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संसार की समझ जरूरी

👤 mukesh | Updated on:15 Dec 2019 5:08 AM GMT

संसार की समझ जरूरी

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- हृदयनारायण दीक्षित

संसार की समझ जरूरी है और अपना ज्ञान भी। ज्ञान के अभाव में सब कुछ असंभव है। ज्ञान से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं। ज्ञान परम है। ऋग्वेद में 'ज्ञान' विषयक एक मजेदार सूक्त (ऋ.- 10.71) है। इसके द्रष्टा कवि ऋषि बृहस्पति आंगिरस हैं। 'ज्ञान' यहां एक देवता हैं। ऋग्वेद के देवता अभिभूत करते हैं। 10वें मण्डल में पशु-पक्षी भी देवता हैं। कृषि भी देवता है। साहस (मन्यु) श्रद्धा और हाथ भी देवता है। कहा गया कि जहां-जहां दिव्यता, वहां-वहां देवता। प्रत्यक्ष वस्तुओं, मनोभावों को देवता मानने और नमस्कार करने की वैदिक शैली अनूठी है। ऋग्वेद में 'नमस्कार' भी देवता हैं। मूर्ति, किताब, पेड़ या नदी को किए गए नमस्कार का सीधा सम्बंध हमारी अंतश्चेतना से है। ऐसे प्रतीक नमस्कार के भूखे नहीं हैं। वे इसका धन्यवाद भी नहीं देते। लेकिन नमस्कार से हमारी अंतश्चेतना का रसायन बदलता है। हमारी मन और काया में रसायनिक परिवर्तन होते हैं। किसी को भी किया गया नमस्कार वस्तुतः हमारे अपने अंतःकरण को ही प्रीतिभाव से भरता है। इसी तरह ज्ञान भी एक देवता हैं। ज्ञान उपास्य देव है। उनके निकट होना ज्ञान उपासना है।

ज्ञान का इतिहास भी ज्ञान है। गीता के चौथे अध्याय की शुरूआत ज्ञान इतिहास से होती है। श्री कृष्ण ने कहा 'प्राचीन काल में यह योग ज्ञान मैंने विवस्वान को बताया था। विवस्वान ने मनु को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को।' (गीता- 4.1) आगे कहा, यह ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजर्षि जानते आए हैं (वही, 2)। ज्ञान का प्रारम्भ परमसत्ता के गर्भ से हुआ है। श्रीकृष्ण परमसत्ता के प्रवक्ता हैं। अर्जुन ने श्रीकृष्ण को टोक दिया, 'आपका जन्म तो बाद में हुआ, विवस्वान का पहले। तब आपने उन्हें कैसे ज्ञान दिया (वही, 4)? तर्क स्वाभाविक है। इक्ष्वाकु ऋग्वेद में राजा हैं। मनु उनके पहले हैं। विवस्वान सूर्य के पर्यायवाची हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन के समकालीन हैं। गीता महाभारत के युद्धपूर्व सम्पन्न श्रीकृष्ण अर्जुन सम्वाद है। महाभारत के शान्तिपर्व में युद्ध के बाद का विवरण है। यहां भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान हस्तांतरण का यही क्रम है। पूर्व काल में विवस्वान ने मनु को, फिर मनु ने इक्ष्वाकु को यह ज्ञान दिया। परम्परा चलती रही। (शान्तिपर्व- 348) लेकिन यहां शुरूआत श्रीकृष्ण से नहीं, विवस्वान से होती है। गीता में यह शुरूआत श्रीकृष्ण से होती है।

अर्जुन की जिज्ञासा पुनर्जन्म से जुड़ी है। श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया 'बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव- मेरे तुम्हारे (यानी सबके) पहले बहुत से जन्म हो चुके हैं। मैं जानता हूं, तू नहीं जानता (वही 4.5)। यहां पुनर्जन्म की स्थापना है। कहते हैं 'अजोऽपि सन्न व्ययात्मा' - मैं अजन्मा हूं। आत्मा अनश्वर है। ज्ञान अविनाशी है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं अजन्मा हूं लेकिन उनका मथुरा में जन्म हुआ था। समूचा विश्व उनका जन्मोत्सव मनाता है। तब यहां 'अजन्मा' का तात्पर्य क्या है? यहां ज्ञान की धारा तीक्ष्ण है। गीता के कृष्ण चेतना के दो तलों से बोलते हैं। वे अर्जुन से कहते हैं कि तू मेरा सखा है और यह भी कहते हैं कि मैं सभी भूतों का स्वामी ईश्वर हूं, अजन्मा हूं। 'मैं अजन्मा' जैसे वाक्य परम बोध के तल से बोले गये शब्द हैं। परम ज्ञान के तल पर स्थित चेतना सर्वशक्तिमान होती है। उसे मनुष्य के तल पर उतरने अथवा ईश्वर के तल पर हो जाने की सुविधा है। यह सुविधा किसी का विशेषाधिकार नहीं है। ऋग्वेद के वामदेव और बाईबिल के ईशा भी ऐसी ही बाते करते हैं। असल बात है परम ज्ञान। ऋग्वेद में ज्ञान की प्रारम्भिक अवस्था का रोचक वर्णन है। ऋषि बताते हैं 'अग्रं यत्प्रैरत नामधैयं दधानाः।' प्रारम्भिक स्थिति में विभिन्न पदार्थों का नामकरण ही ज्ञान का प्रथम सोपान बना। इनका शुद्ध ज्ञान अनुभूति में होता है और वह अंतः प्रेरणा से प्रकट होता है (ऋ.- 10.71.1)। रूप देखकर नाम रखना, रूप के साथ नाम मिलाकर जानना ज्ञान की पहली सीढ़ी है। रूपों के भीतर छुपे गुण-धर्म का ज्ञान अनुभव से ही आता है। यहां अनुभव पर जोर है। वन में जलती हुए लपटें या बहती हुई नदी दिखाई पड़ी। यह एक रूप आकार था। नाम रखा गया अग्नि या नदी। अग्नि स्पर्श से ताप गुण का अनुभव हुआ। यह हुआ ज्ञान। रूप के साथ नाम याद रखना ज्ञान की प्रथम सीढ़ी है। अग्नि या जल का ज्ञान अनुभव से ही आएगा। ज्ञान का सम्बंध अनुभव से भी है। बिना अनुभव का ज्ञान उधार की संपदा है।

नाम स्वतंत्र सत्ता नहीं हैं। वह किसी वस्तु या पदार्थ का भाषिक प्रतिनिधि है। नाम और रूप मिलाकर ज्ञान बनते हैं। इसके सामाजिक बोध को सामाजिक बनाने के लिए भाषा चाहिए। ज्ञान में विश्लेषण भी चाहिए। ऋषि कहते हैं, 'सूप से सत्तू स्वच्छ करने की तरह मेधावी जन भाषा गढ़ते हैं और मित्रगण आत्मीय भाव से समझ लेते हैं। ऐसे विद्वान की वाणी में लक्ष्मी का निवास होता है (वही, मन्त्र 2)।' ध्यान देने योग्य बात है कि यहां ज्ञानी की वाणी में सरस्वती नहीं, लक्ष्मी के निवास का रूपक है। वाणी स्वयं देवी है। वह सरस्वती हैं। भाषा का ज्ञान अतिरिक्त समृद्धि है। इसलिए यहां लक्ष्मी का रूपक है। ज्ञानी की वाणी में लक्ष्मी होती है। आगे कहते हैं, ज्ञानियों ने तत्वज्ञानियों के अंतःकरण में प्रविष्ट भाषा को प्राप्त किया। उसे प्रसारित किया (वही, मन्त्र-3)। ज्ञानी को तत्वज्ञानियों से भाषा संस्कार मिले। तब उनका प्रसार हुआ। ज्ञान सामाजिक संपदा बना।

सामान्तया प्रत्यक्ष सत्य होता है। वही ज्ञान कहा जाता है। ऋषि सतर्क करते हैं, अनेक लोग देख-सुनकर भी ज्ञान नहीं पाते। लेकिन सुपात्र के सामने वाणी स्वयं ही अपना सत्य रूप प्रकट कर देती है (वही, मन्त्र 4)। पढ़कर लिख देना एक शैली है। लोग ऐसे लेखकों को विद्वान कहते हैं। सुना-सुनाया दोहरा देने वाले भी ज्ञानी जैसी प्रतिष्ठा पाते हैं। ऋषि कहते हैं, शाब्दिक भावों को ग्रहण करने और उन्हें दोबारा प्रकट करने वाले प्रशंसा पाते हैं। उनमें से बहुत ऐसे भी हैं जो भाषा का फल (अर्थ) और फूल (अभिप्राय) नहीं जानते। ऐसे लोग दूधरहित गाय दुहते हैं। वाणी के जरिये प्रपंच करते हैं (वही मन्त्र 5)। यहां शब्द-अर्थ न जानने वालों को दूधरहित गाय दुहने वाला कहा गया है। खास बात है अनुभव। अनुभूति ही ज्ञान को वास्तविक बताती है। ऋषि ज्ञान से मित्रता को जरूरी बताते हैं। जो सत्य ज्ञान की धारा से मित्रता त्याग देते हैं, उन्हें दिव्यवाणी (ज्ञान) में अपना हिस्सा नहीं मिलता (वही - मन्त्र 6)। यहां ज्ञान से मित्रता का भाव ध्यान देने योग्य है।

ज्ञानी समान होकर भी एक जैसे नहीं होते। ऋग्वेद में एक समान दार्शनिक, एक समान श्रोत्रशक्ति सम्पन्न मेधावी भी 'एक समान' नहीं बताये गये। कहते हैं 'दर्शन शक्ति सम्पन्न, श्रोत्रशक्ति सम्पन्न, एक समान ज्ञान से युक्त मित्र भी अनुभवजन्य ज्ञान में एक समान नहीं होते (वही मन्त्र 7)। अनुभवजन्य ज्ञान महत्वपूर्ण है। बाकी सब उधार की सूचना है।

(लेखक उत्तरप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।)

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