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शिक्षा का बाजारवाद

👤 mukesh | Updated on:20 Jan 2020 6:43 AM GMT

शिक्षा का बाजारवाद

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- ऋतुपर्ण दवे

शिक्षा में बाजारवाद बेहद खतरनाक है। बावजूद इसके बढ़ता निजीकरण, व्‍यवसायीकरण को बढ़ा रहा है जो बेहद दुर्भाग्‍यपूर्ण है। भारत में सबसे ज्यादा दयनीय स्थिति सरकारी शिक्षा व्यवस्था की है, उसमें भी सबसे बदहाल प्राथमिक शिक्षा है। कमोबेश पूर्व माध्यमिक, माध्यमिक और उच्चत्तर माध्यमिक शिक्षा की स्थिति प्राथमिक शिक्षा पर ही टिकी होती है, जिससे पूरी शिक्षा व्यवस्था के हालात को समझा जा सकता है। सरकारी शिक्षा को लेकर ठोस नीति और गहरी चिन्ता का अभाव है। हाँ एक बात जरूर देखी जा रही है जिसमें शिक्षा प्रणाली प्रयोगों के दौर से गुजर रही है। बच्चों को पढ़ाने से ज्यादा शिक्षक पोर्टलों में फीडिंग और कागजों के लेखा-जोखा के तनाव से गुजर रहे हैं। जिसका असर गुणवत्ता पर पड़ता है। नित नए फरमानों और अमल की सख्ती ने गुणवत्ता को प्रभावित किया है।

किसी भी देश के विकास के लिए उसकी शिक्षा का दुरुस्त होना सबसे जरूरी है। विश्व बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि भारत उन 12 देशों की सूची में दूसरे क्रम पर है, जहाँ दूसरी कक्षा के छात्र एक छोटे-से पाठ का एक शब्द भी नहीं पढ़ सके। इसमें पहले क्रम पर मलावी है। विश्व बैंक ने माना है कि बिना ज्ञान के शिक्षा न केवल विकास के अवसर को रौंदना है बल्कि दुनिया भर के बच्चों और युवाओं के साथ अन्याय भी है। 26 सितंबर 2017 को इस संबंध में जारी रिपोर्ट में लिखा है इन देशों में लाखों युवा छात्र बाद के जीवन में कम अवसर और कम वेतन की आशंका का सामना करते हैं क्योंकि उनके प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल उन्हें जीवन में सफल बनाने की शिक्षा देने में विफल रहे।

सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के बीच बढ़ती खाई के चलते पढ़ाई अमीरों के लिए शिक्षा तो गरीबों के लिए साक्षरता के बीच पेण्डुलम बनकर रह गई है। वर्ल्ड डवलपमेण्ट रिपोर्ट 2018 यानी विश्व विकास रिपोर्ट में लर्निंग टू रियलाइज एजुकेशंस प्रॉमिस में भारत में तीसरी कक्षा के तीन चौथाई छात्र दो अंकों को घटाने वाले सवाल हल नहीं कर पाए और पाँचवीं कक्षा के आधे छात्र ऐसा नहीं कर सके यानी अधिकांश विद्यार्थी पठन दक्षता के न्यूनतम स्तर पर थे। ऐसे विद्यार्थी आगे बने रहेंगे तब भी प्राइवेट स्कूलों के साधन संपन्न विद्यार्थियों की तुलना में इनका स्तर न्यूनतम ही रहेगा। यही कारण है कि गरीब परिवारों से आने वाले बच्चों का औसत प्रदर्शन, संपन्न परिवारों से आने वाले बच्चों की तुलना में कम होता है। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के 1300 गांवों में प्राथमिक विद्यालय के औचक निरीक्षण के दौरान 24 प्रतिशत शिक्षक अनुपस्थित पाये गये। जबकि शहरों में तैनाती के लिए वर्चस्व और प्रभाव के चलते सरकारी शिक्षकों में अघोषित लेकिन श्रेष्ठता को लेकर दो धड़े बन गए हैं, जिसमें ग्रामीण इलाकों में तैनात शिक्षक खुद को दोयम दर्जे का पाता है।

मजबूरी कहें या कुछ और देखने में आता है कि प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या काफी कम होती है और खर्च बेहद ज्यादा। विषयवार शिक्षकों का असंतुलन अलग से है। जिससे प्रायः अतिथि शिक्षकों का सहारा लेना पड़ता है। तमाम रिपोर्टें बताती हैं कि बच्चे तय गुणवत्ता को हासिल नहीं कर पाते हैं क्योंकि नियमित शिक्षकों की तुलना में हर दृष्टि से कमजोर अतिथि शिक्षक की दक्षता, शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। लेकिन सच यह है कि हमारी प्राथमिक, पूर्व माध्यमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक सरकारी शिक्षा इन्हीं के दम पर चल रही है।

शहरों व ग्रामीण स्कूलों में हर कहीं अक्सर ऐसे शिक्षक मिल जाते हैं जिनकी रुचि पढ़ाने से ज्यादा स्कूल के दफ्तरी कामों में ज्यादा होती है। संस्था प्रमुख भी इन शिक्षकों को बाबूगिरी में झोंक देते हैं और उस विषय की पढ़ाई प्रभावित होती है। कई जगह दफ्तरी काम करने वाले शिक्षक, हाथ में बिना चाक उठाए और कक्षा में गए पदोन्नत तक हो जाते हैं क्योंकि ये कार्यालयीन काम जैसे खण्ड या जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय, कोषालय जाना या कम्प्यूटर ऑपरेटर का काम करते हैं। इस तरह अक्सर शिक्षक होकर भी गैर शिक्षकीय कामों में जुटे रहते हैं और अध्यापन को संस्था प्रमुख की शह पर खुलेआम धता बताते हैं। देखने में आया है कि इस तरह के शिक्षक अतिरिक्त कमाई के लालच में अपने मूल लक्ष्य से भटक जाते हैं। संकुल, जनपद, खण्ड इकाई के विद्यालयों में खुद के वाट्सएप ग्रुप का भी चलन खूब है। जिसमें शिक्षकों को सीधे आदेश व जानकारी भेजी जाती है लेकिन यह काम संस्था प्रमुख, जनशिक्षक, दफ्तरी या लिपिक न भेजकर वही शिक्षक भेजते हैं, जो पढ़ाने के बजाए दूसरा काम करते हैं। इससे उस क्षेत्र की संस्थाओं और वहां तैनात शिक्षकों में इनकी पकड़ बन जाती है, जिसको किसी न किसी रूप में ये भुनाते हैं। कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें दफ्तर का काम करने वाले शिक्षक बैंकिंग, बीमा, आरडी, कियोस्क जैसे अलग ही कारोबार जमा लेते हैं।

स्कूलों के शिक्षक विहीन होने की बात सबको पता है लेकिन प्राचार्य नहीं होने की जानकारी सभी को अमूनन नहीं होती। नीति आयोग की विद्यालय शिक्षा गुणवत्ता सूचक की प्रथम रिपोर्ट भी बताती है कि मप्र में 62 प्रतिशत तो बिहार में 80, झारखण्ड में 76, तेलंगाना में 65, छत्तीसगढ़ में 46 प्रतिशत स्कूलों में प्राचार्य नहीं हैं। ऐसे में एक प्राचार्य के कंधे पर कई विद्यालयों का प्रभार दे दिया जाता है। फिर देखा जाता है कि प्राचार्य नियमित रूप से विद्यालय नहीं आते हैं। ऐसे में कल्पना की जा सकती है कि उस विद्यालय की क्या दशा होगी जिसका कोई अपना मुखिया न हो?

सरकारी स्कूलों की चरमराती व्यवस्था के लिए आरटीई भी कुछ जवाबदेह है, जहाँ 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में प्रवेश देना ही है। इस तरह यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकारें खुद सरकारी स्कूलों के लिए दोहरा मानदण्ड अपनाती हैं। जबकि थोड़े से फण्ड और प्रयासों से सरकारी व्यवस्थाएं बेहतर हो सकती हैं, जिसमें हर सरकारी स्कूल को आर्टिफीशियल इण्टेलीजेंस के जरिए कैमरे और ब्रॉडबैण्ड से लैस कर दिया जाए जो जनपद, जिला, संभाग व राज्य के शिक्षा कार्यालयों से जुड़े हों और वहां बैठा कोई भी अधिकारी औचक रूप से कभी भी किसी विद्यालय की स्थिति से रू-ब-रू हो सके या सीसीटीवी रिकॉर्ड खंगाल सके। इससे जहां व्यवस्था तो सुधरेगी ही शिक्षकों, विद्यार्थियों की उपस्थिति भी बढ़ेगी और दक्षता में भी सुधार होगा। जिस स्कूल का हर महीने लाखों का बजट होता है वहां क्या केवल वन टाइम इन्वेस्टमेण्ट के बाद भवन, फर्नीचर और आर्टीफीशियल इण्टेलीजेंस के लिए चंद हजार रुपयों से बेहतर व्यवस्था नहीं बनायी जा सकती है? केन्द्र और राज्य सरकारें मध्यान्ह भोजन, पुस्तक, ड्रेस, वजीफा आदि में करोड़ों खर्च करती हैं, वहीं थोड़े से खर्च पर बेहतर व्यवस्था बनायी जा सकती है जिससे शिक्षा का बाजारवाद थमेगा और यह शिक्षा क्रान्ति जैसी बात होगी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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