शिवपाल-अखिलेश मिलन से फायदा होगा या नुकसान
शिवपाल-अखिलेश मिलन से फायदा होगा या नुकसान
- योगेश कुमार सोनी
मुलायम सिंह यादव का कुनबा जुड़ता दिखाई दे रहा है। लगातार आ रहे कई बयानों के आधार पर लग रहा है कि शिवपाल यादव अपने भतीजे से मनमुटाव दूर कर फिर से एकसाथ नजर आ सकते हैं। लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी में सम्मान न मिलने पर सपा से अलग हुए शिवपाल यादव ने अपनी पार्टी बना ली थी। उन्होंने 'प्रगतिशील समाजवादी पार्टी' नाम से अपना दल घोषित किया और बीते लोकसभा चुनाव में खुलकर अपने भतीजे के सामने आ गए थे।
उत्तर प्रदेश में योगी सरकार से पहले सपा की सरकार थी और तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कार्यकाल में पार्टी का बड़ा वर्चस्व था। बसपा सुप्रीमो का किला भेदते हुए समाजवादी पार्टी ने प्रदेश में सरकार बनाई थी। 2012 का विधानसभा चुनाव जीतते ही जिस तरह मुख्यमंत्री की दावेदारी पर अखिलेश यादव के नाम की मुहर लगी थी, तभी से शिवपाल यादव के मन में कुंठा रहने लगी थी। चूंकि पार्टी के मुख्य कर्ताधर्ता मुलायम सिंह यादव के बाद पार्टी में शिवपाल यादव का नाम आता था लेकिन नेताजी ने अपनी विरासत बेटे को दे डाली थी, जिससे परिवार में आपसी संग्राम शुरू हो चुका था। दोनों ने एक-दूसरे के पंसदीदा लोगों को पार्टी से निकालना शुरू कर दिया था। घर की यह लड़ाई युध्द में तब्दील हो चुकी थी और आलम यह हो चुका है कि दोनों पार्टियों के प्रवक्ता टीवी चैनलों पर बाकी दलों को छोड़कर केवल एक-दूसरे को ही टारगेट करते हैं। दोनों ने अपनी जीत का दावा करते हुए अलग-अलग चुनाव लड़ा। सपा ने अपने कट्टर शत्रु बसपा से हाथ मिलाकर लोकसभा चुनाव लड़ा और चाचा ने अलग। हालांकि बीजेपी की आंधी में एकबार फिर सब उड़ गए और कोई भी दल कुछ खास नहीं कर सका।
सपा का बसपा से गठबंधन और शिवपाल यादव का सपा से अलग होना, दोनों ही घाटे का सौदा रहा। हाल ही में हुए हमीरपुर उप-चुनाव में प्रदेश की जनता ने फिर बीजेपी पर ही भरोसा जताया और सपा दूसरे स्थान पर आई। अभी दर्जनभर सीटों पर और चुनाव होना है। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार अखिलेश यादव को ऐसा लगा कि बसपा से गठबंधन टूटने के बाद नाराज सपाईयों को मनाकर दोबारा अपने पाले में लाने के लिए चाचा की आवश्यकता है। वहीं, शिवपाल यादव ने भी महसूस किया है कि जब दिग्गज पार्टियां बीजेपी के सामने कुछ नहीं कर पा रही हैं तो उनकी राजनीति कहां तक पहुंचेगी?
'राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है न दुश्मन' की तर्ज पर पार्टियां जनता पर एक्सपेरिमेंट करती आ रही थी लेकिन बीते चुनावों में खासतौर पर यदि उत्तर प्रदेश के परिवेश में बात करें तो लोगों को यह खेल समझ में आने लगा। बसपा-सपा-आरएलडी गठबंधन ने पूर्व में हुए लोकसभा उपचुनाव 2018 में एक छोटा-सा प्रयोग किया था जो कामयाब भी हुआ था, जिसे इन नेताओं ने अपनी सियासी सूझबूझ समझ लिया था। योगी आदित्यनाथ की पूर्व संसदीय सीट गोरखपुर, उपमुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य की पूर्व संसदीय सीट फूलपुर और कैराना जैसी सीटों पर हार से विपक्षी दलों को लग गया कि बीजेपी को अकेले रोक पाना बेहद मुश्किल है। इसी वजह से सबने साथ मिलकर बीते लोकसभा चुनाव में बीजेपी के विजय रथ को रोकना का प्रयास किया लेकिन बीजेपी ने रिकॉर्ड तोड़ जीत हासिल की। ये पार्टियां जिन सीटों को खानदानी सीट कहा करती थीं, वहां भी सीट नहीं बचा पायी। हालांकि इस भेड़चाल में मायावती को सबसे ज्यादा फायदा हुआ। वह शून्य से दस सीटों पर आ गईं। उत्तर प्रदेश के लगभग हर चुनाव में यह तो तय हो रहा है कि सपा नंबर दो पर आ रही है मतलब बीजेपी के बाद इस पार्टी के वोटर ज्यादा हैं। लेकिन सबके मन में प्रश्न यही ही है कि सपा, विधानसभा चुनाव 2017 में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके व लोकसभा चुनाव 2019 में बसपा से गठबंधन करके पूर्ण रूप से विफल हुई, तो क्या अब शिवपाल यादव के साथ मिलकर कुछ कर पाएगी? क्योंकि अब लोग सपा को एक्सपेरिमेंटल पार्टी कहने व समझने लगे हैं। उपचुनावों में बीजेपी का प्रदर्शन ज्यादा अच्छा नहीं रहता था लेकिन इसबार पार्टी आलाकमान ने कोई गलती नहीं की। हमीरपुर सीट से जीत के बाद पार्टी का उत्साह कई गुणा बढ़ चुका है।
बहराहल, बात चाचा-भतीजे की करें तो बयानों के आधार पर संकेत स्पष्ट हो रहे हैं कि दोनों आपस में मिलकर फिर से पार्टी में व परिवार में जान फूंक दें, लेकिन सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश की जनता उस सम्मान व नजरिये से उसे अपनाएगी या नहीं। क्योंकि लगातार हर फॉर्मेट में हार मिलने से अखिलेश यादव का राजनीतिक भविष्य अधर में पड़ता नजर आ रहा है। जिस तरह से इस युवा नेता को प्रदेश की जनता ने 2012 में सिर-आखों पर बिठाकर कमान सौंपी थी, इसकी कभी पुनरावृत्ति होगी? यदि चाचा को साथ लेकर होने वाले उपचुनाव या आने वाले अन्य चुनावों में भी कोई खेल नहीं कर पाए तो निश्चित तौर पर समाजवादी पार्टी को उभरने में कई साल लग जाएंगे।