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मिले अगर राज तो कैसा दाग, कैसी फांस?

👤 mukesh | Updated on:13 Nov 2019 6:26 AM GMT

मिले अगर राज तो कैसा दाग, कैसी फांस?

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- सियाराम पांडेय 'शांत'

महाराष्ट्र में खूब राजनीतिक नाटक हो रहे हैं। कौन किसके साथ है, किसके साथ नहीं, समझना कठिन है। सत्ता की मलाई खाने को सभी बेताब हैं। लेकिन सत्ता में दावेदारों के बीच तालमेल के अभाव ने राज्य में राष्ट्रपति शासन के हालात पैदा कर दिए। अगर कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शिवसेना में वैचारिक सामंजस्य होता तो सरकार बनाने के लिए बीस दिन कम नहीं होते। फिलहाल, राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया है। इसी के साथ राज्य में सत्ता हथियाने के प्रयासों को जोर का झटका लगा है। राष्ट्रपति शासन को लेकर राजनीति तेज हो गई है। राज्यपाल के फैसले को न्यायपालिका में चुनौती दी गई है। लेकिन इन तीनों दलों में कोई भी ऐसा नहीं है जो यह बता पाने में समर्थ हो कि उनके द्वारा सरकार गठन का आधार क्या है? मुख्यमंत्री किस दल का होगा? राष्ट्रपति शासन स्थायी व्यवस्था नहीं है। इस व्यवस्था की आलोचना करने की बजाय सरकार बनाने की ईमानदार कोशिश होनी चाहिए और महाराष्ट्र के व्यापक हित का कॉमन एजेंडा तय किया जाना चाहिए।

राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने सबसे बड़े दल भाजपा को सरकार बनाने का आमंत्रण दिया था। लेकिन उसने स्पष्ट कर दिया कि बदले हालात में सरकार बना पाना उसके लिए मुमकिन नहीं है। फिर राज्यपाल ने शिवसेना को मौका दिया। शिवसेना ने हाथ-पैर तो खूब मारे लेकिन राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस का समर्थन पत्र हासिल नहीं कर सकी। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को भी मौका मिला लेकिन वह भी सरकार बनाने का दावा तब तक नहीं कर पाई जब तक कि राज्यपाल ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की संस्तुति नहीं कर दी। आखिरकार, राज्यपाल की संस्तुति पर केंद्रीय मंत्रिमंडल ने महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगाने पर मुहर लगा दी। राज्यपाल के निर्णय के खिलाफ शिवसेना सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गई है। वह आरोप लगा रही है कि अगर राज्यपाल भाजपा को बहुमत हासिल करने के लिए 48 घंटे का समय दे सकते हैं, तो उसे 24 घंटे क्यों? उसके इस तर्क में दम हो सकता है लेकिन शिवसेना चुनाव परिणाम आने के दिन से ही राज्य में अपना मुख्यमंत्री बनाने की कवायद कर रही है।

सत्ता सुख मिले तो कैसा दाग और कैसी फांस? सत्ता मिलती दिखे तो सारे विरोध हवा हो जाते हैं। गरल, सुधा हो जाती है। शत्रु, मित्र हो जाते हैं। राजनीति में भी कुछ ऐसा ही है। वहां शत्रुता और मित्रता दिखावे की होती है। सत्ता मिलती है तो अछूत को भी गले लगाया जा सकता है। नैतिकता और शुचिता को किनारे लगाया जा सकता है। सुविधा के हिसाब से सिद्धांत गढ़े जा सकते हैं। सत्ता के लिए बाहर से समर्थन दिया जाता है, भीतर से समर्थन दिया जाता है। समर्थन तो समर्थन होता है। बाहर से दें या भीतर से दें। इससे फर्क क्या पड़ता है? चुनाव में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस, भाजपा और शिवसेना का विरोध करती रहीं। शिवसेना और भाजपा ने इन दोनों दलों की मुक्त कंठ से आलोचना की। फिर भी शिवसेना ने सत्ता के लिए कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के पास हाथ पसारने में गुरेज नहीं किया। एनसीपी ने भी पत्र लिखकर राज्यपाल से सरकार बनाने के लिए 48 घंटे और समय मांगा था जिसे राज्यपाल ने स्वीकार नहीं किया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की संस्तुति कर दी।

यह तीसरा मौका है जब महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगा है। महाराष्ट्र के 59 वर्षों के इतिहास में साल 1980 में फरवरी से जून और इसके बाद साल 2014 में सितम्बर से अक्टूबर तक तक राष्ट्रपति शासन लगा था। इस बार सरकार बनाने में विफलता के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराया जा रहा है जबकि कांग्रेस इन आरोपों को खारिज कर रही है। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने कहा कि अगर शिवसेना को समर्थन न देना होता तो कांग्रेस ने दिल्ली में इतनी लंबी चर्चाएं नहीं की होतीं। कांग्रेस भी शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस को कम समय देने पर सवाल उठा रही है। उसे यह भी दिक्कत है कि 288 विधानसभा वाले महाराष्ट्र में महज 44 विधायकों वाली कांग्रेस को राज्यपाल ने सरकार बनाने का मौका क्यों नहीं दिया। मतलब साफ है कि कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शिवसेना सभी चाहते हैं कि मुख्यमंत्री उन्हीं के दल का हो। पहले कांग्रेस और एनसीपी ने यह मांग की थी कि जब तक शिवसेना केंद्र में भी एनडीए से अलग नहीं होती तब तक उसको समर्थन का विचार नहीं किया जा सकता। शिवसेना ने जब एनडीए से नाता तोड़ लिया तो वे सौदेबाजी पर उतर आए।

कांग्रेस ने जो सक्रियता राष्ट्रपति शासन की संस्तुति के बाद दिखाई है, ऐसा अगर वह पहले करती तो यह दिन नहीं देखने पड़ते। कांग्रेस के अधिकांश विधायक चाहते हैं कि शिवसेना को समर्थन दिया जाए। लेकिन आलाकमान दुविधा में है।शिवसेना मुंबई और मुंबईकरों की हिमायती है। वह उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों का विरोध करती है। उन पर हमले करती है। बाल ठाकरे अपने आंदोलन के शुरुआती दिनों में गुजरातियों का, दक्षिण भारतीयों का विरोध करते थे। 'लुंगी हटाओ, पु्री बजाओ' का नारा देते थे। लेकिन कांग्रेस सभी राज्यों की पार्टी है। शिवसेना केवल मराठों की चिंता करती है। उसका उग्र हिंदुत्व भी कांग्रेस और एनसीपी के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है। शिवसेना के साथ जाने पर दोनों ही दलों के मुस्लिम और उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात और दक्षिण भारत के अन्य राज्यों के मतदाता कांग्रेस और एनसीपी से नाराज हो सकते हैं। और इसका बड़ा खामियाजा उन्हें इन राज्यों में भी भुगतना पड़ सकता है।

महाराष्ट्र देश की आर्थिक राजधानी है, जहां सभी राज्यों के लोग रहते हैं। अन्य राज्यों के लोग कांग्रेस का समर्थन करते रहे हैं। अगर कांग्रेस शिवसेना के साथ जाती है तो यह उन लोगों के साथ विश्वासघात होगा। धर्मनिरपेक्षता के शिविर की अगुवा रही कांग्रेस के लिए उग्र हिंदुत्व की पैरोकार शिवसेना से हाथ मिलाना ऐसा फैसला नहीं है, जिसे वह सहजता से ले सके।

अब बात करें शिवसेना की। शिवसेना खुद भ्रमित है और पूरे देश को भ्रमित कर रही है। वह 50-50 के फार्मूले का पालन न करने का भाजपा पर आरोप लगा रही है। लेकिन वह किसे मुख्यमंत्री बनाना चाहती है, यह उसे नहीं पता। उसके विधायक दल के नेता एकनाथ शिंदे हैं। मुख्यमंत्री तो विधायक दल का नेता होता है। फिर आदित्य ठाकरे और उद्धव ठाकरे की दावेदारी कैसे की जा रही है? उसका दावा है कि सीट बंटवारे से पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 50-50 के फार्मूले का वादा किया था। अमित शाह पूरे घटनाक्रम में खामोश रहे। कौन सही है कौन गलत कहना मुश्किल है। उधर, शरद पवार ने कहा था कि एनसीपी और कांग्रेस को जनता ने विपक्ष में बैठने का जनादेश दिया है। हालांकि अब वह सत्ता के लिए हाथ-पांव मारते दिख रहे हैं। कहा तो यह भी जाता है कि वह शिवसेना से भी 50-50 के फार्मूले का भरोसा चाहते हैं। बहरहाल, महाराष्ट्र में सत्ता के लिए खेल अभी जारी है। राष्ट्रपति शासन लगने के बाद अब भाजपा भी इस खेल में कूद गई है। ऐसे में यह दोहराना गलत नहीं होगा कि सत्ता सुख मिले तो कैसा दाग और कैसी फांस?

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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