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साहित्य की नयी सुबह पर नजर है
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सुधांशु गुप्त
साहित्य और पाठकों के बीच बढ़ रही दूरियों, कितबों के न बिकने के तमाम तर्कों और साहित्य की दुनिया में एक उदासीनता की परछाई के बावजूद साहित्य लगातार छप रहा है, बिक रहा है और पढ़ा भी जा रहा है। यह भी संभव है कि यह पूरी प्रािढया मशीनी रूप अख्तियार कर चुकी हो, लेकिन साहित्यिक पुस्तकों के लगातार प्रकाशन से इतना तो माना ही जाना चाहिए कि समाज और वर्तमान दुनिया साहित्य से सूनी नहीं हो गयी। साहित्य के सालाना लेखेजोखे को बेशक औपचारिक ही माना जाए लेकिन इससे साहित्य के भविष्य और भविष्य के साहित्य की एक तस्वीर तो बनाई ही जा सकती है।
हर साल की तरह इस साल भी साहित्य के वरिष्ठ लोगों की रचनाएं सामने आयीं। कुछ ऐसी रचनाएं भी सामने आयीं जो साहित्यकार के कद की वजह से ही नहीं बल्कि अपने कंटेंट और ऐतिहासिकता के लिए भी याद की जाएंगी। आधुनिक हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ गद्यकार, उपन्यासकार, व्यंग्यकार और अनेक धारावाहिकों के लेखक मनोहरश्याम जोशी के उपन्यास कसप, कुरु कुरु स्वाहा, कपीश जी और हमजाद से पाठक पहले से ही वाकिफ हैं। इसी साल मनोहर श्याम जोशी का एक अन्य उपन्यास जिसे उनका अंतिम उपन्यास कहा जा सकता है। "किस्से पौनेचार यार" वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। जोशी जी ने यह उपन्यास पचास साल पहले लिखना शुरू किया था लेकिन अंत तक वे इसे पूरा नहीं कर पाये। यह उपन्यास एक लड़की की कहानी है जिसके साढ़े तीन प्रेमी है। लेकिन यह उपन्यास अंतविहीन है। ऐसा लगता है कि कहीं यह संदेश देता है कि कोई भी उपन्यास कभी समाप्त नहीं होता। ना ही समाप्त होती है रचनाकार की रचना यात्रा।
हाल ही में ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाली वरिष्ठ कथाकार कृष्णा सोबती का उपन्यास गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान प्रकाशित हुआ। देश के विभाजन और दंगों पर लिखे गये हजारों उपन्यासों-कहानियों में इस उपन्यास को देर से आया उपन्यास कहा जा सकता है। लेकिन यह उपन्यास महत्वपूर्ण है क्योंकि पाठक इसमें विभाजन पूर्व का भारत और विभाजन के बाद का भारत देख सकते हैं। वे देख सकते हैं कि इतिहास बदलने से इंसान के दुख और तकलीफें कम नहीं होतीं। पाकिस्तान के गुजरात में जन्मी नायिका की आंखों के सामने लगातार वह मंजर घूमता रहता है जिसमें लाहौर वाली खूनी आवाजें हैं, इंसानों की चीख चिल्लाहटें हैं और है सियासत। उपन्यास यह सवाल भी उठाता है कि आकिर इस सबका गुनहगार कौन है ? वरिष्ठ साहित्यकारों पर अक्सर यह आरोप लगता है कि वे युवाओं की दुनिया से वाकिफ नहीं होते। लेकिन नासिरा शर्मा का नया उपन्यास "शब्द पखेरू" युवा पीढ़ी को ध्यान में रखकर लिखा गया है। इंटरनेट की आदी हो चुकी युवा पीढ़ी को दिन रात ऑनलाइन बने रहने का नशा है। चैट बॉक्स की दुनिया ही इन्हें असली दुनिया लगती है।
अपनी किस्सागोई के लिए जानी जाने वाली नासिरा शर्मा का यह उपन्यास बेहद पठनीय और जरूरी उपन्यास लगता है। यह उपन्यास शॉर्ट कट से पैसा कमाने और साइबर ाढाइम की ओर अग्रसर युवा पीढ़ी पर एक बेहतरीन उपन्यास है। इसी ाढम में ममता कालिया का कल्चर वल्चर, वरिष्ठ साहित्यकार हिमांशु जोशी की संपूर्ण कहानियां (किताबघर), रमाकांत की दस प्रतिनिधि कहानियां (किताबघर), नरेंद्र कोहली का वरुण पुत्री (राजपाल एंड संस), मृणाल पांडे का कहानी संग्रह हिमुलि हीरामणि की कथा (राजपाल), ज्ञानप्रकाश विवेक का उपन्यास डरी हुई लड़की (ज्ञानपीठ), रूप सिंह चंदेल का दगैल, राजी सेठ का कहानी संग्रह मोर्चे से हटकर (दोनों भावना प्रकाशन), बालेंदु द्विवेदी का मदारी जंक्शन (वाणी), आशा प्रभात का मैं जनकनंदिनी (राजकमल), संजय कुंदन का तीन ताल (किताबघर) और गोविंद मिश्र का कहानी संग्रह शाम की झिलमिल (किताबघर), आनंद वर्द्धन का कहानी संग्रह सेवइंयां (चिंतामन) आये। इससे स़ाफ है कि रचनाकार अपना अपना काम कर रहे हैं। रचनाकार दूसरी विधाओं में भी खूब लिख रहे हैं। इस संदर्भ में अनेक अहम पुस्तकें सामने आई हैं। वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई का विस्मृत निबंध, महेश कटारे का यात्रा वृतांत-देश विदेश दरवेश (दोनों ज्ञानपीठ), प्रदीप पंत की संस्मरणों की पुस्तक-लिखा वक्त बेवक्त जो कुछ अहम पुस्तकें हैं। एक अन्य अहम पुस्तक है वरिष्ठ साहित्यकार महेश दर्पण की समय का सारथी (अनुराग प्रकाशन)। इसमें कैफी आज़मी, कमलेश्वर, अशोक वाजपेयी जैसी तमाम साहित्यकारों से साक्षात्कार मौजूद हैं। जो अपने समय के सारथी रहे हैं।
इसी ाढम में महेश दर्पण की एक अन्य किताब है-कथा रत्न प्रथा एवं अन्य कथाएं (मानसी प्रकाशन)। इसमें दर्पण जी ने कथा सरितसागर को एक नये रूप में प्रस्तुत किया है। एक अन्य महत्वपूर्ण किताब वरिष्ठ पत्रकार की आयी -प्रयोग चंपारण (ज्ञानपीठ) यह पुस्तक चंपारण के 100 साल पूरे होने पर अरविंद जी ने मेहनत और अनुसंधान के बाद लिखी। इसलिए भी यह अहम है। मुख्यधारा के साहित्य से इतर कुछ युवा बेहतरीन काम कर रहे हैं। राजनीतिक जागरूकता के लिए मा।जनलाइज़्ज पब्लिकेशन ने इस ाढम में कुछ अच्छी किताबों का प्रकाशन किया है। भारत के राजनेता शीर्षक से उन्होंने एक सीरीज शुरू की है। और इस सीरीज की पहली किताब के रूप में राजनेता अली अनवर पर किताब आई है। यह किताब राजनेताओं के प्रति आम लोगों की सोच बदलने की दिशा में अहम किताब है। इस सीरीज का संपादन प्रमोद रंजन कर रहे हैं और अली अनवर पुस्तक के संपादक राजीवन सुमन हैं। यह किताब संवाद के नये सेतु बनाने का काम करेगी।
लेकिन इस साल की पुस्तकों में उम्मीद की जो किरण दिखाई देती है, वह है युवाओं का लेखन। बिना किसी पूर्वाग्रह के युवा लेखन में नयी लकीरें खींच रहे हैं। सूर्यनाथ सिंह का उनप्यास नींद क्यों रात भर नहीं आती (सामयिक प्रकाशन)भगवान दास मोरवाल का सुर बंजारन (वाणी प्रकाशन),राकेश तिवारी का फसक (वाणी),भगवंत अनमोल का उपन्यास जिंदगी 50-50 (राजपाल),इंदिरा डांगी का रपटीले राजपथ (राजपाल), अभिधा शर्मा का मेरी अवंतिका (भावना प्रकाशन), योगिता यादव का ख्वाहिशों के खांडव वन (सामयिक), महिमा मेहता का परछाइयां (लोकभारती), अमित अहिलाण का मेरा यार मरजिया (आधार) और पापुलर कल्चर पर गीताश्री का हसीनाबाद (वाणी) युवाओं के लिखे गये अहम उपन्यास हैं। इनमें अपने समय के विषयों से मुठभेड़ तो है ही, सही समय पर सही फैसले लेने की ताकत भी दिखाई पड़ती है। युवाओं ने इस साल कहानियां भी खूब लिखीं और अच्छी लिखीं। अनेक कहानी संग्रह बाजार में दिखाई पड़े। पंकज सुबीर का कहानी संग्रह चौपड़े की चुड़ैलें (शिवना), मानव कौल की प्रेम कबूतर (हिंदी युग्मक) और आकांक्षा पारे का कहानी संग्रह बहत्तर धड़कनें तिहतर अरमान (सामयिक प्रकाशन) साहित्य की दुनिया में एक बेहतर परिदृश्य का संकेत देती हैं।
बेशक कुछ लोगों के संग्रह इस साल न छपे हों लेकिन उनका कहानियों ने पाठकों के दिल में जगह बनाई है। हाल ही में दिव्या शुक्ला की कहानी अग्निगर्भा को रमाकांत पुरस्कार से नवाजा गया है। लखनऊ की रहने वाली दिव्या की अनेक कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। लेकिन अग्निगर्भा एक ऐसी कहानी है जो स्त्राr विमर्श को एक नया फलक देने का काम करेगी। और भी बहुत से ऐसे युवा रचनाकार हैं जिनके संग्रह या उपन्यासों को देखने का मौका अगले साल मिलेगा। इन रचनाकारों का लेखन यह साबित करता है कि साहित्य की नयी सुबह बहुत दूर नहीं है।
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