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सदन में सार्थक चर्चा का संवैधानिक महत्व

👤 mukesh | Updated on:19 Jan 2020 6:22 AM GMT

सदन में सार्थक चर्चा का संवैधानिक महत्व

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- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

संसद व विधानमंडल में सार्थक व सकारात्मक चर्चा को ही उचित माना जाता है। इसमें पक्ष-विपक्ष के विचार स्वभाविक हैं। लेकिन समाज व राष्ट्रहित से विषयों पर एक प्रकार की सहमति भी होनी चाहिए। सदस्यों को अपनी क्षमता में विकास का प्रयास करना चाहिए, जिससे वह किसी विषय पर उपयोगी विचार व्यक्त कर सकें। सिर्फ हंगामा किसी का मकसद नहीं होना चाहिए। राष्ट्रमण्डल संसदीय संघ सम्मेलन में ऐसी अनेक समस्याओं पर विचार किया गया। उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित ने विधि निर्माण की वैदिक परंपरा का उल्लेख किया। उस समय सभा समिति होती थी। सदस्यों से अपेक्षा रहती थी कि भय या पक्षपात के बिना अपने विचार व्यक्त करें। इनके प्रस्तावों के आधार पर ही कार्यपालिका नियमों का निर्धारण करती थी। विधानसभा अध्यक्ष ने संसदीय संघ समारोह को अद्भुत, अनूठा और अद्वतीय बताया।

संसदीय व्यवस्था की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का अपना महत्व है। यहां की कार्यप्रणाली पर भारत ही नहीं राष्ट्रमण्डल देशों तक की दिलचस्पी रहती है। सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से भी उत्तर प्रदेश का विश्व में विशिष्ट महत्व है। यहां दुनिया का सबसे बड़ा मेला कुम्भ लगता है। उत्तर प्रदेश में ही प्रभु राम और कृष्ण जन्मभूमि है। अयोध्या और मथुरा के प्रति आस्था रखने वाले लोग पूरी दुनिया में हैं। यहाँ दुनिया की सबसे प्राचीन नगरी काशी है। उत्तर प्रदेश ने देश को नौ प्रधानमंत्री दिए हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उत्तर प्रदेश की बनारस सीट से सांसद हैं। हृदय नारायण दीक्षित ने कहा कि सदस्यों को सदन के अंदर व बाहर अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। दुनिया में संसदीय प्रणाली में बदलाव व सुधार होते रहे हैं। ऐसे में अनवरत विचार-विमर्श चलना चाहिए। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने इशारों में अभिव्यक्ति की आजादी के अमर्यादित अभियान पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति का अधिकार मिलता है लेकिन यह निर्बाध या अमर्यादित नहीं हो सकता। इस अधिकार की भी समाज हित में एक सीमा होती है। समाज व राष्ट्र के हितों पर हमलों की आजादी किसी को नहीं होती। जनप्रतिनिधियों को इस दिशा में भी विचार करना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक सांसद और विधायक राष्ट्र के आदर्शों, आशाओं और विश्वास का अभिरक्षक भी होता है।

इसी के साथ सदन को निर्बाध रूप से चलाने में पक्ष-विपक्ष दोनों को सहयोग करना चाहिए। व्यवधानों से लोकतान्त्रिक संस्थाओं के कार्यकरण की निर्धारित प्रक्रिया अवरूद्ध होती है। लोकतंत्र की मूल भावना के प्रति लोगों की आस्था भी आहत होती है। व्यवधानों से सदन की कार्यक्षमता व सार्थक चर्चा पर प्रतिकूल असर होता है। संसदीय लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने वाले आचरण से बचने की आवश्यकता है। भारत के संसदीय तंत्र ने उच्च प्रतिमान स्थापित किये हैं। अनेकों उपलब्धियां दर्ज की। निर्वाचन में लोगों की भागीदारी उत्साहजनक रही है। इसी के साथ जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी भी बढ़ी है। संसदीय चर्चा के स्तर से मर्यादा बढ़ती है।

संसदीय वाद-विवाद निर्धारित नियमों के अधीन होना चाहिए। लोकतंत्र में निर्वाचित प्रतिनिधि सरकार और जनता के बीच सेतु का काम करते हैं। जनहित से जुड़े मुद्दों पर सदन में चर्चा होनी चाहिए। नीति निर्धारण विधायिका को अपने योगदान के प्रति सजग रहना चाहिए। सदन की चर्चा में आम नागरिकों के सरोकार शामिल रहने चाहिए। बजट पर संसद और विधानसभाओं में सार्थक चर्चा होनी चाहिए। संसदीय समितियों की भूमिका के महत्व को भी समझना चाहिए। समितियां सरकार के बजट, नीतियों, कार्यक्रमों, योजनाओं, परियोजनाओं एवं उसके कार्यान्वयन का मूल्यांकन करती हैं। सदस्यगण दलगत सीमाओं से ऊपर उठकर सुझाव देते हैं। ये समितियां पारदर्शिता और जवाबदेही के अनुरूप कार्य करती हैं।

सदस्यों को नियमों, प्रक्रियाओं व संवैधानिक प्रावधानों की पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। संसद और विधानमंडलों की भूमिका को विस्तृत और प्रभावी बनाने की जरूरत है। योगी आदित्यनाथ ठीक कहा कि भारत ने हमेशा राष्ट्रमंडल के लोकतांत्रिक मूल्यों, आदर्शों और सिद्धांतों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई है। भारत शांति, सौहार्द और प्रजातांत्रिक मूल्यों का समर्थन करता रहा है। अनेकता में एकता ही भारत की विशेषता है।

हृदय नारायण दीक्षित ने सम्मेलन को भारतीय चिन्तन की धरातल पर चित्रित किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रमंडल संसदीय संघ भारतीय प्राचीन संसदीय दर्शन के अनुरूप है। भारत में प्राचीनकाल से ही लोकतांत्रिक मूल्य तथा संस्थायें सृदृढ़ रही हैं। यहाँ की परम्पराओं ने लोकतांत्रिक आदर्शों एवं प्रतिनिधिक संस्थाओं के प्रति निष्ठा बनाये रखी है। सभा और समिति यहाँ ऋग्वैदिक काल से ही विद्यमान हैं। इसलिए लोकतंत्र भारत की प्रकृति और प्रवृत्ति है। लोकतंत्र का स्वरूप लगातार विस्तृत हो रहा है और भारत जैसे विकासशील देशों में नवीन संसदीय परम्पराओं का निरंतर विकास हो रहा है। विधायी संस्थाएँ अपनी परम्परागत भूमिकाओं के अतिरिक्त अन्य विभिन्न क्षेत्रों में भी क्रियाशील हो रही हैं। ऐसे में जनप्रतिनिधियों की भूमिका भी व्यापक और बहुमुखी होना स्वाभाविक है। बजट पर समग्र विचार के लिए अपेक्षित जानकारी होनी चाहिए। तकनीकी शब्दावली, सामाजिक-आर्थिक संकेतकों को भी समझना चाहिए। तकनीकी विशेषज्ञों की भूमिका तय होनी चाहिए। जिससे वित्तीय नियमों, नियंत्रक और महालेखाकार के प्रतिवेदनों और बजट से सम्बन्धित अन्य तकनीकी आयामों से सदस्यों को अवगत कराया जा सके।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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