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राख हुए महिला सुरक्षा कानून के दावे

👤 mukesh | Updated on:2 Dec 2019 6:24 AM GMT

राख हुए महिला सुरक्षा कानून के दावे

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- प्रमोद भार्गव

अनेक कानूनी उपाय और जागरूकता अभियानों के बावजूद बच्चों व महिलाओं से दुष्कर्म की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। हैदराबाद की महिला पशु चिकित्सक के साथ चार दरिंदों ने सात घंटे दुष्कर्म किया और फिर शरीर पर कैरोसिन डालकर आग लगा दी। जिस हाल में शव मिला है, उस शव के चिकित्सा-परीक्षण से यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल है कि महिला के साथ कुकृत्य हुआ भी था अथवा नहीं? चूंकि कोई चश्मदीद गवाह भी मिलना मुश्किल है, जो कह सके कि मैंने इस घटना को घटते देखा? लिहाजा पकड़े गए आरोपियों और परिस्थितिजन्य साक्ष्य ही सजा का आधार बनेंगे। ऐसे में यदि आरोपी आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं तो कठोर सजा भी मिलना मुश्किल हो जाती है, क्योंकि अदालत आरोपी द्वारा पुलिस को दिए बयान से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण आरोपी के अदालत में दिए बयान को मानती है। अदालत में ज्यादातर आरोपी पूर्व में दिए बयान को पुलिस के दबाव में दिया बयान बताकर, उससे सर्वथा भिन्न बयान जज के सामने देते हैं। इस बयान को वे वकील तैयार करते हैं, जो कानून के विशेषज्ञ कहलाने के साथ कानून के उन छिद्रों को भली-भांति जानते हैं, जो आरोपी को बचाने के लिए औजार का काम करते हैं। इसीलिए 1973 में जहां 44 प्रतिशत अपराधियों को किए की सजा मिल जाती थी, वही आंकड़ा 2016 में घटकर 25 प्रतिशत रह गया है। यही वजह है कि प्रति 15 मिनट में एक महिला के साथ दुष्कर्म हो रहा है। इससे पता चलता है कि महिला को सुरक्षा देने वाले कानून व दावे प्रियंका की तरह जलकर राख में तब्दील हो रहे हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर उन क्षेत्रों में त्वरित न्यायालय अस्तित्व में आते जा रहे हैं, जिन जिलों में महिला एवं बाल यौन उत्पीड़त से जुड़े 100 से अधिक मामले सामने आ चुके थे। इन अदालतों का गठन बाल यौन उत्पीड़न निषेध कानून (पॉक्सो) के तहत हुआ है। ये अदालतें सिर्फ पॉक्सो से संबंधित मामले ही सुनती है। दरअसल, अदालत ने देशभर से बाल दुष्कर्म के मामलों के आंकड़े इकट्ठे किए थे। इससे पता चला कि एक जनवरी से 30 जून 2019 तक बालक-बालिकाओं से दुष्कर्म के 24,212 मामले सामने आए। इनमें से 6,449 में ही चालान पेश किया गया। अदालतों में सुनवाई शुरू हुई और 911 में त्वरित निर्णय भी हो गया। मध्य प्रदेश की त्वरित न्यायालयों ने अल्प समय में निर्णय सुनाने में रिकाॅर्ड कायम किया है।

दुष्कर्म मामलों में त्वरित न्याय का सिलसिला चल निकलने के बाद भी महिलाओं व बलिकाओं से दुष्कर्म की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। बीते साल अप्रैल में केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश लाकर 12 साल से कम उम्र की बच्ची के साथ दुष्कर्म के दोषी को मौत की सजा और 16 साल से कम उम्र की किशोरी के साथ बलात्कार एवं हत्या के आरोपी को उम्रकैद की सजा का प्रावधान किया था। इस आध्यादेश ने कानूनी रूप भी ले लिया है। पाॅक्सो कानून की धारा 9 के तहत किए गए प्रावधानों में शामिल हैं कि बच्चों को सेक्स के लिए परिपक्व बनाने के उद्देश्य से उन्हें यदि हार्मोन या कोई रासायनिक पदार्थ दिया जाता है तो इस पदार्थ को देने वाले और उसका भंडारण करने वाले भी अपराघ के दायरे में आएंगे। इसी तरह पोर्न सामग्री उपलब्ध कराने वाले को भी दोषी माना गया है। ऐसी सामग्री को न्यायालय में सबूत के रूप में भी पेश किया जा सकता है। लेकिन देखा गया है कि अधिकतम मामलों में पुलिस ने कामवर्द्धक दवा और अश्लील सामग्री उपलब्ध कराने वालों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की। दरअसल इस तरह की चीजें बच्चों से बाल्यावस्था छीनने का कारण बनते हैं। किशोर और युवा इनसे प्रेरित होकर किसी स्त्री के साथ अनर्थ कर डालते है। साफ है, यह सामग्री लोगों के शरीर ही नहीं आत्मा को भी छलनी कर रही है।

हालांकि पहले कानून से कहीं ज्यादा आदमी को धर्म और समाज का भय था। नैतिक मान-मर्यादाएं कायम थीं। किंतु इन्हें तार-तार करने का काम कुछ ऐसे कानूनों ने भी किया है, जिनके चलते रिश्तों की गरिमा लगभग खत्म हो गई है। नैतिक पतन के कई स्वरूप होते हैं, व्यक्तिगत, संस्थागत और सामूहिक। व्यक्तिगत पतन को स्वविवेक और पारिवारिक सलाह से रोका जा सकता है। किंतु संस्थागत और सामूहिक चरित्रहीनता के कारोबार को सरकार और पुलिस ही नियंत्रित कर सकती है। दवा कंपनियां कामोत्तेजना बढ़ाने के जो रसायन और साॅफ्टवेयर कंपनियां पोर्न फिल्में बनाकर जिस तरह से इंटरनेट पर परोस रही हैं, उसपर काबू कानूनी उपायों से ही संभव है। पोर्न फिल्मों की ही देन है कि गली-गली में दुष्कर्मी घूम रहे हैं। समाजशास्त्री मानते हैं कि जहां कानूनी प्रावधानों के साथ सामाजिक दबाव भी होता है, वहां बलात्कार जैसी दुष्प्रवृत्तियां कम पनपती हैं। विडंबना है कि राजनीति का सरोकार समाज-सुधार से दूर हो गया है। उसकी कोशिश सिर्फ सत्ता में बने रहकर केवल उसका दोहन करना भर रह गया है। यही वजह है कि भिन्न विचारधाराओं की राजनीति सत्ता के लिए जिस तरह एकमत हो जाती हैं, उसी तर्ज पर इस दुष्कर्म मामले में भी भिन्न धर्मों के लोग एक हो गए।

स्त्री उत्पीड़न की ज्यादातर घटनाएं महानागरों के उन इलाकों में घट रही है, जहां समाज और परिवार से दूर वंचित समाज रह रहा है। ये लोग अकेले गांव में रह रहे परिवार की आजीविका चलाने के लिए शहर मजदूरी करने आते हैं। ऐसे मोबाइल पर उपलब्ध कामोत्तेजक सामग्री इन्हें भड़काने का काम करती हैं और ये चलती-फिरती बालिकाओं अथवा महिलाओं को बहला-फुसलाकर या उनकी लाचारी का लाभ उठाकर यौन उत्पीड़न कर डालते हैं। हैदराबाद की चिकित्सक के साथ घटी घटना की पृष्ठभूमि में लाचारी रही है। इनकी स्कूटी कम आबादी वाले इलाके में पंचर हो गई और इंसानियत के दुश्मन मदद के बहाने हैवानियत पर उतर आए। लाचार ने पालतू मवेशियों के इलाज की पढ़ाई तो की थी लेकिन इंसानियत के भीतर निवास करने वाले जानवरों के न तो वह लक्षण जानती थी और न ही उनका उपचार करना जानती थी। इस घटना की पृष्ठभूमि में फैलता शहरीकरण और परिचितों से बढ़ती दूरियां भी रही हैं। यही वजह रही कि जिन दरिंदों की मति और मानवीयता जब मर रही थी, तब उन्हें रोकने के लिए न तो कोई निकट मनुष्य था और न ही दरिंदों को ललकारने वाली कोई आवाज उठी? जबकि रात बहुत गहरी नहीं हुई थी, केवल 9 बजे थे। लेकिन पेट्रोलिंग करने वाली गाड़ियों के सायरन भी इस वक्त मौन थे।

अक्सर निर्भया या प्रियंका की चीखें जब मौन होकर राख में बदल जाती है तब देश में हर कोने से मोमबत्ती की टिमटिमाती ज्योति में दरिंदों को फाांसी की सजा देने की मांग उठने लगती है। किंतु न्यायशास्त्र का सिद्धांत कहता है कि जीवन खत्म करने का अधिकार आसान नहीं होना चाहिए। इसलिए फांसी की सजा जघन्यत्म या दुर्लभ मामलों में ही देने की परंपरा है। नतीजतन निचली अदालत से सुनाई गई फांसी की सजा पर अमल भी जल्दी नहीं होता। मप्र में 2018 में रिकाॅर्ड 58 दोषियों को दुष्कर्म व हत्या के मामलों में फांसी की सजा सुनाई गई है, लेकिन एक भी सजा पर अमल नहीं हो पाया है। यह मामले उच्च, उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रपति के पास दया याचिका के बहाने लंबित हैं। सभी जगह दोषी को क्षमा अथवा सजा कम करने की प्रार्थना से जुड़े आवेदन लगे हुए हैं। इन आवेदनों के निरस्ती के बाद ही दोषी का फांसी के फंदे तक पहुंचना मुमकिन हो पाता है। साफ है, दुष्कर्म से जुड़े कानूनों को कठोर बना दिए जाने के बावजूद इस परिप्रेक्ष्य में क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया है। पुलिस और अदालतों की कार्य-संस्कृति यथावत है। मामले तारीख दर तारीख आगे बढ़ते रहते हैं। कभी गवाह अदालत में पेश नहीं होते है तो कभी फॉरेंसिक रिपोर्ट नहीं आने के कारण तारीख बढ़ती रहती है। गोया, इस बाबत न्यायिक व पुलिस कानून में सुधार की बात अर्से से उठ रही हैं, लेकिन हमारी सरकारों की प्राथमिकता में कानूनी सुधार की चिंता है ही नहीं? लिहाजा विशेष अदालतें गठित हो भी जाएं तो कानूनी प्रक्रिया में शिथिलता होने के कारण गति आना मुश्किल है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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