- लीबिया को सैन्य समर्थन देने के करीब तुर्की
- लीबिया को सैन्य समर्थन देने के करीब तुर्की
- लीबिया को सैन्य समर्थन देने के करीब तुर्की
- अफ़ग़ानिस्तान से चार हज़ार अमेरिकी सैनिक स्वदेश लौटेंगे
- पंत-अय्यर के अर्द्धशतक, भारत ने बेस्टइंडीज को दिया 288 रन का लक्ष्य
- बीते सप्ताह सोना में 70 और चांदी में 640 रुपये की तेजी
- एशिया जूनियर बैडमिंटन चैंपियनशिप में तस्नीम ने जीता गोल्ड
- कॉर्न फेस्टिवल : मक्के की 50 से ज्यादा डिश की प्रदर्शनी
- भोपाल, इंदौर, जबलपुर में भूमाफिया के अवैध निर्माणों पर प्रशासन ने चलाया बुलडोजर
- कॉर्न फेस्टिवल में पहुंचे प्रदेश भर के किसान
- डॉ. अजय खेमरिया
गृहमंत्री अमित शाह ने भारत की मौजूदा आईपीसी और सीआरपीसी में आमूल-चूल परिवर्तन के मसौदे पर काम करना शुरू कर दिया है। लखनऊ में आयोजित 47 वीं पुलिस साइंस कांग्रेस के समापन समारोह में उन्होंने इस आशय की घोषणा की है। निःसंदेह गृहमंत्री के रूप में अगर वह इस काम को करने में सफल हुए तो आजाद भारत में सबसे बेहतरीन कार्यों में से एक होगा। यह मामला 70 साल से भारत के लोकजीवन में अंग्रेजी शासन के शूल की तरह चुभ रहा है। क्या यह लोकतांत्रिक भारत में किसी व्यवस्थावत त्रासदी से कम नहीं है कि हमारी पुलिस आज भी 1861 की उस पुलिस संहिता से परिचालित है जो असल में 1857 के पहले स्वतंत्रता समर के दोहराव को रोकने के उद्देश्य से बनी थी।
गृहमंत्री अमित शाह ने स्पष्ट कर दिया है कि इस बुनियादी बदलाव का काम किसी जल्दबाजी में नहीं होगा, बल्कि इसके लिये व्यापक जनसहभागिता सुनिश्चित की जाएगी। हालांकि पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो ने प्रस्तावित बदलाव का पूरा मसौदा बनाकर गृहमंत्री को सुपुर्द कर दिया लेकिन अमित शाह इसे किसी जल्दबाजी में लागू नहीं करना चाहते हैं। उन्होंने स्पष्टता से कहा है कि डेढ़ सौ साल बाद होने जा रहे बदलाव को आज और कल के भारत के भविष्य के अनुरूप निर्मित किया जाएगा। इसलिए मसौदे के प्रारूप को लोकमंच पर रखा जाएगा और समाज के आखिरी पायदान तक पुलिस जनोन्मुखी कैसे बने, इसकी पुख्ता व्यवस्था की जायेगी। जाहिर है अगर आईपीसी और सीआरपीसी में इस स्वरूप के साथ बदलाव करने में गृहमंत्री अमित शाह कामयाब रहते हैं तो यह उन्हें अद्वितीय गृहमंत्री के रूप में स्थापित करने का काम करेगा। संख्या बल के लिहाज से यह काम असंभव भी नहीं है लेकिन सबसे बड़ा सवाल भारत में पुलिस को लेकर सत्ता की सोच से जुड़ा है। हकीकत तो यह है कि आजाद भारत में राजनीतिक दलों द्वारा विकास, सुरक्षा और पुलिस दमन से मुक्ति के नाम पर चुनाव-दर-चुनाव सत्ता हासिल की गई और सत्ता पर काबिज होते ही अगले चुनाव तक वे पुलिस के डंडे से ही अपने विरोधियों और असहमत जनवर्ग को ठिकाने लगाने का काम करते हैं। इसीलिए आज भी डेढ़ सौ साल पुरानी पुलिस हमारे शासन तंत्र का अपरिहार्य हिस्सा बना हुई है।
जाहिर है इन परिस्थितियों में अगर अमित शाह पहली बार यह राजनीतिक साहस दिखाने जा रहे है तो यह उनके अभिनंदनीय कार्यों की श्रेणी में आएगा। इस निर्णय की महत्ता मोदी सरकार के अबतक के सभी लोकप्रिय कदमों से कहीं अधिक होगी क्योंकि पुलिस से करोड़ों भारतीय आज भी सहमी और डरी हुई अवस्था में रहते है। लोकजीवन में पुलिस की छवि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अगर मोहल्ले के किसी घर में अगर शिष्टाचार वश ही कोई पुलिसकर्मी आ जाये तो आसपास लोग भयभीत होकर बुरी से बुरी कल्पनाओं में खो जाते हैं। समाज में आम कामना यह रहती है कि प्रभु कभी किसी को थाना, कचहरी की देहरी न चढ़ाएं। इस लोक कामना के पीछे पुलिस का आम व्यवहार ही है जो थानों से भयभीत करने की प्रतिध्वनि देता है।
सवाल यह है कि जनसेवा के ध्येय का दावा पुलिस करती है और हकीकत भी यही है कि समाज, राजनीति, यातायात, कला, संस्कृति, व्यापार, वाणिज्य, हर क्षेत्र में हमें पुलिस की जरूरत होती है, पुलिस दिनरात खड़ी भी रहती है। अन्य सरकारी मुलाजिमों की तुलना में सर्वाधिक समय अपनी ड्यूटी देती है। इसके बाबजूद पुलिस की लोकछवि में एक डरावना आवरण क्यों हावी है? क्यों कोई भी भारतीय थानों में उस उन्मुक्त भाव के साथ जाने की हिम्मत नहीं कर पाता है जैसे तहसील, जनपद या सरकारी अस्पताल में, आखिर इन सरकारी दफ्तरों की तरह पुलिस भी तो हमारी सुरक्षा और कल्याण के लिये बनाई गई है। इस सवाल के जवाब खोजने के लिये बहुत गहरे शोध की जरूरत नहीं है। हमें पता होना चाहिए कि पुलिस एक्ट 1861 में अंग्रेजी हुकूमत ने इसलिए बनाया था क्योंकि 1857 के पहले स्वतंत्र समर से ब्रिटिशर्स बुरी तरह डर गए थे। इंडियन पुलिस अंग्रेजी शासन की साम्राज्यवादी और सामंतवादी नीतियों के पोषक के रूप में स्थापित की गई थी। समाजसेवा, निर्बलों की रक्षा, अपराधों की रोकथाम जैसे कानून द्वारा स्थापित कार्यों की अपेक्षा इसका उपयोग कानून द्वारा अपरिभाषित कार्यों के लिये सत्ता तंत्र ने अधिक किया है।
सन् 1902 में गठित भारतीय पुलिस आयोग ने पुलिस तंत्र को अक्षम, अप्रशिक्षित, भ्रष्ट और दमनकारी कहा था। लेकिन तब की गोरी हुकूमत के लिये यह कोई चिंता की बात नहीं थी क्योंकि उसका ध्येय भारत में किसी लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना नहीं बल्कि हमारे समाज का शोषण और दमन ही था। इसे एक उदाहरण से हम समझ सकते है- अगर आप पांच लोग किसी चौराहे पर खड़े होकर सत्ता के विरुद्ध आवाज उठाते हैं तो पुलिस आपको शांतिभंग करने के आरोप में धारा 151 में बन्द कर देती है और आपकी जमानत एसडीएम साहब को लेनी होगी। वहीं अगर आप किसी को थप्पड़ मार दें, उसे गालियां दें, उसे हल्की चोट पहुंचा दें तो आपको धारा 323 506बी के तहत पकड़ा जाएगा और थानेदार साहब ही आपको जमानत पर छोड़ देंगे। इसे अंग्रेजी हुकूमत के आलोक में समझिए। उस दौर में सत्ता के विरुद्ध सार्वजनिक समेकन और संवाद इसलिये निरुद्ध था क्योंकि हुकूमत अंग्रेजी थी। भारतीय बड़ी संख्या में अंग्रेजी राज के अधीन काम करते थे। उनके अफसर यहां तक कि उनकी पत्नियां उनके साथ मारपीट करें, बेइज्जत करें तब भी उनका अपराध कमतर बनाया गया। अंग्रेजी पुलिस का दारोगा घर आकर उनको सम्मान से जमानत दे देता था। इसी दौरान अगर कोई इंकलाबी मुखर हो तो उसे बंदी बनाकर 151 में न्यायालय में पेश किया जाता था। आज भी यह धाराएं हम पर लागू हैं और इससे मिलती-जुलती अनेक धाराओं के माध्यम से हम उसी दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में शासित हो रहे हैं।
प्रश्न यह है कि आजादी के तत्काल बाद या आजतक इस व्यवस्था को बदला क्यों नहीं गया? ईमानदार निष्कर्ष यही है कि हमारे नेताओं ने भी उसी स्वरूप में पुलिस को इसीलिये स्वीकार किया क्योंकि लोकतंत्र के शोर में भी वे मानते रहे हैं कि सत्ता पुलिस के जरिये ही स्थापित और कायम रखी जा सकती है। जिन अखिल भारतीय कैडर के लोगों को हम भारत का सर्वाधिक प्रज्ञावान मानते हैं वे भी सत्ता के आगे बुत बने रहे हैं। इसलिये अगर अमित शाह वाकई भारतीय पुलिस का चेहरा और उसकी मोहराई उपयोगिता को बदलने जा रहे हैं तो यह वास्तविक आजादी को अहसास कराने वाला अभिनंदनीय कदम होगा। महात्मा गांधी कहते थे पुलिस को जनता के मालिक के रूप में नहीं बल्कि जनता के सेवक के रूप में काम करना चाहिए तभी जनता स्वतः पुलिस की सहायता करेगी और पुलिस-जनता के परस्पर सहयोग से अपराध मुक्त समाज का निर्माण होगा। महात्मा गांधी की 150 जयंती पर नई भारतीय पुलिस अगर अस्तित्व में आती है तो इससे बेहतर श्रद्धांजलि क्या हो सकती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
इस्तांबुल । तुर्की अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त लीबियाई सरकार को सैन्य समर्थन देने के करीब है। इस आशय का एक करार संसद के पास मंजूरी के लिए देर...
इस्तांबुल । तुर्की अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त लीबियाई सरकार को सैन्य समर्थन देने के करीब है। इस आशय का एक करार संसद के पास मंजूरी के लिए देर...
इस्तांबुल । तुर्की अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त लीबियाई सरकार को सैन्य समर्थन देने के करीब है। इस आशय का एक करार संसद के पास मंजूरी के लिए देर...
लॉस एंजेल्स । ट्रम्प प्रशासन ने क्रिसमस से पूर्व अफ़ग़ानिस्तान से चार हज़ार अमेरिकी सैनिकों को स्वदेश बुलाए जाने के संकेत दिए हैं। अभी अफ़ग़ानिस्तान...
खार्तूम । सूडान की एक अदालत ने पूर्व राष्ट्रपति उमर अल बशीर को धनशोधन, भ्रष्टाचार और विदेशी मुद्रा को गैरकानूनी तरीके से रखने के मामले में दो साल की...