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महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता बनाने वाले नेताजी

👤 mukesh | Updated on:21 Jan 2020 7:34 AM GMT

महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता बनाने वाले नेताजी

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23 जनवरी नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जन्मदिन पर विशेष

- प्रमोद भार्गव

भारत समेत दुनिया में नेता तो बहुत हैं, लेकिन सुभाष चंद्र बोस उन विरले नेताओं में शुमार हैं, जिनके एक संबोधन ने मोहनदास करमचंद गांधी को भारत का 'राष्ट्रपिता' बना दिया। जी हां..! गांधी से मतभेद होने के बावजूद आजाद हिंद फौज के प्रधान सेनापति के रूप में 4 अगस्त 1944 को रंगून रेडियो से नेताजी ने महात्मा गांधी के नाम एक अपील जारी करते हुए कहा था, 'भारत की स्वतंत्रता का अंतिम युद्ध प्रारंभ हो चुका है। आजाद हिंद फौज की सेनाएं आज बहादुरी से भारत की धरती पर लड़ रही हैं। अनेक परेशानियों और कठिनाइयों के बावजूद धीरे-धीरे स्थिर गति से आगे बढ़ रही हैं। यह सशस्त्र संघर्ष तब तक जारी रहेगा, जब तक कि अंतिम ब्रिटेनवासी को भारत से खदेड़ नहीं दिया जाता है। 'हे राष्ट्रपिता!' भारत की स्वाधीनता की इस पवित्र लड़ाई में हम आपका आशीर्वाद और आपकी शुभकामनाएं चाहते हैं। जय हिंद!' इसके बाद से देश की जनता ने गांधी को 'राष्ट्रपिता' पुकारना शुरू कर दिया। गांधी से मतभेद होने के बावजूद नेताजी उन्हें सबसे ज्यादा सम्मान देते थे।

त्रिपुरी अधिवेशन 1938 में जबलपुर में हुआ था। यहां कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होना था। गांधी जी नेताजी को दोबारा अध्यक्ष बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। इसके लिए नेताजी ने प्रस्ताव रखा कि यदि आचार्य नरेंद्र देव को उम्मीदवार बनाया जाता है तो वे पीछे हट जाएंगे। दरअसल नेताजी और आचार्य एक ही विचारधारा के अनुयायी थे लेकिन समझौता नहीं हुआ। गांधी ने पट्टाभि सीतारामैया को अपने उम्मीदवार के रूप में खड़ा कर दिया। नेताजी भी नहीं माने। मतदान के बाद जब परिणाम सामने आए तो नेताजी बहुमत से पुनः अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष चुन लिए गए। गांधी व नेताजी के ये मतभेद इतने मुखर हो गए कि इससे कांग्रेस बुरी तरह हिल गई। अंत में कार्यसमिति के प्रश्न पर ये मतभेद इस हद तक पहुंच गए कि सुभाष बाबू को अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा। अलबत्ता नेताजी ने कांग्रेस के भीतर ही 1939 में एक सहयोगी संगठन फारवर्ड ब्लाॅक की स्थापना कर डाली। किंतु इसमें शामिल हुए लोग योग्य व कर्मठ नहीं थे। अंततः परिणाम यह निकला कि नेताजी ने कांग्रेस ही छोड़ दी। चूंकि नेताजी में अदम्य देशभक्ति थी, इसलिए वे आजादी की लड़ाई के प्रति आक्रामक रुख दर्शाते रहे।

सितंबर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया था। नेताजी इस युद्ध की घोषणा पहले ही कर चुके थे। वे इस युद्ध में कांग्रेस के हस्तक्षेप के साथ अंग्रेजों का तख्ता पलटने की मंशा पाले हुए थे। किंतु कांग्रेस तत्काल कुछ भी करने में असमर्थ रही। हां, मंत्रिमंडलों से इस्तीफा जरूर दे दिया। इसके बाद मार्च 1940 में रामगढ़ कांग्रेस सम्मेलन हुआ। इस समय कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अब्दुल कलाम आजाद थे। नेताजी ने इसी के समानांतर रामगढ़ सम्मेलन के विरोध में सम्मेलन किया। जो बहुत सफल रहा। हां, नेताजी के दबाव में कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार से प्रश्न किया कि 'वह बताए इस युद्ध का उद्देश्य क्या है। यदि युद्ध का उद्देश्य लोकतंत्र की रक्षा है तो भारत में लोकतंत्र की स्थापना होनी चाहिए, तभी भारत इस लड़ाई में खुलकर सामने आ सकता है।' किंतु ब्रिटिश सरकार ने कोई उत्तर नहीं दिया। नेताजी इस सम्मेलन का हश्र जानते थे, इसीलिए वे इस समझौते के विरुद्ध थे।

नेताजी फिरंगी हुकूमत के युद्ध अपराधी थे, इसलिए उन्हें उनके घर पर ही नजरबंद कर दिया गया था। इस समय नेताजी विचित्र द्वंद्व से गुजर रहे थे। उन्हें बोध हो रहा था कि केवल आहिंसात्मक उपायों से स्वतंत्रता असंभव है। नेताजी इस युद्ध को भारतीय आजादी के लिए एक अवसर के रूप में देख रहे थे, क्योंकि इस समय ब्रिटिश हुकूमत कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रही थी इसलिए आंतरिक रूप से कमजोर थी। नेताजी कमजोर कड़ी पर चोट करने के इच्छुक थे। इसी इच्छा को अंजाम तक पहुंचाने की अदम्य इच्छा पाले हुए नेताजी जनवरी 1941 को पुलिस की आंखों में धूल झोंकते हुए नौ दो ग्यारह हो गए। नेताजी पेशावर होते काबुल पहुंचे। काबुल में उन्हें राष्ट्रभक्त उत्तमचंद का साथ मिला। यहां से इटली दूतावास की मदद से मास्को होते हुए 18 मार्च को रवाना होकर 28 मार्च को नेताजी जर्मन की राजधानी बर्लिन पहुंच गए। यहां उन्होंने एक सैनिक जत्था बनाया लेकिन उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। इसी समय समाचार मिला कि सिंगापुर में पकड़े गए भारतीय सैनिकों की एक सेना बनाई जा गई है। रासबिहारी प्रथम विश्वयुद्ध के समय भारत और भारत के बाहर क्रांति का प्रयास कर चुके थे। रासबिहारी ने एक जापानी महिला से शादी की थी इसीलिए उन्हें जापानी नागरिकता मिल गई थी। रासबिहारी बूढ़े हो रहे थे। उन्हें जब सुभाष के बर्लिन में होने की खबर मिली तो संदेश भिजवाया कि आप यहां आकर इस सेना का नेतृत्व करें। नेताजी भी यही वाहते थे। दरअसल नेताजी जब अपने ही घर में नजरबंदी काट रहे थे, तब उन्होंने विदेशों में स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत भारतीयों की जानकारी प्राप्त कर ली थी, जिससे जरूरत पड़ने पर मदद ली जा सके। हिटलर ने नेताजी को पनडुब्बी में सिंगापुर भेजने की व्यवस्था की।

2 जुलाई 1943 को नेताजी सिंगापुर हवाई अड्डे पर पहुंचे। यहां उनका भारतीय नागरिकों और भारतीय राष्ट्रीय सेना के उच्च अधिकारियों ने जोश के साथ स्वागत किया। उन्हें सैनिक सलामी दी गई। दरअसल, नेताजी के सिंगापुर पहुंचने के पहले ही जापान एक शाक्तिशाली राष्ट्र के रूप में पेश आ गया था। उसका अनेक फिरंगी हुकूमत वाले देशों पर आधिपत्य हो गया था। इस दौरान ब्रिटिश फौज के रूप में लड़ रहे कई सैनिक जापान के हाथ आ गए थे। रासबिहारी बोस ने इन्हीं सैनिकों को साथ लेकर आजाद हिंद फौज बनाने की ठान ली। इस लक्ष्यपूर्ति के लिए जून 1942 में पूर्वी एशिया के भारतीयों का एक सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसकी अध्यक्षता रासबिहारी ने की। यहीं कप्तान मोहनसिंह के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज के गठन का प्रस्ताव भारतीयों के समक्ष रखा गया। अपनी मातृभूमि को फिरंगी हुकूमत की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए 35 हजार भारतीय तुरंत सहमत हो गए। परंतु 16 हजार सैनिकों को लेकर आजाद हिंद फौज 1 सितंबर 1942 को बाकायदा अस्तित्व में आ गई।

नेताजी जब जापान पहुंचे तो पहले तोजो से मिले। इस मुलाकात में जापान के रक्षा व विदेश मंत्री भी शामिल हुए। नेताजी ने यहां तोजो से दो टूक प्रश्न किया, 'क्या जापान भारत के स्वाधीनता आंदोलन को बिना शर्त मदद करने को तैयार है ?' तोजो ने तत्काल सहमति जता दी। नेताजी ने जापान पहुंचने से पहले ही रासबिहारी से यह पुछवा लिया था कि क्या वे और उनकी सेना उनका नेतृत्व स्वीकारने को तैयार है। इसका उत्तर हां में मिलने के बाद ही नेताजी सिंगापुर के लिए रवाना हुए थे। यहां रासबिबहारी ने एक विशाल आमसभा कैथ सिनेमा में आयोजित करके नेताजी को 8 जुलाई 1943 को आजाद हिंद फौज की कमान सौंप दी। नेताजी ने इसी दिन 'दिल्ली चलो' का नारा लगाते हुए कहा, 'हमारा लक्ष्य दिल्ली के लाल किले पर तिरंगा फहराना है। हालांकि यह कार्य एक तो आसान नहीं है, दूसरा कांटों से भरा है'। नेताजी ने यहीं जय हिंद का नारा दिया। तिरंगा झंडा भी इसी समय राष्ट्रीय झंडे के रूप में स्वीकार किया गया। नेताजी ने कप्तान सहगल, शहनबाज और जीएस ढिल्लन के नेतृत्व में सैनिकों को कमानें सौंप दी। कप्तान लक्ष्मी सहगल के नेतृत्व में झांसी की रानी रेजीमेंट का गठन किया। यह भारत की पहली महिला सेना थी, जिसने स्वतंत्रता संघर्ष में अभूतपूर्व योगदान दिया।

नेताजी महात्मा गांधी और कांग्रेस के प्रति कितना सम्मान रखते थे, इसकी जानकारी नवबंर 1943 सिंगापुर रेडियो पर दिए भाषण में मिलती है। उन्होंने कहा था, 'हम मातृभूमि की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं। स्वतंत्र भारत में कैसी सरकार गठित की जाए और उसकी नीति क्या हो, इसका निर्णय करने का अधिकार अखिल भारतीय कांग्रेस को ही होगा। इस सफलता के लिए हमें महात्मा गांधी का आशीर्वाद चाहिए।

31 दिसंबर 1943 को नेताजी सेना का नेतृत्व करते हुए अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पहुंचे और इसे अंग्रेजों से स्वतंत्र कराया। यहां से नेताजी रंगून पहुंचे। यहां आईएनए की अग्रिम कमान स्थापित की। यहां रहने वाले भारतीयों से स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए धन का भी संग्रह किया। यहां से यह सेना वर्मा पहुंची। 4 फरवरी 1944 को फिरंगियों से हुई लड़ाई के बाद अराकान पर कब्जा कर लिया। यह सेना 11 मार्च 1944 को भारतीय सीमा में घुसी चली आई और 8 मोर्चो पर एक साथ लड़ते हुए कोहिमा व इम्फाल को अपनी अधीन ले लिया। 14 अप्रैल 1944 को मणिपुर के मोइरंग को अपने अधीन कर लिया। यहां स्वयं नेताजी ने युद्धभूमि में लड़ते हुए सैनिकों की हौसला-अफजाई की और अपने ही हाथों से ध्वज फहराया। इस दुर्गम क्षेत्र में लगातार दो माह संघर्षरत रहते हुए सैनिकों को घास व पत्ते खाकर समय गुजारना पड़ा था।

नेताजी की इन सफलताओं के परिप्रेक्ष्य में ही अंग्रेज देश को आजाद करने की योजना को अंजाम देने लग गए थे। जून 1945 में लार्ड वेबल ने कांग्रेस के सामने प्रस्ताव रखा कि 'यदि कांग्रेस युद्ध में अंग्रेजों का साथ दे तो कुछ भारतीय वाइसराय की कार्यकारिणी में शामिल कर लिए जाएंगे।' नेताजी को इस प्रस्ताव का पता चला तो उन्होंने सिंगापुर रेडियो से हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी में गांधी के नाम एक संदेश प्रसारित करते हुए कहा कि 'वह लार्ड लेबल के साथ कोई संधि न करें, बल्कि तब तक इंतजार करें, जबतक ब्रिटेन में मजदूर दल की सरकार नहीं बन जाती।' बावजूद जून 1945 में लार्ड वेबल ने शिमला में एक सम्मेलन आयोजित कर भारत की आजादी की रूपरेखा प्रस्तुत की। इसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता बुलाए गए। इसका अधिकांश कांग्रेसियों ने विरोध किया। क्योंकि इस प्रस्ताव के तहत जो कार्यकारिणी बनाई जानी थी, उसमें मुस्लिमों की संख्या भी हिंदू सदस्यों के बराबर रखने का प्रस्ताव था, जिसने देश के विभाजन और पाकिस्तान की नींव डाल दी थी।

यही वह समय था, जब परिस्थितियां नाटकीय ढंग से बदलने लगीं। 12 अगस्त 1945 को नेताजी को सूचना मिली कि जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया है। नेताजी तुरंत सिंगापुर पहुंचे। 16 अगस्त को वे कर्नल हबीबुर्ररहमान, कर्नल प्रीतम सिंह और एसए अय्यर के साथ एक बमवर्षक विमान से बैंकाॅक पहुंचे। 17 अगस्त की सुबह सैगोन पहुंचे। यहां से नेताजी एक अन्य बमवर्षक विमान से उड़े। उनके साथ कर्नल रहमान भी थे। यह विमान फारमूसा द्वीप में दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें नेताजी का निधन हो गया।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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