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आर्मचेयर कमेंटेटर यानी अधजल गगरी

👤 mukesh | Updated on:12 Nov 2019 5:48 AM GMT

आर्मचेयर कमेंटेटर यानी अधजल गगरी

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- अनिल बिहारी श्रीवास्तव

प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई ने अंग्रेजी मुहावरा 'आर्मचेयर कमेंटेटर' का उपयोग किया है। गत दिवस एक पुस्तक के विमोचन के अवसर पर अपने उद्बोधन में उन्होंने एनआरसी के विरूद्ध की जा रही आधारहीन टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने कहा कि ये आर्मचेयर कमेंटेटर आग से खेल रहे हैं। जस्टिस गोगोई ने एनआरसी को भविष्य का दस्तावेज बताया। सोशल मीडिया में एनआरसी पर आधारहीन बातें कही जा रही हैं। तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है। ये बातें मैदानी सच्चाई से परे हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया और लोकतांत्रिक संस्थाओं के विरूद्ध आधारहीन और इरादतन अभियान चल रहा है। उन्होंने कहा कि मुद्दा एनआरसी से 19 लाख या 40 लाख लोगों को बाहर रखे जाने का नहीं है। अवैध रूप से रह रहे लोगों की संख्या के बारे में अब तक अनुमान से बातें होती थीं। इससे भय, घबराहट, हिंसा और अराजकता को बढ़ावा मिलता था। जस्टिस गोगोई ने मीडिया के एक वर्ग को भी आधारहीन और गैरजिम्मेदाराना रिपोर्टिंग का दोषी माना है।

सही दिशा में सोचने वाला हर व्यक्ति जस्टिस गोगोई से सहमत होगा। इसमें सच्चाई है। ये आर्मचेयर कमेंटेटर अधजल गगरी की तरह हैं। इनकी मौजूदगी दुनियाभर में है। कहीं कम, कहीं ज्यादा। हर काल या हर युग में। भारत में हाल के वर्षों में ये खरपतवार की तरह फैले हैं। आर्मचेयर कमेंटेटर की प्रतिक्रियाओं में व्यावहारिक समझ का अभाव साफ दिखता है। मानो, कोई हड्डी का डॉक्टर भयावह चर्मरोग के बारे में ज्ञान दे रहा हो, ऐसा कानूनी डिग्रीधारी जिसने कभी अदालत न देखी हो वह वहां के कामकाज पर टिप्पणी करे, कोई राजनेता उन विषयों पर बोले जिसकी उसे आधारभूत समझ न हो या फिर वह व्यक्ति फौजी जनरलों जैसी बात करे जिसने कभी एनसीसी तक का अनुभव न लिया हो। ऐसे आर्मचेयर कमेंटेटर मीडिया, राजनीति से लेकर सभी क्षेत्रों, यहां तक कि बुद्धिजीवी समुदाय में भी फैले हुए हैं।

असम में चल रही नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) कवायद के विरोध में आए दिन खीझभरे स्वर सुनाई देते हैं। लेकिन, वोटों के सौदागरों, छद्म सेकुलरिस्टों, कुछेक बुद्धिजीवियों और मीडिया में बैठे लेफ्टिस्ट ज्ञानियों को जोड़ लिया जाए तब भी कुल संख्या डेढ़-दो हजार का आंकड़ा पार नहीं कर पाएगी। इनका अपना एजेण्डा होता है। अपने प्रलाप के परिणामों से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं होता। असम में चल रही एनआरसी के आलोचकों और बांग्लादेशी घुसपैठियों के हमदर्दों की बात करें। इन दोनों का व्यवहार राष्ट्रहित में नहीं माना जा सकता। घुसपैठियों के कारण अर्थव्यवस्था पर पड़नेवाले दुष्प्रभाव, सामाजिक ताने-बाने पर पड़ रहे दबाव, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बढ़ते खतरे और आबादी में असंतुलन का जोखिम चिंतनीय विषय हैं। असम में घुसपैठ समस्या को लेकर 6 वर्षों तक चला आंदोलन राजीव गांधी सरकार के साथ समझौते के बाद खत्म हुआ था। साढ़े तीन दशक बाद भी अवैध अप्रवासियों की समस्या जस की तस है। हैरानी की बात है कि कुछ लोग पूरी बेशर्मी से घुसपैठियों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हैं। राजनीतिक दलों ने वोट बैंक के फेर में राष्ट्रहित की खुली अनदेखी की है। घुसपैठियों के मतदाता पहचान पत्र, राशन कार्ड और आधार कार्ड तक बनवा दिये जाने की रिपोर्ट आती हैं। बांग्लादेशी घुसपैठियों के विरूद्ध कार्रवाई की बात शुरू होते ही कतिपय राजनीतिक दल कुतर्कों के साथ विरोध किया करते हैं। बांग्लाभाषी मुसलमानों को परेशान किए जाने का आरोप लगाया जाता है। अब तो घुसपैठियों के मानवाधिकारों की रक्षा की बातें की जाती हैं।

बरसों पहले एक मीडिया रिपोर्ट आई थी। दावा किया गया था कि भारत में दो करोड़ से अधिक बांग्लादेशी नागरिक मौजूद हैं। यह संख्या अतिरंजित नहीं लगती। असम में ही 19 लाख लोग अपने भारतीय नागरिक होने का प्रमाण नहीं दे पाए। यह सिर्फ एक राज्य की बात है। पश्चिम बंगाल और बिहार में छलनी लगाएं तो कितने निकलेंगे? दिल्ली और मुंबई तथा अन्य छोटे-बड़े नगरों की अभी बात ही नहीं हो रही। कतिपय राजनेता घुसपैठियों के बारे में सुनने को तैयार नहीं दिखते। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एनआरसी के नाम से ही बिदकती हैं। पिछले दिनों एक खबर पर नजर टिक गई। नीतीश कुमार ने कथित रूप से कहा है कि उनके बिहार में एनआरसी की जरूरत नहीं है। ऐसे बयान और व्यवहार राष्ट्रहित में कैसे हो सकते हैं?

एनआरसी एक सही लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। राष्ट्र के व्यापक हित में है। निश्चित रूप से एनआरसी भविष्य का दस्तावेज है। यह देश चारागाह नहीं है, जहां कोई घुस आए और संसाधनों को चरने लगे। घुसपैठ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हो सकती है। पाकिस्तान समर्थित आतंकी गुट नेपाल और बांग्लादेश के रास्ते भारत में घुसने की फिराक में रहते हैं। यह विचार ही चिंता बढ़ा देता है कि भारत में अवैध रूप से रहे विदेशियों में आतंकी मानसिकता वाले न जाने कितने तत्व हैं। साफ बात है कि यहां रहने वाले हर व्यक्ति की पहचान का रिकार्ड होना चाहिए। आखिर मालूम तो चले कि भारत भूमि पर कितने लोग इसके अपने हैं और कितने पराये। असम में एनआरसी का काम सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के चलते किया जा रहा है। किसी को इस विषय में बोलने या राजनीति करने या अनावश्यक ज्ञान बघारने की छूट नहीं दी जा सकती।

जस्टिस गोगोई मूलत: असम के रहने वाले हैं। उन्हें मैदानी वास्तविकताओं की गैर-असमी टीकाकारों की तुलना में कहीं अधिक समझ होगी। एनआरसी मुद्दे पर आर्मचेयर कमेंटेटर पर उनका मौखिक प्रहार सही है। और अंत में, पिछले हफ्ताभर से एनआरसी पर किसी आर्मचेयर कमेंटेटर ने वमन नहीं किया है। एक ऑनलाइन मीडिया रिपोर्ट अवश्य आई। बहुत कम आांखें उसे देख सकीं। स्वयंभू विद्वान पत्रकार ने कहा है कि न्यायिक जीवन के मूल्यों को लेकर स्वीकार किए गए सिद्धांतों के अनुसार कोई जज मीडिया को इंटरव्यू नहीं दे सकता है। उसका कहना है कि लेकिन जस्टिस गोगोई ने जिस कार्यक्रम में एनआरसी संबंधी टिप्पणी की थी उसमें मीडिया भी मौजूद था। उस ऑनलाइन मीडिया के आर्मचेयर क्रिटिक की इस छीलन को भला कौन महत्व देगा?

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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