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अदालतों में उपासना स्थल

👤 Veer Arjun | Updated on:20 May 2022 6:08 AM GMT

अदालतों में उपासना स्थल

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सुप्रीम कोर्ट ने बृहस्पतिवार यानि 19 मईं को वाराणसी के सिविल जज को निर्देश दिया कि वह ज्ञानवापी मस्जिद मामले की सुनवाईं 20 मईं यानि शुव््रावार तक न करें और खुद 20 मईं को सुनवाईं करेगी। वाराणसी की अदालत में आज कोर्ट कमिश्नर विशाल सिह ने सव्रे रिपोर्ट सौंप दी और अदालत अब 23 मईं को सुनवाईं करेगी। दूसरी तरफ शाही ईंदगाह मस्जिद में वृष्ण जन्मभूमि के गर्भगृह होने के हिन्दुओं के दावे की सुनवाईं मथुरा की अदालत सुनने के लिए तैयार हो गईं है।

असल में अयोध्या में राम जन्मभूमि मामला जब तक चल रहा था तब तक इस बात का एहसास कम लोगों को था कि काशी और मथुरा को लेकर भी हिन्दुओं में सुगबुगाहट है। किन्तु अयोध्या के बाद अब काशी और मथुरा का मामला गरमा गया है। मुस्लिम पक्ष को लगता है कि 1991 में तत्कालीन सरकार ने उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम बनाकर उनकी मस्जिदों एवं प्रार्थना स्थलों को सुरक्षा प्रादान की है। किन्तु सच तो यह है कि इस कानून में वुछ अपवाद है जिसकी वजह से अदालतें मामले को सुन रही हैं। सच तो यह है कि इस कानून को निरस्त अथवा संशोधन के लिए सुप्रीम कोर्ट में सुनवाईं चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने वेंद्र सरकार को नोटिस देकर पूछा है कि वह इस कानून के बारे में क्या कहना चाहती है? हिन्दू पक्ष के लोग सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि जब वह किसान कानून को खत्म कर सकती है तो फिर इस उपासना कानून को रद्द करने से क्यों डर रही है? सरकार की मुश्किल है कि वह मस्जिद-मंदिर के विवाद में पड़ना नहीं चाहती। अभी तक सरकार या विश्व हिन्दू परिषद (वीएचपी) काशी और मथुरा को लेकर कोईं ठोस रणनीति नहीं बना सकी हैं।

वीएचपी अभी स्थिति की समीक्षा कर रही है। वह देख रही है कि अभी तो ज्ञानवापी में श्रृंगार गौरी के दर्शन की ही बात हो रही है और तमाम हिन्दू प्रातीक चिन्ह निकल रहे हैं जबकि मथुरा में शाही ईंदगाह मस्जिद को वंस का कारावास माना जा रहा है जहां पर हिन्दुओं के आराध्य भगवान श्रीवृष्ण का जन्म हुआ था। काशी और मथुरा दोनों मुद्दे हमेशा ही वीएचपी का प्रामुख एजेंडा रहा है किन्तु वेंद्र और राज्य दोनों सरकारें भाजपा की ही हैं इसलिए वह आंदोलन के तरीके पर भी विचार कर रहे हैं।

बहरहाल एक बात तो तय है कि मंदिर और मस्जिद का जो जिन्न बोतल से बाहर आया है उसे वापस बोतल में डालने के लिए सिर्प अदालत की ही जिम्मेदारी नहीं है। इसके लिए हिन्दू और मुस्लिम पक्ष के जिम्मेदार नेता गंभीरता एवं धैर्यं से प्रायास करें अन्यथा स्थिति भयावह हो सकती है। अदालतों की अपनी सीमा होती है, वह किसी धर्मविशेष लोगों को संतुष्ट करने के लिए नहीं है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अदालतों पर आरोप लगाकर लोगों को निराश किया है कि अदालतें मुस्लिम पक्ष को मायूस कर रही हैं। मुस्लिम पक्ष को अदालतों पर न तो आरोप लगाना चाहिए और न ही हिन्दू पक्ष को मर्यांदा का उल्लंघन करना चाहिए। दोनों को यह समझना होगा कि इस तरह विवाद लंबे समय तक चलते हैं और जो वुछ भी अदालतें तय करती हैं उन्हें दोनों को मानना पड़ता है।

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