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कोई महानता नहीं है विचारों पर पूर्ण विराम लगाना

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:25 July 2017 6:27 PM GMT

कोई महानता नहीं है  विचारों पर पूर्ण विराम लगाना

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आर.सी. शर्मा

जैसे कोई चतुर कूटनीतिज्ञ विमर्श का नतीजा न निकलने पर बातचीत का सिलसिला बंद नहीं करता, उसी तरह समझदार लोग विचारों पर कुभी पूर्ण विराम नहीं लगाते।
आस्थावादी या अनास्थावादी होना आसान है। वास्तव में कि जितना आसान आस्तिक होना है, उतना ही आसान नास्तिक होना भी है। लेकिन कुछ लोग एक साथ आस्तिक और नास्तिक हेते हैं। वास्तव में यही होना सबसे क"िन है। आप सुनते हैं कि कोई मशहूर शल्य चिकित्सक किसी बड़े ऑपरेशन के पहले एक घंटे पूजा करता है। भगवान की भक्ति और उस पर आस्था में डूब जाता है तो जरा झटका लगता है। वैज्ञानिक यानी वैज्ञान संबंधी कार्यकलाप करना वाला यानी वह काम करने वाला जिसकी क्रियाविधि् विज्ञान द्वारा तय हे। उसी शख्स को जब हम आस्था में डूबे देखते हैं तो एक क्षण को भ्रमित हो जाते हैं। तय नहीं कर पाते कि उसे आस्तिक मानें या नास्तिक। दरअसल यही सबसे क"िन है।
आस्तिक होना या नास्तिक होना एक तरह से मन में उ"ने वाले तमाम तरह के सवालों से टकराने से बचने की कोशिश है। लेकिन जो मध्यमार्गी होता है, जिसको देखकर भ्रम होता है कि वह आस्तिक है या नास्तिक। ऐसे लोग ज्यादा जटिल, ज्यादा गूह्य होते हैं। जो लोग आस्तिक हैं, वह इस खूबसूरत प्रकृति और ब्र"मांड को ईश्वर की रचना मानकर इस जटिल सवाल का जवाब ढूंढ़ने से बच जाते हैं कि इस खूबसूरत दुनिया को किसने बनाया, कैसे बनाया और क्यों बनाया? जो नास्तिक होते हैं वह इसके लिए भले ईश्वर को श्रेय न देंऋ लेकिन वह भी इस सवाल की चिंता में नहीं पड़ते। सब कुछ विज्ञान के कंधें में डालकर मस्त रहते हैं। उन्हें लगता है जिन सवालों के जवाब विज्ञान के पास नहीं हैं वह सिर्फ इसलिए नहीं हैं, क्योंकि हम उन्हें समझ नहीं पा रहे और जिन सवालों के जवाब हैं वह तो हैं ही। कुल मिलाकर आस्तिक और नास्तिक दोनों इस लिहाज से सुखी हैं कि उन्हें गैर जरूरी सवालों की चिंता नहीं रहती।
लेकिन जो विज्ञान पर भी भरोसा करते हैं और किसी अदृश्य शक्ति के वजूद पर भी विश्वास करते हैं, वह परेशानी में रहते हैं, मानसिक तनाव झेलते हैं क्योंकि उन्हें उन सवालों के जवाबों की दरकार होती है जिन सवालों के जवाब उन्हें समझ में नहीं आते। वह क्या, क्यों, कैसे जैसे शब्दों से परेशान रहते हैं जो हमेशा उनके दिमाग में सीटी बजाते रहते हैं।
समझदार हमेशा परेशान रहते हैं। वास्तव में समझ चीजों को अनदेखा नहीं करने देती। मेडिकल साइंस का एक्सपर्ट डॉक्टर भले ऑपरेशन, विज्ञान की सीख और उसके नियम के अनुसार करता हो लेकिन वह यह भी जानता है कि जो पैदा हुआ है, वह एक न एक दिन मरेगा और क्यों मरेगा इसकी सिर्फ प्रारंभिक जानकारी ही हमारे पास है कि जीने को संभव बनाने वाली कोशिकाएं क्षरित हो जाती हैं पर कोशिकाएं क्यों क्षरित होती हैं? सवालों की इस जटिल गुत्थी की लम्बी सुरंग को वह इससे आगे पार नहीं कर पाता। इसलिए वह जहां विज्ञान के नियम को मानता है, वहीं ईश्वर की रचनाशीलता पर भी यकीन करता है। इसीलिए वह गहरे मन से प्रार्थना करता है। डॉक्टर, शरीर विज्ञानी इंसान की निर्णायक या अंतिम यात्राा को जानता है। वह जानता है कि जो पैदा हुआ है, वह एक न एक दिन मरेगा। लेकिन अगर वह यह सब जानते हैं तो प्रार्थना क्यों करते हैं? क्योंकि उनके दिल में एक यह उम्मीद जगमगाती है कि विज्ञान अगर सच है तो इस सच को कोई अदृश्य शक्ति गलत भी साबित कर सकती है। क्या महान लोगों के दिमाग में विचारों को मंथन करने वाले दो प्रोसेसर होते हैं? जिनमें एक आस्था की तरफ झुकाव रखता है और दूसरा तर्क की तरफ। शायद ऐसा ही हो। क्योंकि महान लोग चीजों पर पूर्ण विराम नहीं लगाते।
अगर स्पष्टता की नजर से देखें तो अनास्थावादी लोग सर्वाधिक स्पष्ट होते हैं। उन्हें अपनी अनास्था पर पूर्ण विश्वास होता है। इसलिए वह मानने न मानने के द्वंद से मुक्त रहते हैं। उनके लिए जिंदगी बिल्कुल सीधी सपाट होती है, उनके लिए अपना रास्ता नाक के बिल्कुल सीधे चलता है। उन्हें किसी को संतुष्ट नहीं करना होता और न ही किसी की चिंता। अनास्थावादी सांसारिक नजरिये से देखें तो ज्यादा सुखी रहते हैं, पर सोचने वाली बात है कि क्या वह फायदे में भी रहते हैं? शायद नहीं। क्योंकि विज्ञान ही अब इस बात को भी साबित करती है कि कभी-कभी भरोसा भी बड़े काम की चीज होती है फिर भले ही यह भरोसा ईश्वर पर ही क्यों न हो?
दरअसल ईश्वर पर भरोसा कहीं न कहीं अपनी उस छिपी हुई अदृश्य ताकत पर भरोसा है जो आपसे वह काम करा सकती है, शायद जिसकी आप कल्पना भी न कर सकें। डॉक्टर इसीलिए अपनी तमाम डॉक्टरी समझ के बावजूद किसी अदृश्य शक्ति पर गहरी आस्था का सम्बल भी हासिल करना नहीं भूलते क्योंकि उन्हें पता होता है जो काम तर्क नहीं करते वह काम कई बार आस्था कर दिखाती है। इसलिए पूरी तरह से तर्कवादी होना और सिर्फ तर्कवादी होना जिस तरह फायदेमंद नहीं है, उसी तरह पूरी तरह आस्थावादी होना या सिर्फ आस्थावादी होना भी अच्छा नहीं है। मध्यमार्ग संतुलन का मार्ग है। मध्यमार्ग सामंजस्यता का मार्ग है। हालांकि कुछ लोग तर्क देंगे कि मध्यमार्ग का मतलब है कि न आप आगे जा रहे हैं, न पीछे जा रहे हैं। एक जगह स्थिर हैं। ऐसे कुतर्कियों को शायद पता नहीं कि आगे और पीछे के अलावा एक मार्ग समानान्तर भी होता है। मध्यमार्ग का मतलब है, आप अतियों के किसी भी छोर से परे हैं। आप अतिवाद पर यकीन नहीं करते। यह समझ आपको भले आक्रामक लोकप्रियता न दे लेकिन भरपूर आत्मिक संतुष्टि देती है।

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