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ध्वनि तरंगों से रोग-नियंत्रण के वैज्ञानिक उपाय

👤 mukesh | Updated on:30 March 2020 7:21 AM GMT

ध्वनि तरंगों से रोग-नियंत्रण के वैज्ञानिक उपाय

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- प्रमोद भार्गव

नोवेल कोरोना वायरस यानी कोविड-19 के पूरी दुनिया में फैलने के बाद यह साफ हो गया है कि यह विषाणु उनलोगों पर ज्यादा हमलावर हो रहा है, जिनकी प्रतिरोधात्मक क्षमता कम है। ऐसे लोगों में 60 साल की उम्र से ज्यादा के बुजुर्ग और 10 साल से कम आयु के बच्चे शामिल हैं। अभीतक कोरोना से पीड़ित जितने भी लोगों की मौत हुई है, उनमें 99.9 प्रतिशत लोग इसी आयु वर्ग के हैं। वर्तमान मानव समुदाय की जीवनशैली में रहन-सहन, खानपान संबंधी जो बदलाव आए हैं, उनके चलते मनुष्य तनावग्रस्त हुआ है। नतीजतन उसकी रोगों से लड़ने की प्रतिरोधात्मक क्षमता निरंतर कम हो रही है। हमारे वैदिक ग्रंथों और सनातन जीवनशैली व दिनचर्या में अनेक ऐसे उपाय हैं, जिनके उच्चारण और उनकी ध्वनि तरंगों के प्रभाव में आने से शरीर में अतिरिक्त ऊर्जा का संचार होता है, जिससे स्वाभाविक रूप में प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ती है और विषाणु व जीवाणुओं से लड़ने में प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत होता है। घ्वनि तरंगों से जुड़े ऐसे ही कुछ आसान उपायों को विज्ञान-सम्मत शारीरिक लाभ के संदर्भ में जानते हैं।

वैदिक धर्मग्रंथों के अनुसार पृथ्वी के उत्पत्ति के समय पैदा हुई सबसे पहली ध्वनि 'ॐ' थी। इसने समूचे ब्रह्माण्ड को प्रतिध्वनित कर दिया था। इस ध्वनि के प्रभाव का लोहा आज पूरी दुनिया मान रही है। अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में ऊं के माध्यम से न केवल शारीरिक विकार दूर किए जा रहे हैं, बल्कि नशे के गर्त में डूबे युवाओं को भी उचित राह पर लाया जा रहा है। ब्रिटेन से प्रकाशित 2007 के 'साइंस' जर्नल में एक लंबे शोध के बाद ऊं की महिमा स्वीकार की गई है। यह शोध रिचर्स एंड एक्पेरिमेंट इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोसाइंस के प्रमुख जे माॅर्गन और सहयोगियों द्वारा 2500 पुरुषों व 2000 महिलाओं पर किया गया था। इस निष्कर्ष में खासतौर से ॐ का जाप रामबाण औषधि मानी गई है। इसीलिए हमारे यहां दिनचर्या में शंख फूंकने व घंटा-घड़ियाल बजाने का विधान है। एकबार शंख फूंकने से जहां तक उसकी ध्वनि जाती है, वहां तक बीमारियों के वायुमंडल में मौजूद रोगाणु या तो नष्ट हो जाते हैं या निष्क्रिय। जाने-माने वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु ने इस सत्य को वाद्य-यंत्रों द्वारा प्रमाणित किया था।

दरअसल ऋषि-मुनियों ने बहुत पहले ही जान लिया था कि ॐ के उच्चारण से प्राणवायु (ऑक्सीजन) शरीर के भीतर जाती है। शेष सभी उच्चारणों में प्राणवायु बाहर आती है। ॐ में अंतरनिर्हित अक्षरों में जब हम 'अ' का उच्चारण करते हैं तो हमारे ब्रह्मरंध्र से लेकर कंठ तक स्पंदन होता है। 'उ' के उच्चारण से कंठ से लेकर नाभि तक और 'म' के उच्चारण से नाभि से लेकर पैरों तक का भाग कंपायमान हो उठता है। यह कंपायमान शरीर से रोगों को दूर करता है। ब्रह्मरंध्र के बारे में महाभारत में उल्लेख है। अश्वत्थामा ने जो ब्रह्मास्त्र अभिमन्यु की विधवा उत्तरा गर्भ पर छोड़ा था, उसके प्रभाव से मृत शिशु जन्मा। किंतु यह शिशु वास्तव में मृत नहीं था। ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से शिशु के गले में स्थित ब्रह्मरंध्र के द्वारा जो प्राणवायु मस्तिष्क में जाती है, वह अवरुद्ध हो गई थी। इस कारण श्वांस का आवागमन रुक गया। इस परिस्थिति में यह ब्रह्मरंध्र गले में ही स्थित काकुली में बंद हो जाता है। ऐसा तेज ध्वनि तरंगों के आवेग और क्रोध के संवेग से भी हो जाता है। कृष्ण ने इस बालक के मुंह में अपने मुंह से तीन-चार बार वायु का संचार किया। फलतः बालक रो पड़ा। युधिष्ठिर के बाद प्रजापति नाम के इसी बालक ने हस्तनापुर की गद्दी संभाली थी। दरअसल सृष्टि में जो भी कुछ जड़ व चेतन है, वह ऊर्जा का ही स्वरूप है।

ऋषि-मुनियों ने आदिकाल से ही अग्निहोत्र (यज्ञ-हवन) को जीवनचर्या से जोड़ा है। यजुर्वेद में उल्लेखित मंत्रों से अन्न उत्पादन, अन्न को रसमय बनाने के लिए 'अग्नेय स्वाहा, अग्नेय इंद नमम' व 'प्रजापतये इदं नमम' मंत्र का उल्लेख है। नित्य हवन का यह विद्यान वातावरण को शुद्ध करने की इच्छा के साथ फसलों को रसमय बनाने व पैदावार बढ़ाने के प्रयोग में लाया जाता है। यज्ञ से यह संभावना इसलिए बढ़ती है क्योंकि इस प्रक्रिया से नकारात्मक जीवाणु, विषाणु व किटाणु नष्ट होते हैं। वैज्ञानिक शोधों में पाया गया है कि गाय का घी अदृश्य ऊर्जा का वाहक है। चावल के साथ जलने से इससे ऑक्सीजन, इथोलीन ऑक्साइड एवं फार्मेल्डिहाइड गैसें उत्पन्न होती हैं। फार्मेल्डिहाइड जीवाणुओं के विरुद्ध प्रतिरोधी-शक्ति प्रदान करती है। प्रोपाइलीन ऑक्साइड वर्षा का करण बनती है। गाय के गोबर में एक्सिनोमाइसिटीज नामक सूक्ष्म-जीव बड़ी मात्रा में पाए जाते हैं। नतीजतन इसके धुएं से रोग तो नष्ट होते ही हैं, पेड़-पौधों को भी प्राण ऊर्जा मिलती है।

आजकल मंत्रों में निहित ऊर्जा को पढ़ने की कोशिश मुंगेर के योग विश्वविद्यालय में की जा रही है। दुनिया के चुनिंदा 50 विश्वविद्यालयों के 500 वैज्ञानिक कण-भौतिकी (क्वांटम फिजीक्स) पर शोध कर रहे हैं। इस शोध के केंद्र में 'टेलीपोर्टेशन ऑफ क्वांटम एनर्जी' विषय है। शोध के इस केंद्र में भारतीय योग, ध्यान परंपरा व पूजा-पाठ में उपयोग में लाए जाने वाले वाद्य-यंत्रों से होने वाले 'नाद' का अनुसंधान भी है। इस शोध के दौरान मंत्रों के उच्चरण से उत्पन्न ऊर्जा को क्वांटम मशीन के जरिए मापा भी गया है। शोध के नेतृवकर्ता स्वामी निरंजन सरस्वती का कहना है कि 'क्वांटम मशीन विज्ञान जगत में अपने तरह का अनूठा यंत्र है। इसके सम्मुख जब महामृत्युंजय मंत्र का उच्चारण किया गया तो इतनी अधिक ऊर्जा उत्पन्न हुई कि इसमें लगे मीटर का कांटा अंतिम बिंदु पर पहुंचकर थिरकने लगा। यह गति इतनी तीव्र थी कि यदि यह मीटर अर्द्धगोलाकार की जगह गोलाकार होता तो कांटा कई चक्कर लगा चुका होता। इस नाद या 'घोष' का अर्थ है कि संसार की सभी जड़ एवं चैतन्य सरंचनाएं स्पंदित ऊर्जा की निरंतर क्रियाएं हैं।'

अमेरिका के पर्डयू विश्वविद्यालय के अभियांताओं ने एक ऐसा उपकरण विकसित किया है, जो ऊतक के नमूनों में रोग के स्तर को ध्वनि तरंगों के माध्यम से माप सकता है। यह उपकरण कैंसर की बीमारी को ठीक करने के नए तरीकों को इजात करने में कारगार साबित हो सकता है। यह चिपनुमा उपकरण मानव शरीर में आसपास की कोशिकाओं की संरचना को सख्त बनाने वाले ऊतकों को ध्वनि तरंगों के माध्यम से सुनता है और इस बात का संकेत देता है कि कैंसर ऊतकों को क्षतिग्रस्त कर रहा है अथवा नहीं? संरचना की स्थिति में बदलाव की इस निगरानी को आउटर मैट्रिक्स कहते हैं। इस अध्ययन में शामिल इंजीनियर राम रहीमी ने कहा है, 'यह ठीक उसी प्रकार की अवधारणा है, जिसके जरिए किसी हवाई जहाज के पंखों में क्षति की जांच की जाती है। जिस तरह से तरंग का प्रसार होता है, वह अंग को कोई नुकसान पहुंचाए बिना गुण-दोष की जानकारी देती है।' इसे वैज्ञानिकों ने गैर-विनाशक तरीका मानते हुए इसके नतीजों को सटीक माना है। साफ है, ध्वनि तरंगें अदृश्य रोगाणुओं से बचाव का सार्थक उपाय है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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