कैसे बचे नौनिहालों का बचपन
बालश्रम भारत की दूसरी सबसे बड़ी समस्या है। बाल श्रम गरीबी का मुख्य हिस्सा। भारत जैसे विकासशील देश में आज लोग अपने बच्चों को अपनी पेट की भूख मिटाने के लिए अपने नौनिहालों को श्रम की भट्टियों में तपाने के लिए विविश हैं। बुंदेलखंड से कुछ माह पहले एक खबर आई थी जिसमें वहां के गरीब किसानों ने अपने बच्चों को राजस्थान के व्यापारियों के पास गिरवी रख रहे हैं। बच्चों से वेश्यावृति करना हो, भीख मंगवाना हो, मजदूरी करानी हो, कई ऐसे काम है जो बच्चों से कराए जा रहे हैं। बच्चों से यह सब कराना हमारी तरक्की पर पलीता लगाने जैसा है। हिंदुस्तान में बच्चे आज भी चुनावी मुद्दों, राजनैतिक, सामाजिक प्राथमिकताओं में नहीं गिने जाते। बच्चों से कई अपराध जुड़े हैं लेकिन उनकी समस्या कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनती। इनको परेशानी विरासत में मिलती है। यूनिसेफ के मुताबिक भारत में आर्थिक रूप से पिछड़े इस समय करीब 15 करोड़ बच्चे मजदूरी कर रहे हैं। इनकी सबसे ज्यादा संख्या उत्तर प्रदेश में है दूसरे नंबर पर बिहार आता है। इन बच्चों को इस्तेमाल सस्ते श्रमिकों के रूप में किया जाता है। लोग इन बच्चों को कम दिहाड़ी पर रखते हैं, लेकिन काम बड़ों से ज्यादा लेते हैं। भारत वह देश है, जो विविधता में एकता के सिद्वांत में विश्वास रखता है। जहां एक से अधिक धर्म, जाति, पंथ, संप्रदाय और भाषा के लोग एक साथ रहते हैं। कर्तव्य, नैतिकता और जिम्मेदारी की दुहाई दी जाती है। लेकिन इन सबके बीच बाल श्रम जैसी बुराई खुलेआम होती है। सभी के नजरों के सामने। फिर हम क्यों इस बुराई से अपनी नजरंे तैरा लेते हैं। रोड़ पर मजदूरी करते देख एक मासूम बच्चे को हम क्यों अपनी आंखे मूंद लेते हैं। उस समय क्यों हम अपने हिस्से की सामाजिक जिम्मेदारी पर पर्दा डाल लेते हैं। ऐसे कई सवाल हैं जो खुद हमसे सवाल करते हैं। पर, उसका जवाब हमारे पास नहीं होता। छोटे-छोटे बच्चे सस्ती दिहाड़ी के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। इसकी भरपाई के लिए मानव तस्कर गिरोह सबसे ज्यादा निशाना बच्चों को बनाते हैं। यही वजह है कि बाल श्रम के लिहाज से भारत की स्थिति अन्य देशों के मुकाबले बहुत ही भयावह है। यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट पर गौर करें तो हिंदुस्तान में हर 11वें बच्चें में से एक बच्चा बाल मजदूरी करता है। इसके अलावा सबसे ज्यादा शारीरिक, मानशिक शोषण भी छोटे बच्चों का होता है। बाल तस्करी भयानक रूप लेती जा रही है। धनाड्य लोग जमकर बच्चों का शारीरिक शोषण करते हैं। बच्चों की तस्करी करके उन्हें कारखानों में जबरन कैद करके उनसे बंधुओ मजदूरी कराई जाती है। कई तरह के जुल्म नौनिहाल सह रहे हैं। दुख की बात यह है कि भारत के अधिकांश बच्चें अपने अधिकार यानी बाल अधिकार कानून से वंचित हैं। अधिकार के रूप में उन्हें विभिन्न बीमारियों से बचाव हेतु उनका टीकाकरण किया जाना चाहिए, उससे पूरी तरह से वंचित हैं। नौनिहालों के बचपन को बचाने व श्रमिकता भरे दलदल से निकालने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही नहीं बनती, बल्कि हम सबकी सामाजिक जिम्मेदारी बनती है। बाल श्रम रोकने के लिए बना कानून बौना साबित हो रहा है। भारत के बाल श्रम प्रतिबंध एवं नियमन संशोधन अधिनियम के तहत 14 साल से कम उम्र के किसी भी बच्चों से काम कराने पर दो साल की सजा और पचास रूपए का जुर्माने का प्रावधान है। लेकिन यह कानून उस समय सफेद हाथी की तरह साबित होता है, जब किसी कारखाने के बाहर बकायदा एक तख्ती लटकी होती है जिस पर लिखा होता है कि इस कारखाने में बच्चे निषेध हैं। पर, कारखाने के अंदर काम करने वाले मजदूरों में बच्चों की संख्या दूसरे मजदूरों से कहीं ज्यादा होती है। दिल्ली के गांधी नगर इलाके में विगत दिनों बचपन बचाओ आंदोलन की शिकायत पर एक जींस बनाने वाली कंपनी पर एसडीएम की टीम ने छापा मारा तो उसमें कई दर्जन बच्चे काम करते पकड़े गए। उस कंपनी के बाहर भी एक बोर्ड चस्पा था जिस पर लिखा था कि इस कंपनी में बच्चों से काम नहीं कराया जाता। जबकि अंदर धडल्ले छोटे-छोटे बच्चे काम कर रहे थे। केंद्र की निवर्तमान सरकार ने 1979 में बाल श्रम की समस्या के अध्ययन और उससे निपटने के लिए उपाय सुझाने हेतु गुरुपादस्वामी समिति का गठन किया था। समिति ने अपनी सिफारिशें करते हुए पाया कि जब तक गरीबी जारी रहेगी, तब तक बाल श्रम को पूरी तरह मिटाना मुश्किल हो सकता है और इसलिए किसी कानूनी उपाय के माध्यम से उसे समूल मिटाने का प्रयास व्यावहारिक प्रस्ताव नहीं होगा। समिति ने महसूस किया था कि इन परिस्थितियों में खतरनाक क्षेत्रों में बाल श्रम पर प्रतिबंध लगाना और अन्य क्षेत्रों में कार्यकारी परिस्थितियों को विनियमित करना और उनमें सुधार लाना ही एकमात्र विकल्प है। उसने सिफारिश की कि कामकाजी बच्चों की समस्याओं से निपटने के लिए विविध-नीति दृष्टिकोण आवश्यक है। उसके बाद अब तक कई बार कानून में संशोधन किया गया। लेकिन स्थिति सुधरने की जगह और विकराल होती गई। शहरों में बाल मजदूरों की बहुत ज्यादा डिमांड रहती है। क्योंकि शहरों में लोग बच्चों से मजदूरी के अलावा बाकि अन्य काम भी जबरन कराते हैं। शहरों में बच्चों का शारीरिक शोषण जमकर किया जा रहा है। 1986 में बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम लागू किया गया था। इसके बाद 1987 में बाल श्रम पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार की गई। उस राष्ट्रीय नीति में बाल श्रमिकों के लाभार्थ सामान्य व विकासमुख कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करने पर जोर दिया गया। नीति के अनुसरण में 1988 के दौरान देश के उच्च बाल श्रम स्थानिकता वाले 9 राज्यों में राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना प्रारम्भ की गई। इस योजना में काम से छुड़ाए गए बाल श्रमिकों के लिए विशेष पाठशालाएं चलाने की परिकल्पना की गई। लेकिन सब बेअसर साबित हुई। स्थिति वैसी की वैसी ही है। दुनिया में लगभग 2.5 करोड बच्चे, जिनकी आयु 2-17 साल के बीच है वे बाल-श्रम में लिप्त हैं, जबकि इसमें घरेलू श्रम शामिल नहीं है। सबसे व्यापक अस्वीकार कर देने वाले बाल-श्रम के रूप हैं बच्चों का सैन्य उपयोगऔर बाल वेश्यावृत्ति है। बाल श्रम को लेकर स्थिति बहुत भयावह है। इस समस्या के रूकने के भी आसार नहीं दिखाई देते।