षेत्र के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए सरकार ने एक लाख करोड़ का प्रावधान किया है। सरकार ने मंडियों में सुधार की बात कही है और इसमें वृषि त्रण में बढ़ोत्तरी का भी प्रावधान किया गया है। सरकार की कोशिश है कि 2022 तक किसानों की आय में दोगुना वृद्धि की जाए। बजट भाषण में ही न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी का विवरण देते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि सरकार ने किसानों को गेहूं के लिए 75,060 करोड़ और दालों के लिए 10,503 करोड़ का भुगतान किया है। धान की भुगतान राशि 1,72,752 करोड़ रुपए होने का अनुमान है। इसके अलावा सरकार वृषि उत्पादों के निर्यांत में 22 और उत्पादों को शामिल करेगी।

तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो गेहूं की खरीद 2013 यानि यूपीए सरकार में जहां 33,874 करोड़ रुपए की हुईं थी वहीं वर्ष 2019-20 में लगभग दोगुना बढ़कर 62,802 करोड़ रुपए हो गईं। जबकि 2020-21 में ़75 हजार करोड़ से भी ज्यादा प्राप्ति हुईं। इसी तरह धान की खरीद वर्ष 2013 में 63,928 करोड़ रुपए की थी जबकि 2019-20 में 1.42 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गईं। 2021 में 1.73 लाख करोड़ रुपए होने का अनुमान है। दलहन में तो 2013 में 236 करोड़ रुपए की फसलों की खरीद हुईं जबकि 2019-20 में 10,530 करोड़ रुपए तक पहुंच गईं। राजग सरकार के दौरान दलहन की खरीद यूपीए सरकार के मुकाबले 40 गुना अधिक है। कपास किसानों से 2013 में मात्र 90 करोड़ की खरीद हुईं थी जबकि 27 जनवरी 2021 तक 25,974 करोड़ रुपए की खरीद हो चुकी है।

एमएसपी पर कानून बनाने और वृषि कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे किसानों को सरकार ने बजट के माध्यम से स्पष्ट संदेश दे दिया है कि सरकार एमएसपी के माध्यम से फसलों की खरीद जारी रखेगी। यही नहीं, डीजल पर चार रुपए और पेट्रोल पर 2.5 रुपए का वृषि सेस लगाकर वृषि क्षेत्र में ढांचागत विकास की बात करके धरने पर बैठे किसानों को स्पष्ट संदेश दिया है कि सरकार अपने संकल्पों से पीछे हटने वाली नहीं है। सरकार एमएसपी को और मजबूत करेगी तथा किसानों की सुविधाओं के लिए हर संभव प्रायास करती रहेगी। सरकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि पेट्रोल-डीजल पर लगने वाले वृषि सेस पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि के कारण नहीं बनेंगे।

सरकार ने घरेलू उत्पादों का निर्यांत बढ़ाने पर भी बल दिया है। जब घरेलू उत्पाद के निर्यांत होंगे तो घरेलू उदृाोगों को स्वत: बढ़ावा मिलेगा और चीन के माल से भारतीय बाजार डंप भी नहीं होंगे। सरकार ने बजट में कच्चे सिल्क, केमिकल, चमड़े, जेम्स व ज्वैलरी, ऑटो पाट्र्स, मेटल प्राोडक्ट, एलईंडी लाइट पर सीमा शुल्क बढ़ा दिया है। सरकार ने एमएसएमईं क्षेत्र के लिए आवंटन दोगुना कर दिया है। इसके लिए एक अप्रौल से शुरू होने वाले वित्त वर्ष के लिए 15,700 करोड़ रुपए का आवंटन किया है।

इससे एक बात स्पष्ट है कि बजट ने आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को नईं राह दिखाईं है। बड़े पैसलों की घोषणा के साथ-साथ इस दिशा में अपनाईं जाने वाली नीतियों की स्पष्ट रूपरेखा बजट में अपनाईं गईं है।

वित्तीय दबाव के बावजूद आत्मनिर्भर भारत को साकार करने के लिए सरकार ने ढांचागत विकास के कार्यो में बढ़ोत्तरी के लिए गत वर्ष की तुलना में 34.2 प्रातिशत की वृद्धि की है। चालू वर्ष में ढांचागत विकास के लिए 4.12 लाख करोड़ का प्रावधान था जबकि वर्ष 2021-22 के बजट में 5.54 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है।

स्वास्थ्य और शिक्षा पर तो सरकार ने चालू वर्ष की तुलना में ज्यादा राशि का आवंटन किया ही है किन्तु सबसे बड़ी बात है अस्पतालों, शिक्षा सुविधाओं, नए स्वूलों, शिक्षण संस्थानों के खोलने का भी प्रावधान किया है। इससे यह नहीं लगता कि देश महामारी के दौर से गुजर रहा है। कोरोना वैक्सीन के लिए 35000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया तो 100 सैनिक स्वूल खोलने का प्रास्ताव भी किया गया है।

हर सरकार की कोशिश रहती है कि वह अपनी तमाम परियोजनाओं को जारी रखते हुए राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण रखे तथा कर-प्राणाली को सरल एवं सुदृढ़ बनाकर राजस्व को बढ़ाने का प्रायास करे। जो राजकोषीय घाटा मोदी सरकार के कार्यंकाल में तीन से चार प्रातिशत तक सिमटा रहा वह 9.50 प्रातिशत तक पहुंच गया है। सरकार को उम्मीद है कि इस घाटे को 2021-22 में 6.80 प्रातिशत तक लाया जा सकेगा। अर्थव्यवस्था को पुनजावित करने के लिए सरकार के प्रायासों में स्पष्टता दिखती है। सरकार राजस्व बढ़ाने के लिए आयकर, जीएसटी, उत्पाद शुल्क, विशेष उत्पाद शुल्क या आयात शुल्क पर निर्भर होती है।

जीएसटी में जनवरी माह में 1.20 लाख करोड़ रुपए जमा हुआ जो यह राशि सालभर पहले की तुलना में आठ गुना है। सरकार ने आयकर में वुछ छूट का प्रावधान जरूर किया है जैसे 75 साल से ज्यादा उम्र के लोगों को आयकर से बाहर रखा है किन्तु उसमें भी वुछ शर्ते जोड़ी गईं हैं। इसी तरह पेंशन से आयकर को हटा दिया गया है। किन्तु आयकर स्लैब में कोईं छूट न देकर सरकार ने यह संकेत जरूर दिया है कि वेतनभोगी लोगों के लिए सरकार किसी तरह की छूट देने की स्थिति में नहीं है।

चीन के साथ तनातनी को देखते हुए सरकार ने रक्षा बजट में ज्यादा बढ़ोत्तरी तो नहीं की है फिर भी गत वर्ष की तुलना में यह वृद्धि 19 प्रातिशत की है। पिछले बजट में यह राशि 4.71 लाख करोड़ रुपए थी जबकि इस बजट में इस राशि को बढ़ाकर 4.78 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया है।

आर्थिक वृद्धि दर में बढ़ावा देने वाले बजट से शेयर बाजार में उछाल इस बात का संकेत है कि बजट की आलोचना चाहे जिस तरह से की जाए किन्तु सच यह है कि इस बजट में आर्थिक विकास की मजबूत नींव रखने का प्रायास ऐसे वक्त में हुआ है जब देश गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया की स्थिति में भी सरकार ने प्राथमिकताओं का एहसास किया है। कहा जा रहा है कि सेंसेक्स का बजट से क्या संबंध? इस सन्दर्भ में अपना विचार है कि यदि बजट के तुरन्त बाद से सेंसेक्स गिरता तो बजट के आलोचक सेंसेक्स को बजट की कसौटी बताने लगते।

रही बात निजीकरण और सरकारी वंपनियों में शेयर बेचने का तो इस सन्दर्भ में एक बात हमेशा के लिए तय की जानी चाहिए कि क्या 1991 में आर्थिक सुधार गलत था? यदि आर्थिक सुधार गलत था विनिवेश की प्राव््िराया गरीब विरोधी है तो फिर आगे से कोईं भी सरकार आर्थिक सुधार पर विचार ही न करे। किन्तु चूंकि आर्थिक सुधार 1991 में भारत के लिए अनिवार्यं हो गया था और राष्ट्रीय सहमति के आधार पर इसे स्वीकार किया गया।

जिन परिस्थितियों में अर्थव्यवस्था के नेहरू मॉडल को सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिह ने छोड़कर आर्थिक सुधार को अपनाया था, वह एक ऐसी स्थिति थी कि भारत के लिए उसे अपनाने के अलावा कोईं विकल्प ही नहीं था। सवा सौ करोड़ आबादी के शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास एवं परिवहन की व्यवस्था अकेले सरकार नहीं कर सकती थी। सार्वजनिक उपक्रम बीमा और बैंक ठनठन गोपाल थे। बैलेंस ऑफ पेमेंट भगवान भरोसे था। डूबते सार्वजनिक क्षेत्र को बचाने के लिए सरकार निवेश करने की स्थिति में नहीं थी। वही स्थिति आज भी कायम है। इसलिए आर्थिक सुधार पर सवाल उठाना राजनीतिक तो हो सकता है आर्थिक कदापि नहीं।

बैंकों के पूंजी पुनर्गठन के लिए 20 हजार करोड़ रुपए अतिरिक्त प्रावधान किया गया है। फिर भी बीमा और बैंकिग क्षेत्र में विनिवेश या निजीकरण को लेकर भ्रम पैलाने का प्रायास हो रहा है। इतना तो तय है कि सरकार यह जानती है कि जो बैंक या बीमा वंपनी अपनी मौत मर रही हैं उन्हें चलाने के लिए विनिवेश करना ही उचित विकल्प है। फिलहाल प्राथमिकताओं के बदलाव की ठोस पहल है ताकि आर्थिक विकास किया जा सके। आर्थिक विकास तभी संभव है जब समाज के सभी वर्गो का समन्वित विकास हो सके।

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