Home » साहित्य » जनता और सरकार के बीच पुल बनने के लक्ष्य से भटक रहा मीडिया

जनता और सरकार के बीच पुल बनने के लक्ष्य से भटक रहा मीडिया

👤 Admin 1 | Updated on:11 Jun 2017 6:51 PM GMT

जनता और सरकार के बीच पुल बनने के लक्ष्य से भटक रहा मीडिया

Share Post

संचार माध्यम (मीडिया) के अन्तर्गत टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, समाचार पत्र, पत्रिकाओं तथा इंटरनेट आदि का विकास जिस तेजी से हो रहा है उससे लगने लगा है कि भारत दूसरी संचार क्रांति से गुजर रहा है। दूरदर्शन और रेडियो आकाशवाणी को छोड़कर अधिकांश मीडिया निजी कम्पनियों या व्यक्तियों द्वारा संचालित है। बड़े अखबार और चैनल बड़े मीडिया घरानों या उद्योगपतियों द्वारा संचालित एवं नियंत्रित हैं। भारत में एक लाख से अधिक समाचार पत्र हैं और आज भारत विश्व का सबसे बड़ा समाचार पत्र बाजार है। इंटरनेट के युग में भी अखबारों की करीब 15 से 20 करोड़ प्रतियां बिकती हैं।

स्मार्ट मोबाइल और इंटरनेट की व्यापक पहुंच के चलते सभी बड़े-छोटे समाचार पत्रों ने अपने ई-पेपर यानी इंटरनेट संस्करण निकाल दिये हैं और इसका सबसे बड़ा फायदा पाठकों को यह हुआ है वह कहीं भी बैठकर कोई भी अखबार पढ़ सकता है, देख सकता है। इंटरनेट ने जहां पाठकों को सुविधा प्रदीन की है वहीं अखबार का प्रकाशन भी आसान हो गया है और खबरों का अदान-प्रदान सुविधाजनक हो गया है।

भारत में 1995 में सबसे पहले चेन्नई से प्रकाशित होने वाले 'हिंदू' ने अपना ई-संस्करण निकाला था और इसके बाद तो सभी ने इसे अपनाया लेकिन यह विशुद्ध रूप से डॉट.कॉम पर आधारित खबरें थीं और 1998 तक आते-आते लगभग 50 से ज्यादा समाचार पत्रों ने अपने ई-संस्करण निकाले लेकिन हूबहू ई-पेपर निकालने की शुरूआत 2008 के बाद शुरू हुई और आज तो हर छोटे-बड़े अखबार के ई-पेपर मौजूद हैं। आज भले ही आपके अखबार की छपी हुई प्रति न मिले लेकिन ई-पेपर आप दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर देख सकते हैं, पढ़ सकते हैं और शेयर कर सकते हैं। आज वेब पत्रकारिता ने पाठकों और लेखकों के लिए ढेरों विकल्प मौजूद करवा दिये हैं।

इस दौरान बाजार में टिके रहने और प्रतिष्ठा बचाने के लिए कई अखबारों ने नवीन प्रयोग भी किये, जैसे नवभारत टाइम्स ने युवा वर्ग को जोड़ने के लिए अंग्रेजी मिक्स हिन्दी भाषा का प्रयोग किया, जो अब तक जारी है। इसके अलावा समय के अनुसार जनसत्ता को छोड़कर सभी ने व्यापक बदलाव किये लेकिन जो बड़ा बदलाव हुआ है वह है पत्रकारिता में ठेकेदारी और बाजारीकरण, जिससे इसका उद्देश्य ही बदल गया है।

पत्रकारिता का बढ़ता विस्तार देखकर यह समझना मुश्किल नहीं है कि इससे कितने लोगों को रोजगार मिल रहा है और मीडिया के विस्तार ने वेब डेवलपरों एवं वेब पत्रकारों की मांग को बढ़ा दिया है। वेब पत्रकारिता किसी अखबार को प्रकाशित करने और किसी चैनल को प्रसारित करने से अधिक सस्ता माध्यम है। चैनल अपनी वेबसाइट बनाकर उस पर पर ब्रेकिंग खबर, लेख, रिपोर्ट, वीडियो और इंटरव्यू अपलोड और अपडेट कर सकते हैं। आज सभी प्रमुख चैनलों (आईबीएन, स्टार, आजतक आदि) और अखबारों ने अपनी वेबसाइट बनाई हुईं हैं। इनके लिए पत्रकारों की नियुक्ति भी अलग से की जाती है। सूचनाओं का डाकघर कही जाने वाली संवाद समितियां जैसे पीटीआई, यूएनआई, एएफपी और रायटर आदि अपने समाचार तथा अन्य सभी सेवाएं आनलाइन देती हैं। यह सब एकदम नहीं हुआ है। पहले जहां पत्रकारिता का ध्येय विशुद्ध रूप से समाज सेवा था, अब यह व्यवसाय बन चुकी है लेकिन इसमें अभी बेहतर संतुलन नहीं बन पाया है और इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब पत्रकारिता के दौर में यह अभी अपने शैशव काल में है लेकिन समय के साथ परिपक्व होने की उम्मीद है।

मीडिया समाज की आवाज शासन तक पहुंचाने में जनता के प्रतिनिधि के तौर पर काम करता है लेकिन अब यह सवाल उठने लगे हैं कि बाजारवाद के इस दौर में मीडिया जनता की आवाज है या फिर व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा जिसमें आम जनता तो है ही नहीं। आखिर मीडिया जनता किसे मानता है? शोषितों की आवाज उठाना ज्यादा महत्वपूर्ण है या क्रिकेट की रिर्पोटिंग करना, आम आदमी के मुद्दे बड़े हैं अथवा किसी सेलिब्रिटी की निजी जिंदगी ? आज पत्रकारिता एक ऐसे दौर से गुजर रही है जहां उसकी प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं। समय के साथ मीडिया का स्वरूप और मिशन दोनों बदल गये हैं। गंभीर और सामाजिक मुद्दों की जगह क्रिकेट और बाजार की खबरें ज्यादा हैं। अखबार के मुखपृष्ठ पर अमूमन राजनेताओं की बयानबाजी, घोटालों, क्रिकेट मैचों, अपराध और बाजार के उतार-चढ़ाव की खबरों की भरमार होती हैं। जिन पृष्ठों पर कल तक खोजी पत्रकारों की ग्रामीण समस्याओं, ग्रामीणों की राय व गांव की चौपाल की खबरें प्रमुखता से छापी जाती थीं, उन पर आज फिल्मी नायक-नायिकाओं की अर्द्धनग्न तस्वीरें छपती हैं। अंग्रेजी अखबारों के साथ निकलने वाले सप्लीमेंट में तो पार्टियों या उत्पादों, होटलों, रेस्टोरेंटों, बैंक्वेट हॉलों तथा कुछ स्कूलों की पेड न्यूज छापी जाती हैं ताकि आम जनता भ्रमित हो सके। हालांकि जनता के पास सोशल मीडिया नामक हथियार आ चुका है जिससे वह अपनी आवाज उठा सकता है।

मीडिया का सार्वजनिक लक्ष्य एक ही है- पाठकों-दर्शकों के पास सही एवं सटीक सूचना पहुंचाना और यह सूचनी झूठी या पक्षपातपूर्ण नहीं होनी चाहिए। पाठकों-दर्शकों तक निष्पक्षता से सूचनाएं, जानकारी पहुंचाना, उनका मनोरंजन करना और उन्हें किसी भी विचार, घटना, समस्या, कथन, निर्णय, कार्रवाई और प्रतिक्रिया के प्रत्येक पक्ष से परिचित कराने के लिए ही मीडिया अस्तित्व में आया था, जिसे पहले प्रेस कहा जाता था। यह सब इसलिए ताकि समाज उचित-अनुचित में भेद कर अपने निर्णय ले सके। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में प्रेस या मीडिया का ध्येय समाज को जागरूक बनाए रखना, संस्थाओं और व्यक्तियों की जवाबदेही की निगरानी करना और दोषियों को, चाहे वे कितने भी बड़े और कितने ही शक्तिशाली हों, जनता की अदालत में खींच लाना है।

देश की आजादी के बाद प्रेस का परिदृश्य एकदम से नहीं बदला। प्रेस देश के पुनर्निर्माण का सजग प्रहरी बना रहा। उसका मिशन प्रोफेशन में तब परिवर्तित हुआ जब प्रिंट में बढ़ती प्रतिस्पर्धा से पार पाने और नए पाठक वर्ग की संतुष्टि के लिए सामग्री, डिजाइन और छपाई में अधिक गुणवत्ता की जरूरत को प्रौद्योगिकी के विकास ने गति दी इससे पूंजी और आय की जरूरत भी बढ़ गई और प्रेस या मीडिया उद्योग में परिवर्तित हो गया। हालांकि समाचारों और विचारों के प्रकाशन-प्रसार पर प्रिंट का एकाधिकार बना रहा और पत्र-पत्रिकाएं छपे हुए शब्द अपने पाठकों को और अपने विज्ञापनदाताओं को बेचकर बढ़ते रहे और मोटा मुनाफा कमाते रहे।

पाठक संख्या में वृद्धि और लाभ कमाना ही मीडिया का लक्ष्य बनता गया लेकिन टीवी न्यूज चैनलों के पदार्पण से प्रिंट के सामने अपने पाठक और विज्ञापन की आय बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई और प्रोफेशनल पत्रकारिता पर बाजारवाद हावी हो गया। चैनलों की भरमार के बीच अपनी जगह बनाने की होड़ मच गयी और फिर अपराध की खबरों को सनसनीखेज तरीके से पेश करने की होड़ लग गयी और मीडिया ट्रायल के माध्यम से इसका विस्तार होता चला गया लेकिन विकास या आम जनता की खबरें नदारद हैं। मीडिया किसी को भी हीरो बना देता है और केजरीवाल इसकी मिसाल हैं जो टीवी के जरिए आसमान से तारे तोड़ लाने का दंभ भरते थे लेकिन जब काम की बारी आयी तो राजनेताओं की उसी जमात में शामिल हो गए जहां सब्जबाग तो दिखाये जाते हैं लेकिन हकीकत कुछ और होती है। आज सभी बड़े अखबारों में मीडिया मार्केटिंग टीम के साथ सम्पादक की अक्सर मीटिंग होती है और वह तय करते हैं कि किस प्रकार अखबार अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे और क्या खबरें तथा विज्ञापन छपें तथा कैसे अधिक से अधिक लाभ कमाया जाए।

स्मार्टफोन प्रौद्योगिकी से प्रिंट-टीवी की कठिनाई और बढ़ी है। मोबाइल उपकरणों पर समाचार-विचार की खपत कल्पनातीत गति से बढ़ रही है। दुनिया सचमुच अब पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं की मुट्ठी में है। इंटरनेशनल न्यूज मीडिया एसोसिएशन का ताजा आकलन यह है कि अब समाचार-विचार के लिए ऑडियंस का पहला स्रोत मोबाइल फोन है। परंपरागत मीडिया के अस्तित्व के संघर्ष से जो विडंबनाएं पैदा हुई हैं उनसे उसकी साख संकट में आ गई है। पत्र-पत्रिकाओं के संस्करण जिला स्तर पर ले जाने, क्षेत्रीय भाषाओं में न्यूज चैनल शुरू करने जैसे अति-स्थानीयता के प्रयास भी पाठक-दर्शक और विज्ञापनों में गिरावट को थाम नहीं पा रहे हैं तो अधिकतर कोशिशें अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी तथा विस्तार पर हुए भारी-भरकम खर्च की भरपाई पर केंद्रित हो गई हैं। इससे पेड न्यूज, छद्म समाचारों और पीत पत्रकारिता का दौर फिर शुरू हो गया है। 'भ्रामक खबरें', मिथ्या प्रचार और अपुष्ट खबरें सामान्य बात है। मीडिया संस्थानों का विलय, बिक्री और अधिग्रहण नए जमाने का मंत्र है जिससे क्रास-मीडिया स्वामित्व तेजी से बढ़ रहा है और देश की सबसे बड़ी निजी कम्पनी की तो लगभग सभी बड़े मीडिया घरानों में हिस्सेदारी है और अब तो उन्होंने बाकायदा कई चैनलों का अधिग्रहण कर लिया है और यह क्रम लगातार जारी है। इससे मीडिया जगत में एकाधिकार स्वामित्व का खतरा पैदा हो गया है।

- सोनिया चोपड़ा

साभार

Share it
Top