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प्रदूषण पर बात नहीं काम करने का समय

👤 mukesh | Updated on:11 Nov 2019 6:39 AM GMT

प्रदूषण पर बात नहीं काम करने का समय

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- आर. के. सिन्हा

आज देश में चारों ओर प्रदूषण की ही बातें हो रही हैं। आंखों में जलन, चेस्ट कंजेशन, सांसों की बीमारी, खांसी, जुकाम, सर्दी, नजला, दम घुटना आदि हमारी डेली रूटीन में शामिल हो गई है। प्रदूषण हमारे चारों ओर काफी तेजी से फैल रहा है, पर हम चाहकर भी उसके साथ खुद को एडजस्ट नहीं कर पा रहे हैं। हमारे चारों ओर प्रकृति ने सुंदरता बिखेर रखी है, पर हम अपनी आदतों और लापरवाही से उसे हर कदम पर धता बता रहे हैं। इसी का नतीजा तो है यह प्रदूषण। आज हमारा पर्यावरण बुरी तरह प्रदूषित हो गया है और हम सब इसे झेलने को मजबूर हैं। फिर चाहे दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स का सामान्य से दस गुना अधिक होना या फिर पटना की हवा में सांस लेना मुश्किल होना आम बात हो गई है। प्रदूषण के असर का हाल यह है कि भारत में वर्ष 2017 में करीब 12 लाख लोगों की मौत एयर प्रदूषण की वजह से हुई। यही नहीं लाइफ एक्सपेंटेंसी के मामले में भी साउथ एशिया में एवरेज ढाई साल और ग्लोबल लेवल पर एवरेज 20 महीने कम होने की बात एक्सपर्ट ने बताई है। प्रदूषण की इस भयंकर स्थिति के लिए ग्लोबल वार्मिंग भी काफी हद तक जिम्मेदार है।

संयुक्त राष्ट्र की समिति आईपीसीसी ने अपने हालिया जलवायु परिवर्तन और भूमि संबंधी रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया को घेर रही इस स्थायी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए जीवाश्म-ईंधन से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को रोकना ही काफी नहीं है। इसके लिए खेती में बदलाव करने होंगे, शाकाहार को बढ़ावा देना होगा और जमीन का इस्तेमाल सोच-समझकर करना होगा। रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 23 फीसदी कृषि योग्य भूमि खत्म हो चुकी है। भारत में यह हादसा 30 फीसदी भूमि के साथ हुआ है। जमीनों का रेगिस्तानीकरण जारी है। जलवायु परिवर्तन और रासायनिक खादों और कीटनाशकों के कारण पैदावार में गिरावट आ रही है और खाद्य पदार्थों में पोषक तत्व कम ही होते जा रहे हैं। यह वाकई गंभीर चिंता का विषय है। इससे आने वाले दिनों में खाद्य सुरक्षा बुरी तरह प्रभावित होगी। एक अनुमान के अनुसार, 2050 तक खाद्य वस्तुओं की कीमतें 23 प्रतिशत तक बढ़ जाएंगी। विशेषज्ञों के अनुसार, 2030 तक दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री तक बढ़ जाएगा। यही नहीं, भारतीय उपमहाद्वीप में तो इसके भयानक परिणाम होंगे। यदि विश्व का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है तो भारत को 2015 से भी बुरी स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। विदित हो कि वर्ष 2015 में गर्म थपेड़ों से भारत में लगभग 2500 लोगों की जान चली गई थी। पिछले 150 वर्षों में अकेले दिल्ली का तापमान लगभग 1 डिग्री सेल्सियस, मुंबई का 0.7 डिग्री, चेन्नई का 0.6 डिग्री और कोलकाता का 1.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है। वैज्ञानिकों के अनुसार, आने वाले कुछ साल मानव इतिहास के लिए सबसे अहम साबित होने वाले हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से जलवायु में बदलाव के असर समय से पहले दिखाई देने लगे हैं। इंसानों की सेहत पर इसका असर दिखने लगा है। इसकी वजह से लाखों लोग अपनी जान भी गंवाने लगे हैं।

एक अनुमान के अनुसार, ग्रीनहाउस गैसों के कारण तापमान में 1.5 से 5.8 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होगी और वर्षा में होने वाले बदलावों के कारण वर्ष 2100 तक समुद्र के पानी का स्तर 15 से 95 से.मी. तक बढ़ जाएगा। तटवर्ती इलाकों में समुद्र का पानी घुसने के कारण वहां कृषि संभव नहीं रह जाएगी और वहां रहने वाले लोगों के लिए जीवन-यापन मुश्किल हो जाएगा। उन्हें शहरों की ओर पलायन करना पड़ेगा। भारत में भारी और मध्यम उद्योगों की संख्या बढ़ने और शहरों की जनसंख्या में वृद्धि के कारण हवा, पानी और जमीन, इन तीनों संसाधनों पर हाल के दिनों में बहुत अधिक दबाव बना है। कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन जैसी ग्रीनहाउस गैसों का अनुपात बेतहाशा बढ़ रहा है। वातावरण में मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड को बढ़ाने वाला प्रमुख कारक रासायनिक कृषि ही है। ये गैसें पृथ्वी की सतह से परावर्तित होने वाली ऊष्मा को रोक कर सोख लेती हैं। फलस्वरूप पृथ्वी की सतह और वातावरण की निचली सतहों का तापमान बढ़ जाता है। प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के कारण आज शहरों की हवा इतनी दूषित हो चुकी है कि मनुष्यों के लिए सांस लेना भी मुश्किल हो गया है। गाड़ियों और कारखानों से निकलने वाला धुआं हवा में लगातार जहर घोल रहा है। कारखानों और शहरों से निकलने वाला और सिंगल यूज प्लास्टिक के बैग, कप, ग्लास का कचरा नदियों में यूं ही बहा दिया जा रहा है जिससे पीने के पानी का संकट भी गहरा रहा है। जल-जंतुओं की भारी संख्या में मौत हो जाती है। देश की राजधानी दिल्ली में इस समय प्रदूषण जिस तरह है उसमें दिल्ली के समृद्ध और कामकाजी बाशिंदे अब शहर छोड़ने की बात सोचने लगे हैं, जो वाकई चिंताजनक है। दिल्ली के अलावा अधिकांश नार्थ इंडिया के शहरों की हवा भी इतनी ही दूषित है कि सांस लेना मुश्किल हो गया है।

आज स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन के अनुसार, दुनिया के दस सबसे प्रदूषित शहरों में से छह शहर भारत के ही हैं। यही नहीं 24 राज्यों के 168 शहरों की स्थिति पर ग्रीनपीस इंडिया की हालिया रिपोर्ट यह बताती है कि दक्षिण भारत के कुछ शहरों को छोड़ दें तो भारत के किसी भी शहर में सेंट्रल प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड के मानकों का पालन नहीं होता है। यह जानकारी भी चौंकाने वाली है कि भारत में सिर्फ चार शहर ही ऐसे हैं जहां एयर क्वालिटी इंडेक्स 50 से कम हैं। यानी जरूरत के लायक सेहतमंद हवा। सवाल यह उठता है कि प्रदूषण को लेकर हम इतने बेपरवाह क्यों हैं? शायद आपको पता नहीं है कि प्रदूषण युद्ध, प्राकृतिक आपदा और किसी भी महामारी से भी ज्यादा घातक साबित होता है। शिकागो विश्वविद्यालय स्थित एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार प्रदूषण से इंसानी जीवन की औसत जीवन प्रत्याशा 1.8 साल तक कम हो जाती है। यह धूम्रपान, शराब, एचआईवी जैसे मामलों की तुलना में कहीं ज्यादा है। अब समय आ गया है जब जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण की समस्या को हमें सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर सुलझाने का प्रयास करना होगा। यह एक कठिन समस्या इसलिए है कि लोगों की विचारधारा को बदलना बहुत मुश्किल काम होता है। हमारी यह वर्तमान विचारधारा ही भविष्य में मानव के स्वस्थ जीवन के लिए खतरा बनी हुई है। केवल जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण ही नहीं, अन्य कई विश्वव्यापी समस्याएं इससे जुड़ी हुई हैं। हम कोयले तथा अन्य खराब ईंधनों से अपेक्षाकृत स्वच्छ ईंधन की दिशा में आखिर कब बढ़ने का प्रयास करेंगे? कारों की जगह बेहतर सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल को प्रोत्साहन क्यों नहीं दे रहे? लेकिन यह व्यवस्था सस्ती और सुलभ होने के साथ-साथ आधुनिक और सुरक्षित भी तो होनी चाहिए। परंतु, इस दिशा में हम कुछ खास प्रगति नहीं कर रहे हैं। हमारी हर सांस विषाक्त है। हमारे बच्चों के अभी विकसित हो रहे फेफड़ों को देखते हुए हालात ऐसे ही नहीं रहने दिए जा सकते। तत्काल ही हमें अब व्यापक पैमाने पर पेशकदमी करनी होगी।

(लेखक राज्यसभा सांसद हैं।)

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