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स्मृतिशेष : कैसे मिले देश को शेषन जैसे कर्तव्यनिष्ठ अफसर

👤 mukesh | Updated on:13 Nov 2019 5:14 AM GMT

स्मृतिशेष : कैसे मिले देश को शेषन जैसे कर्तव्यनिष्ठ अफसर

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- आर. के. सिन्हा

अगर टी. एन. शेषन भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त न बनते तो देश में चुनावों के नाम पर धोखाधड़ी और धांधली का आलम जारी रहता। उन्होंने 90 के दशक में चुनाव आयोग के प्रमुख पद पर रहते हुए चुनाव सुधारों को सख्ती से लागू करने का ऐतिहासिक अभियान शुरू किया। वे अब जब दिवंगत हो चुके हैं तो देश को उनके द्वारा किए महान कार्यों की जानकारी तो होनी ही चाहिए। शेषन ने उन गुंडा तत्वों पर ऐसी चाबुक चलाई जिसने धन और बल के सहारे सियासत करने वालों को जमीन पर उतारकर पैदल कर दिया। शेषन ने अपने साथियों में यह विश्वास जगाया कि उन्हें चुनाव की सारी प्रक्रिया को ईमानदारी से अंजाम देना चाहिए। उनसे पहले के चुनाव आयुक्तों पर आरोप लगते रहते थे कि वे पूरी तरह से सरकार के इशारों पर ही चुनाव करवाते हैं। वे कभी इस बात पर जोर नहीं देते थे कि चुनाव तटस्थ तरीके से हो। वे सत्तासीन पार्टी के एजेंट बन कर रह जाते थे। वे कभी चुनाव सुधारों की ओर गंभीर नहीं रहे। एक तरह से कहें कि चुनाव आयुक्त का पद शासक वर्ग के चहेते रिटायर होने वाले किसी सचिव को तीन साल तक का पुनर्वास का कार्यक्रम बनकर रह गया था।

भारत में पहली बार चुनाव सुधार लागू करने वाले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त शेषन ने एक नई परंपरा की शुरुआत की। उन्होंने साबित किया कि इस सड़े-गले सिस्टम में रहते हुए भी बहुत सारे सकारात्मक बदलाव लाये जा सकते हैं। वे अपने दफ्तर में बैठकर काम करने वाले अफसर नहीं थे। वे चाहते थे कि चुनाव सुधार करके भारत के लोकतंत्र को मजबूत किया जाए। अगर वे चाहते तो वे भी किसी बड़े नेता या किसी पार्टी का हित साध सकते थे और गवर्नर का पद अपने लिए सुरक्षित करवा सकते थे। पर शेषन ने अपने लिए एक कठिन राह पकड़ी। चुनाव सुधार का ऐतिहासिक कार्य करके उन्होंने विश्वभर में नाम तो कमाया ही, जनता की भी अभूतपूर्व सेवा की। देश को जगाने के उद्देश्य से 1994 से 1996 के बीच उन्होंने चुनाव सुधारों पर देशभर में सैकड़ों जन सभाओं को संबोधित किया। वे सुबह जल्दी के प्लेन से दिल्ली से निकलते तो कभी मुम्बई, हैदराबाद, भुवनेश्वर जैसे शहरों में एक-एक दिन में कई सभाओं को सम्बोधित करते। वे विश्वविद्यालयों के छात्रों, चेम्बर ऑफ कामर्स, बार काउन्सिल, प्रेस कॉन्फ्रेंस और शाम को एक विशाल जनसभा को सम्बोधित करके रोज दिल्ली लौट आते थे।

मैं 1995 के विधानसभाओं और 1996 के लोकसभा चुनावों के दौरान बिहार प्रदेश भारतीय जनता पार्टी का वरिष्ठ उपाध्यक्ष और चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष था। मुझे उनके कार्यों को करीब से देखने का मौका मिला। मैं कई बार उनसे मिला। मैंने उन्हें कर्तव्यपरायण और राष्ट्रनिष्ठ पदाधिकारी के रूप में ही पाया।

शेषन जनता के बीच बहुत लोकप्रिय हो गए थे। हवाई अड्डे से जब उनकी कारों का लंबा काफिला बाहर निकलता तो हजारों लोग सड़क किनारे खड़े होकर उनकी एक झलक पाने को बेताब रहते। उनकी बढ़ती लोकप्रियता और दृढ़ स्वभाव को देखकर प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने कांग्रेसी लॉबी के दबाव में अचानक एक सदस्यीय चुनाव आयोग में दो सदस्य और जोड़ दिए। तब शेषन युगल छुट्टी पर अमेरिका में थे। उन्हें बहुत झटका लगा। इसके बावजूद शेषन का जलवा कायम रहा। बाकी दोनों आयुक्त उनसे असहमति व्यक्त करते तो किस बात पर? वे कुछ भी गलत तो कर नहीं रहे थे। जो नियम है, उसी को सख्ती से पालन कर रहे थे। वे देश में चुनाव सुधार के काम को आगे बढ़ाते रहे। अब देश को यह सवाल पूछने का अधिकार है कि राव ने शेषन के पर कतरने की कोशिश क्यों की? क्या उन्हें इसलिए दण्ड दिया गया, क्योंकि वे एक बेहतर कार्य कर रहे थे? आजकल ईवीएम मशीनों की मीन-मेख निकालने वाली कांग्रेस को याद रखना होगा कि उसने देश में चुनाव सुधारों के रास्ते में घड़ी-घड़ी कितने अवरोध पैदा किए?

शेषन ने 1990 के दशक में देश में चुनाव सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और बड़ी ही कठोरता से आदर्श आचार संहिता का पालन कराया था। शेषन बहुत अच्छे कर्मठ और ईमानदार नौकरशाह थे, जिन्होंने परिश्रम और निष्ठा के साथ देश की सेवा की। चुनावी सुधार की दिशा में उनके प्रयासों ने हमारे लोकतंत्र को और मजबूत तथा भागीदारीपूर्ण बनाया। शेषन 12 दिसम्बर 1990 से लेकर 11 दिसम्बर 1996 तक देश के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे और इस दौरान उन्होंने चुनाव सुधार की दिशा में काफी सुधारात्मक काम किये। उनका जन्म केरल के पलक्कड़ जिले के तिरुनेल्लाई में हुआ था। लोकतंत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा। शेषन ने भारत के चुनावी संस्थान को मजबूत बनाने में एक महासुधारक की भूमिका निभायी है। देश उन्हें हमेशा लोकतंत्र के पथ प्रदर्शक के रूप में याद रखेगा।

देश को शेषन जैसे सरकारी अफसरों की जरूरत है, जो अन्य अफसरों के लिए प्रेरणा बनते हैं। शेषन ने कभी निजी लाभ के लिए काम नहीं किया। सरकारी सेवा से मुक्त होने के बाद उन्होंने दिल्ली छोड़ दिया और चेन्नई में रहने लगे। उसकी मुख्य वजह यही थी कि वे अपने पेंशन से दिल्ली में अपना निर्वाह करने में असमर्थ थे। वे एक संत किस्म के इन्सान थे। वे मनीषी थे। जब शेषन की बात होती है, तब दिल्ली मेट्रो रेल के फाउंडर ई. श्रीधरन का भी जिक्र करने का मन करता है। उन्होंने देश में मेट्रो रेल की नींव रखी। संयोग से ये दोनों ही अफसर मूल रूप से केरल से थे। देश को इसी तरह के अफसरों की जरूरत है। जब तक देश को शेषन और श्रीधरन जैसे ईमानदार और मेहनती अफसर नहीं मिलेंगे तब तक सरकारों की विकास और जन कल्याणकारी योजनाएं सही से लागू नहीं हो पाएंगी। भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में सरकारी अफसरों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। शेषन जैसे अफसर ने साबित करके दिखाया है कि अगर आप में इच्छाशक्ति है तो बहुत कुछ किया जा सकता है। हालांकि यह दुखद है कि हमारे यहां अब भी शेषन सरीखे बहुत से सरकारी अफसर सामने नहीं आते। अधिकतर तो सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक की नौकरी करके घर चले जाते हैं। उनमें देश या समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी का भाव नहीं होता।

(लेखक राज्यसभा सांसद हैं।)

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