नागरिकता संशोधन कानून के विरोध की वजह.
- अरविंद कुमार राय
नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में पूर्वोत्तर सुलग रहा है। पश्चिम बंगाल में बवाल हो रहा है। सड़कों पर अशांति है। ट्रेनें रोकी जा रही हैं। तोड़फोड़ और आगजनी की घटनाएं हो रही हैं। यह विरोध असम समेत पूरे पूर्वोत्तर में अखिल असम छात्र संस्था (आसू) तथा नॉर्थ-ईस्ट स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन (नेसो) के आह्वान पर आरंभ हुआ है। इस आंदोलन को अन्य कई संगठनों द्वारा भी समर्थन मिल रहा है। हालांकि आंदोलन आरंभ होने के बाद बराक घाटी के लोग भावनात्मक रूप से पूरी शिद्दत के साथ जुड़ गए हैं। लेकिन यह भी सच है कि आंदोलन के नाम पर कुछ बाहरी तत्व बड़े पैमाने पर हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में विरोध मुख्यतः दो बिंदुओं पर हो रहा है। असम में इसे भाषा, संस्कृति, इतिहास, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों के मामले में स्थानीय लोगों के अल्पसंख्यक होने के रूप में बताया जा रहा है। अन्य राज्यों में इसे राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के हनन के रूप में देखा जा रहा है। नागरिकता विधेयक में संशोधन पहली बार हुआ है, ऐसा भी नहीं है। अब से पहले 9 बार इसमें संशोधन हो चुका है। लेकिन कभी इस तरह का विरोध नहीं देखा गया।
इस कानून का असर मुख्य रूप से असम, त्रिपुरा, मेघालय व नगालैंड के कुछ इलाकों तक ही होगा। ईस्टर्न बंगाल फ्रंटियर एक्ट के तहत अरुणाचल प्रदेश को विशेष रियायत मिली हुई है। पार पत्र (इनर लाइन परमिट) की व्यवस्था वाले राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम के अलावा नगालैंड के अधिकांश हिस्सों में इसका असर नहीं होगा। संविधान की छठी अनुसूची में शामिल असम के कई इलाकों के साथ ही नगालैंड, मेघालय, त्रिपुरा के अधिकांश हिस्सों में भी इस कानून का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। पूर्वोत्तर के अधिकांश क्षेत्र जनजातीय इलाके हैं। इसकी वजह से संविधान के जरिये जनजातीय अस्मिता को सुरक्षित रखने के लिए कई तरह के प्रावधान किए गए हैं। ऐसे में नागरिकता संशोधन कानून का प्रभाव एक सीमित इलाकों तक ही होगा।
इस कानून के विरोध की एक मुख्य वजह बहुत पुरानी है। अंग्रेजों ने जब पूर्वोत्तर की सत्ता की बागडोर संभाली तो उन्हें कामकाज करने के लिए अंग्रेजी भाषा जानने वालों को बाहर से लाना पड़ा। उसमें बड़ी संख्या बांग्लाभाषी थे। इसकी वजह से राज्य की मूल भाषा असमिया पर गहरा असर हुआ। बांग्ला भाषा का सरकारी कार्यालयों में उपयोग होने की वजह से स्थानीय लोगों के लिए यह एक बड़ी चिंता बन गई। नतीजतन, भाषा के नाम पर विवाद होने लगा। यह फिलहाल बरकरार है।
1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान बड़ी संख्या में लोग बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) से शरण लेने के लिए भारत में आए थे। युद्ध के बाद उनकी बड़ी संख्या भारत में रह गई। 70 के दशक में स्थानीय लोगों को बड़ी संख्या में घुसपैठ कर आए बांग्लादेशी नागरिकों से अपने अधिकारों की चिंता सताने लगी। जिसकी वजह से लगभग 6 वर्षों तक लंबा असम आंदोलन चला। 1985 में तत्कालीन केंद्र सरकार, असम सरकार, अखिल असम छात्र संस्था (आसू) और ऑल असम गण संग्राम परिषद (एएजीएसपी) के बीच असम समझौता हुआ। उसमें यह उल्लेख था कि 24 मार्च, 1971 की मध्य रात्रि के बाद बांग्लादेश से अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए नागरिकों को बाहर निकाला जाएगा। साथ ही संसाधनों और राजनीति पर स्थानीय लोगों का एकाधिकार होगा।
भावनात्मक मुद्दे को लेकर असम आंदोलन से उत्पन्न हुई असम गण परिषद (अगप) सत्ता में आ गई। राज्य की दो बार सत्ता की बागडोर संभालने के बावजूद अगप असम समझौते को लागू कराने में नाकाम रही। उधर, केंद्र की सरकारों ने भी असम समझौते को लागू करने को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अवैध घुसपैठ का मुद्दा हर बार हावी रहा। इस मुद्दे पर सरकारें बनती और बिगड़ती रहीं। इस बीच राज्य में भाजपा का प्रभाव बढ़ने लगा। भाजपा ने अवैध घुसपैठ और शरणार्थी को अलग नजर से देखने की बात कही। इसका असर राज्य के बराक घाटी में राजनीतिक रूप से दिखा। कांग्रेस भी चुनावों में घुसपैठ और शरणार्थी की बातों को अलग करके उठाने लगी। नतीजतन, बराक घाटी की अधिकांश सीटों पर कांग्रेस को जीत नसीब हुई। वर्तमान समय में भाजपा की केंद्र सरकार ने अपने उन्हीं चुनावी वादों को पूरा करने के लिए नागरिकता संशोधन कानून को संसद के जरिये पारित करा दिया।
इस कानून का विरोध मुख्य रूप से गैर राजनीतिक संगठन आसू, नेसो, अजायुछाप, कृषक मुक्ति संग्राम समिति (केएमएसएस) के अलावा राजनीतिक पार्टियों में कांग्रेस, ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) व वामपंथी पार्टियां कर रही हैं। सही अर्थों में विरोध के स्वर की मुख्य वजह भाषाई दबाव है। लेकिन, इससे भी बड़ा मुद्दा इसके जरिये घुसपैठ कर असम में रहने वाले बांग्लादेशी मुसलमानों को नागरिकता नहीं मिलना है। कांग्रेस, एआईयूडीएफ और वामपंथी पार्टियां सिर्फ इसी वजह से विरोध कर रही हैं कि घुसपैठिए मुसलमानों को भारतीय नागरिकता नहीं मिल पाएगी। यही उनका कोर वोट बैंक हैं। अन्यथा उनके विरोध का कोई कारण नहीं है। विरोध करने वाले अन्य संगठनों में भी अधिकांश ऐसे हैं जो वे भी कमोबेश मुसलमान वाले प्रावधान को लेकर ही दुविधा में हैं। विरोध के स्वर जिन इलाकों में मुखर हो रहे हैं, उनमें कुछ को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर मुस्लिम बहुल इलाके हैं।
इसकी एक वजह हाल ही में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की अद्यतन अंतिम सूची के प्रकाशन को देखने से नजर आती है। एनआरसी में नाम दर्ज कराने के लिए कुल तीन करोड़ 29 लाख से अधिक लोगों ने आवेदन किया था। इसमें से 19 लाख से कुछ अधिक लोगों का नाम एनआरसी में शामिल नहीं हुआ है। आंकड़ों के अनुसार 19 लाख लोगों में से एक तिहाई से अधिक संख्या मुसलमानों की है। एक तिहाई से कम बांग्लादेशी हिंदुओं की है। शेष देश के अन्य हिस्सों से आए नागरिकों की है। ऐसे में यह माना जा रहा है कि इस कानून से हिन्दू बांग्लादेशियों को संभवतः नागरिकता मिल जाएगी। जबकि, अवैध घुसपैठियों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए विदेशी न्यायाधिकरणों का चक्कर लगाना पड़ेगा।
नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वाले संगठनों का कहना है कि सरकार असम को भी इस कानून से बाहर करे। अगर किसी भी नागरिक को नागरिकता देनी है, तो उसे देश के अन्य हिस्सों में ले जाकर बसाए। असम में संसाधनों की कमी के कारण और अधिक इंसानों का बोझ उठाने की क्षमता नहीं है। राज्य में पहले से ही बेरोजगारी व अन्य तरह की समस्याएं विद्यमान है।
उल्लेखनीय है कि असम के ब्रह्मपुत्र घाटी में इस कानून का जोरदार विरोध हो रहा है। उधर, बराक घाटी में इसका पुरजोर समर्थन हो रहा है। कारण बराक घाटी में बांग्लाभाषियों की संख्या अधिक है। बराक घाटी के गैर राजनीतिक संगठन हों या कांग्रेस, वामपंथी व सत्ताधारी पार्टी, सभी एक स्वर से इसका समर्थन करते हैं। नागरिकता संशोधन कानून के बनने के बाद राज्य में आंदोलन लगातार हो रहा है। इसका राज्य की आर्थिक-सामाजिक स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। इससे सबसे बड़ा नुकसान शिक्षा का होगा। असम आंदोलन के दौर में भी एक पीढ़ी की शिक्षा पूरी तरह से बर्बाद हो गई थी। इस समस्या का जल्द समाधान नहीं हुआ तो राज्य के युवाओं का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)