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न्यायिक प्रक्रिया में सुधार की जरूरत

👤 mukesh | Updated on:23 Jan 2020 6:20 AM GMT

न्यायिक प्रक्रिया में सुधार की जरूरत

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-लालजी जायसवाल

न्यायिक प्रक्रिया में सुधार की लंबे समय से जरूरत महसूस की जा रही है। लोगों को जल्द न्याय मिल सके, इसके लिए यह बेहद जरूरी है। लोकतंत्र का दम भरने वाली सरकारें अक्सर सशक्त और स्वतंत्र न्यायतंत्र को पसंद नहीं करतीं। सिद्धांतहीन व्यवस्था ऐसी न्याय प्रणाली चाहती है जो चुनावी वादों को पूरा करने में रोड़ा न बने।न्यायतंत्र को धमकाने का भी प्रयास भी किया जाता है। भारत में न्यायालय पर अंकुश लगाने के भले ही उग्र साधन न अपनाए गए हों,लेकिन कार्यपालिका उस पर नियंत्रण का पूरा प्रयास करती है। इसे न्यायपालिका को आवंटित बजट से समझा जा सकता है। वर्ष 2017-18 के आम बजट में न्यायपालिका को 1,744 करोड़ रुपये आवंटित हुए थे। यह कुल बजट का मात्र 0.4 प्रतिशत था।

दिल्ली एकलौता ऐसा राज्य है, जहां न्यायपालिका पर सबसे अधिक पैसा खर्च किया जाता है। दिल्ली अपने कुल बजट का 1.9 फीसद न्यायपालिका पर खर्च करता है। बाकी राज्य एक फीसद भी खर्च नहीं करते। देश में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) का 0.08 फीसदी हिस्सा ही न्यायपालिका पर खर्च किया जाता है। अगर न्याय देने की प्रक्रिया में देश के आबादी की भूमिका देखें तो यह एक तिहाई से भी कम है। अदालतों में महज 26.5 फीसद महिला न्यायाधीश हैं। पुलिस बल में महज महिलाओं का फीसद मात्र सात है। 'इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2019' में न्यायिक और पुलिस व्यवस्था में महिलाओं की समुचित भागीदारी न होने पर चिंता जताई जा चुकी है।न्यायपालिका को कम सहायता मिलने का असर विदेशी निवेश पर भी पड़ा है। 'वर्ल्ड बैंक की इज ऑफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स 2019' की रैंकिंग में 14 पायदान ऊपर चढ़ने के बावजूद भी भारत में महज एक कॉन्ट्रैक्ट लागू करने में औसतन चार साल का समय लगता है। वर्ष 2016-17 में यह अनुमान लगाया गया था कि अदालती कामकाज में देरी की वजह से देश को सालाना अपनी जीडीपी का लगभग 0.5 फीसदी यानी कि 7.5 बिलियन डॉलर का बड़ा नुकसान उठाना पड़ा था। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि एक कमजोर न्याय प्रणाली आगे चलकर आर्थिक वृद्धि को भी नुकसान पहुंचाती है।

'आस्ट्रेलियन थिंक टैंक इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स ऐंड पीस' की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक इंसाफ देने और कानून को कायम रखने में नाकामी से भारत में अपराध और हिंसा में बढ़ोतरी होती है। इसकी वजह से भारत को अपनी जीडीपी का लगभग नौ फीसदी के बराबर का नुकसान उठाता पड़ता है। वर्ष 2018 में देश में कुल जजों की संख्या स्वीकृत संख्या से बहुत कम थी। सभी स्तरों पर खाली स्वीकृत पदों में 23.25 फीसदी थे। वर्ष 2016-17 में उच्च न्यायालयों में जजों के 42 फीसदी और निचली अदालतों में 23 फीसदी पद खाली थे। अगर पूरे भारत के न्यायालयों में लंबित मामलों पर ध्यान दिया जाए तो यह आंकड़ा 3.4 करोड़ को भी पार करता हुआ नजर आता है।

दुनिया के विकसित देशों में स्थिति ठीक इसके उलट है। आस्ट्रेलिया में प्रति दस लाख आबादी पर 42, कनाडा में 75, ब्रिटेन में 51और अमेरिका में 107 जज हैं। भारत में दस लाख आबादी पर 11 जज हैं। अगस्त 2019 में उच्च न्यायालयों में 409 पद खाली थे। हाल यह है कि देश की अदालतों में लगभग तीन करोड़ मामले लंबित हैं। एक अनुमान के अनुसार अगर हमारे न्यायाधीश हर घंटे 100 मामले में भी निपटाएं तो इस ढेर को खत्म करने में लगभग 35 साल लगेंगे।

एक और विडंबना है कि मुंबई उच्च न्यायालय में एक सिविल रिवीजन याचिका का निपटारा लगभग 77 दिन में हो जाता है,जबकि सिविल अपील के निपटारे में लगभग 2303 दिन लगता है। सवाल जायज है कि आखिर ऐसा क्यों है? इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। न्याय प्रणाली में वकीलों की भूमिका और अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। वे प्रायः न्यायाधीश और याचिकाकर्ता के बीच मध्यस्थता का कार्य करते हैं। दुर्भाग्य से भ्रष्टाचार की बेल ने उन्हें भी जकड़ लिया है। क्षतिपूर्ति वाले मामले में अक्सर वकील अपना हिस्सा मागते हैं। 'एडवोकेट अधिनियम 1961' से पहले वकीलों पर अंकुश था। अनुशासनात्मक कार्यवाही करने का अधिकार न्यायालयों के पास था। त्वरित न्याय के पक्षधर चाहते हैं कि अब न्यायालयों को यह अधिकार वापस दिया जाए। साथ ही कंप्यूटरीकरण की प्रक्रिया सिर्फ डाटा एकत्रीकरण पर केंद्रित न होकर न्यायाधीशों को अन्य तरह से सहयोग करने के लिए भी हो। चीन में 'रिसर्च इंस्टीट्यूट' ने एक ऐसा सॉफ्टवेयर बनाया है जिसमें 300 न्यायाधीशों को डेढ़ लाख मामले सुलझाने में मदद करके उनके काम को एक तिहाई कर दिया है।

संविधान के अनुच्छेद 130 के अनुसार, उच्चतम न्यायालय को देश के अन्य भागों में भी विशेष न्यायालय आयोजित करने की सलाह दी गई थी,परंतु काम की अधिकता के कारण अभी यह हो पाना संभव नहीं हो सका है। इसी कारण छोटे मामले तक उच्चतम न्यायालयों के चौखट तक पहुंच चुके हैं।

(लेखक स्वंत्रत टिप्पणीकार हैं।)

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