Home » खुला पन्ना » दाह संस्कारः पृथ्वी की रक्षा के लिए तार्किक विकल्प

दाह संस्कारः पृथ्वी की रक्षा के लिए तार्किक विकल्प

👤 mukesh | Updated on:8 April 2020 12:58 PM GMT

दाह संस्कारः पृथ्वी की रक्षा के लिए तार्किक विकल्प

Share Post

- डॉ. मोक्षराज

मनुष्य की मृत्यु के बाद, शव का अंतिम संस्कार करने के लिए दुनिया में अनेक रीतियाँ प्रचलित हैं। शव को जलाना, पानी में बहाना, ज़मीन में गाड़ना, गुफा में छोड़ना, ममी बनाकर संजोना, शव को जंगलों में फेंक देना, बर्फ में दबाना और कहीं-कहीं तो लोग शव का भक्षण कर उत्सव भी मनाते हैं। किन्तु यदि आज की परिस्थितियों के संदर्भ में हम इन परम्पराओं का विश्लेषण करें तो कोरोना वाइरस की महामारी हमें अपने प्राचीनतम विकल्प को अपनाने के लिए बाध्य करती है। यद्यपि बाइबिल व क़ुरान में शव को ज़मीन में गाड़ने का उल्लेख मिलता है लेकिन यजुर्वेद में 'भस्मांतं शरीरम्' लिखा है, जो यह स्पष्ट करता है कि अन्त्येष्टि संस्कार द्वारा शरीर भस्म होना चाहिए। आर्यों में प्रचलित वेदों का यह विचार 1.96 अरब वर्ष पुराना है। सम्पूर्ण विश्व में 3500 वर्ष पहले तक यही विचार प्रमुखता से स्थापित था।

उक्त सभी विचारों की तार्किक समीक्षा की जाए तो ये निष्कर्ष हमारे सामने होंगे- "3613 अरब वर्गमीटर समुद्री क्षेत्र को छोड़कर यदि धरती के कुल 1484 अरब वर्ग मीटर क्षेत्र पर प्रति व्यक्ति की कब्र के लिए 6 वर्ग मीटर भूमि घेरी जाने की कल्पना करें तब प्रति वर्ष 5 करोड़ 80 लाख की मृत्यु दर से, 4258 वर्ष में 247 अरब लोगों की कब्रों द्वारा सारी भूमि ढंक जाती है। न कृषि योग्य भूमि शेष रहेगी, न उद्योग-धंधों, परिवहन, शिक्षण संस्थाओं, चिकित्सालयों, पशु-पक्षियों के लिए कोई स्थान बचेगा। किन्तु, वैदिक सभ्यता व आर्यों की परंपरा के अनुसार दाह संस्कार अपनाने से यह धरती मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं व वनों से हरी-भरी रहकर अरबों वर्ष तक सुखपूर्वक जीने योग्य रह सकती है। अर्थात् आजतक भूमि को सुरक्षित रखने में वैदिकों (आर्यों) का बड़ा योगदान है।

जिन रेगिस्तानी क्षेत्रों या बर्फीले क्षेत्रों में छाया के लिए तथा भोजन बनाने की लकड़ी के लिए पर्याप्त पेड़-पौधे नहीं थे, वहाँ परिस्थितिवश शव को दफ्न की रीति चली होगी, किंतु आज लकड़ी के अभाव में भी शवदाह के लिए विकल्प उपलब्ध हैं। अमेरिका व यूरोप में लाखों लोग जमीन की खरीद एवं अन्य फिजूल के खर्चों से बचने के साथ-साथ, धार्मिक पाखंडों से ऊबकर विद्युत शवदाह गृहों को अपना रहे हैं। यह आने वाली पीढ़ियों के लिए भी क्रांतिकारी पहल है।

क़ब्रों से विभिन्न रोग उत्पन्न होते हैं तथा दुर्गंध व भय का वातावरण भी निर्मित होता है। कहीं-कहीं शवों की चोरी, शवों के साथ दुष्कर्म एवं जंगली जीवों द्वारा शवों को क्षत-विक्षत करते हुए भी पाया गया है। शवों को गाड़कर महिमा मंडित करने की कुप्रथा बंद होने योग्य है। यह बुराई कम-अधिक सभी मत-संप्रदायों में विद्यमान है। ईसाई, मुस्लिम व कुछ बौद्धों द्वारा क़ब्रें बनाकर भूमि के बहुत बड़े हिस्से को दूषित कर दिया जाता है तथा हिंदुओं में साधु-संतों, महापुरुषों की समाधियाँ बनाने का पाखंड भी आरंभ हुआ है।

शवों को गाड़ने या अन्य दोषपूर्ण कृत्यों को समाप्त करने के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपनी मृत्यु से 8 माह पूर्व 27 फरवरी 1883 को उदयपुर मेवाड़ के राजा सज्जन सिंह के महल में अपने सामने एक स्वीकार पत्र लिखवाया, वे कहते थे कि जब मेरी मृत्यु हो तो सरस्वती पन्थ के साधुओं की भाँति मेरे शरीर को ज़मीन में न गाड़ा जाए और न ही कोई पक्की समाधि बनायी जाए, बल्कि वेद शास्त्रों में लिखे दाह संस्कार के अनुसार ही अन्त्येष्टि करना और हुआ भी यही। जब 1883 में अजमेर की भिनाय कोठी में उनका निधन हुआ तो संतों की परंपरा के अनुसार सरस्वती संप्रदाय के कुछ साधु-संतों ने कहा कि महर्षि की देह पर हमारा अधिकार है। हम अपनी परंपरा अनुसार ही इनका अंतिम संस्कार करेंगे। किंतु दूरदर्शी महर्षि दयानंद ने अपने स्वीकार पत्र में जो बात लिखाई, तदनुसार ही उनका अन्त्येष्टि संस्कार किया गया और सदियों से चली आ रही परंपरा को तोड़ा गया। महर्षि के इस संस्कार में देश-विदेश के हज़ारों हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी लोग अपनी भावपूर्ण श्रद्धांजलि देने के लिए उपस्थित थे। उन्होंने 145 वर्ष पूर्व स्वरचित सत्यार्थ प्रकाश में ईसाई, मुस्लिम, पारसी और बौद्ध तथा हिन्दुओं के विभिन्न मतों की तार्किक समीक्षा करते हुए दफ़नाने, नदी में बहाने व जंगल में फेंकने को अवैज्ञानिक बताया। उन्होंने दफ़नाने से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होना व जल एवं वायु प्रदूषण का होना भी लिखा। कोरोना जैसी बीमारी को ध्यान में रखते हुए हमें यह जान लेना चाहिए कि किसी काल्पनिक स्वर्ग, जन्नत या हेवन की अवधारणाओं से पृथ्वी का भला नहीं हो सकता, हमें धरती को स्वर्ग बनाने के लिए धार्मिक पाखंडों से ऊपर उठकर वास्तविकता को स्वीकारना होगा।

(लेखक वॉशिंगटन डीसी में भारतीय संस्कृति शिक्षक हैं।)

Share it
Top