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श्रीराम में भारत होने का सार

👤 mukesh | Updated on:17 Nov 2019 5:16 AM GMT

श्रीराम में भारत होने का सार

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- हृदयनारायण दीक्षित

मंदिर देव निवास कहे जाते हैं। मंदिर केवल उपासना केन्द्र नहीं है। वह जड़ वस्तु में दिव्य चेतन की प्राण प्रतिष्ठा हैं। शतपथ ब्राह्मण का मंत्र है, 'यो वै रूपं, तत् शिल्पं - जैसा उस परम का रूप वैसा ही शिल्प।' सुंदर घर सबकी इच्छा होती है। लेकिन संपूर्ण सुंदर घर की तुलना मंदिर से करते हैं, घर क्या पूरा मंदिर है। संसद के लिए कहते हैं कि वह लोकतंत्र का मंदिर है। वहां शोर, अवज्ञा उचित नहीं। अच्छे विचार वाले व्यक्ति के लिए कहते हैं कि उसका मन मंदिर है। प्रीतिपूर्ण हृदय के लिए कहते हैं कि दिल एक मंदिर है। मानव अनुभूति की उच्चतर अनुभूति दिव्यता है। जहां-जहां दिव्यता, वहां-वहां देवता। मंदिरों से समाज के विकास और पुनर्गठन के काम सम्बद्ध थे। ढेर सारे मंदिरों में शिक्षा के प्रकल्प भी थे। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के काम भी मंदिरों से जुड़े थे। उत्तर भारत का गोरखनाथ मंदिर योग, संस्कृत, संस्कृति व दर्शन की शिक्षा का बड़ा केन्द्र रहा है। वहां आज भी शिक्षा की तमाम संस्थाएं संचालित हैं।

भारत की दिव्यता अनुभूति ने लाखों मंदिर बनाए और करोड़ों देवताओं की अनुभूति की। लेकिन श्रीराम जन्मभूमि मंदिर की बात दूसरी है। अयोध्या में जन्मे श्रीराम प्राचीन इतिहास के महानायक हैं। वे इतिहास में पुरुष हैं। आस्तिकता में भगवान हैं। वाल्मीकि के विवरण में असंभवों का समन्वय हैं। वे पराक्रमी योद्धा हैं। वे कर्म विश्वासी हैं। वैदिक परंपरा के आस्तिक हैं। वे ज्ञानवान गुणी हैं। साम गायन में भी निपुण हैं लेकिन विनयी हैं। पिता दशरथ ने उन्हें वनवास दिया। लक्ष्मण कैकेई व दशरथ पर कुपित थे। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा 'दोष नियति का है। कैकेई तो मां हैं।' वनगमन के पहले श्रीराम कौशल्या से मिले। कौशल्या ने उन्हें अश्रुपूर्ण विदाई दी। कहा, 'मैं रोक नहीं सकती। लेकिन जा ही रहे हो तो कह रही हूं कि प्रिय पुत्र अमृत लेकर ही लौटना। तुम्हारी रक्षा इन्द्र, वरूण और अग्नि सहित सभी देवता करें।'

श्रीराम अमृत लेकर ही लौटे। कर्म ने उन्हें तपाया। उन्होंने मर्यादा का शिखर पाया, मर्यादा पुरूषोत्तम बने। उन्होंने तमाम वंचित समुदायों का प्यार पाया, उन्हें प्यार दिया। उन्होंने मरणधर्मा इतिहास का अतिक्रमण किया। वे काल का भी अतिक्रमण करते हुए अमर हो गए। कौशल्या की अमृत लाने की इच्छा पूरी हो गई। अयोध्या लौटे तो दिव्य प्रकाश वाले सहस्त्रों दीप जले। अवधपुरी भी इतिहास की छाया से ऊपर हो गई। वह दिव्य धाम बन गई। सरयू आनंदमग्न नाची। सब नाचे। तुलसी के विवरण में संपूर्ण प्रकृति आनंदमग्न थी। चारों वेद भी श्रीराम के दर्शनार्थ अवधपुरी आए।

श्रीराम में भारत होने का सार है। वे आर्य हैं। भारत प्राचीन आर्यावर्त है। भारत का वैचारिक सांस्कृतिक स्रोत उदात्त संस्कृति है। श्रीराम उदात्त हैं। वेद भारतीय संस्कृति दर्शन के स्रोत हैं। श्रीराम वैदिक दर्शन व संस्कृति के ज्ञाता हैं। यह बात वाल्मीकि रामायण के प्रसंग में दशरथ को उनकी ही मंत्रिपरिषद ने बताई थी। भारतीय संस्कृति के मुख्य गुण शील व मर्यादा हैं। श्रीराम शील गुण के धारक हैं। वह मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। भारतीय मान्यता में श्रीराम का नाम स्मरण ही पर्याप्त है। तुलसीदास कहते हैं कि राम नाम के प्रसाद में सब सुख हैं। नाम स्मरण से स्वप्न में भी कोई चिन्ता नहीं रहती - 'फिरत सनेह मगन सुख अपने/नाम प्रसाद सोच नहि सपने।' यह भारतीय भक्ति रस का चरम परम है। भौतिकवाद के लिए अप्राप्य है, लेकिन श्रीराम में भौतिक सुखों की प्रतिभूति है। रामराज्य ऐसी ही सुखद धारणा है। राम राज्य में सूर्य जरूरत से ज्यादा नहीं तपते और मेघ इच्छानुसार ही वर्षा करते हैं। राम जन्मभूमि मंदिर इन्हीं श्रीराम का स्थाई स्मरण है।

तुलसी के श्रीराम ब्रह्म हैं। दर्शन में ब्रह्म निरूद्देश्य है। इच्छा रहित, आकांक्षा शून्य। सर्वव्यापी लेकिन कर्तापन रहित। यही ब्रह्म राम रूप होकर लीला करता है। उनका हरेक कृत्य लीला है। वह अभिनेता हैं, नट हैं और नटखट भी। लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। सारी दुनिया में रामलीला होती है। जगत परमसत्ता की ही लीला है। आधुनिक भौतिक विज्ञान इस लीला को थोड़ा कुछ ही देख पाया है। यहां नियमबद्धता है। क्वांटम भौतिकी में इसकी अनिश्चितता भी है। प्रकृति नियमों की अकाट्यता के कारण भौतिक विज्ञानी जगत गति को सुनिश्चित मानते हैं। क्वांटम भौतिकी से अनिश्चितता का सिद्धांत निकलता है। ब्रह्म का खेल रहस्यपूर्ण है। ब्रह्म संकल्प रहित है। इच्छा है ही नहीं। इसलिए अनिश्चितता भी है। सो उसके खेल की प्रत्येक तरंग लीला है। भाव श्रद्धा में श्रीराम का जीवन ब्रह्म की ही लीला है। दुनिया की पहली रामलीला दशरथ नंदन श्रीराम का जीवन है।

इन्हीं श्रीराम की जन्मभूमि के प्राचीन मंदिर का ध्वंस हुआ था। मंदिर के लिए तमाम संघर्ष हुए। अखिल भारतीय आन्दोलन हुआ। इसकी तुलना पश्चिम के पुनर्जागरण - रिनेशां से संभव है। यहां जाति, क्षेत्र के भेद टूटे। समूचा भारत आन्दोलित था। सर्वोच्च न्यायपीठ के फैसले व फैसले की सहज लोकस्वीकृति से अद्भुत वातावरण बना है। फैसले को लेकर विश्व जिज्ञासा थी। फैसले से दुनिया में भारत की संवैधानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठा बढ़ी है। फैसले के परिणाम दीर्घकालिक होंगे। सामाजिक सांस्कृतिक वातावरण सकारात्मक हो रहा है। श्रीराम भारतीय संस्कृति व मर्यादा के प्रतीक महानायक हैं। सो इतिहास दर्शन पर भी इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। यूरोपीय वामपंथी इतिहास दृष्टि में श्रीराम काव्य कल्पना माने जाते रहे हैं। ऐसे इतिहास विवेचक न अयोध्या देखते हैं और न ही सरयू की प्राचीन भौगोलिक उपस्थिति। वे स्वयं को वैज्ञानिक भौतिकवादी कहते हैं लेकिन चित्रकूट, दण्डकारण्य, प्रयाग आदि प्रत्यक्ष भौतिक साक्ष्यों का भी ध्यान नहीं रखते। श्रीराम को कोरी काव्य कल्पना बताने का फैशन अब कालवाह्य है।

फैसले को लेकर जन गण मन अधीर था। यह अधीरता प्रश्नाकुल भी थी - जाने क्या परिणाम आने वाला है? प्रश्नाकुल अधीरता अब समाप्त हो गई है। लेकिन अब प्रतीक्षा आश्वस्तिदायक है। केन्द्र में सांस्कृतिक अधिष्ठान से जुड़े प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं और राज्य में योगी आदित्यनाथ। सो भारतीय जन गण मन के स्वप्नों वाले दिव्य भव्य श्रीराम मंदिर के निर्माण की विधिक प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई है। श्रीराम मंदिर भारतीय राष्ट्रभाव की अभिव्यक्ति होगा। यह भारतीय प्रज्ञा और अनुभूति के सत्य, शिव और सौन्दर्य का दर्शन होगा। इसके राजनीतिक प्रभाव पर भी तमाम प्रश्न उठाए जा रहे हैं। इन प्रश्नों का उत्तर फैसले के बाद आई राजनीतिक बयानबाजी में पहले से मौजूद हैं। देश के सभी दलों, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों ने फैसले का स्वागत किया है। अब श्रीराम और श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पर समूचे राष्ट्र की सहमति ही नहीं उल्लासभाव का वातावरण भी है। भविष्य में भी कोई दल श्रीराम या श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पर कोई टिप्पणी नहीं करेगा। राष्ट्रीय उल्लास का यह प्रारम्भ दीर्घकालिक स्थाई राष्ट्रीय उत्साह का सतत प्रवाह होगा।

(लेखक उत्तरप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।)

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