नए सिरे से तय होगी कृषि की भूमिका
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
कोरोना महामारी और उसके कारण लॉकडाउन के तीन चरणों के समाप्त होने के बाद जो बदलाव सामने आ रहे हैं, उससे सोशियो-इकोनोमिक व्यवस्था में नये बदलाव देखने को मिलेंगे। खासतौर से एकबार फिर अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका नए सिरे से तय करनी होगी। हालांकि कृषि उत्पादन में उतार-चढ़ाव जीडीपी को प्रभावित करता है, वहीं इसमें दो राय नहीं कि उद्योगों में मंदी के बावजूद कृषि उत्पादन बेहतर रहने से देश की अर्थव्यवस्था का स्तर बना रहा।
लॉकडाउन के बाद स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। एक समय था जब लोग रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन कर रहे थे। शहरों का विस्तार गांवों को अपने में समाता जा रहा है। पर एक कोरोना ने सबकुछ बदल कर रख दिया है। अब रिवर्स माइग्रेशन के हालात हो गए हैं। हर कोई अपनों के बीच पहुंचने के लिए कोई साधन नहीं तो पैदल ही आगे बढ़ता जा रहा है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश भर में 2 करोड़ से अधिक लोग अपने गांवों तक पहुंचने की कोशिश में लगे हैं। शहरों से वापस गांव की और जाने की बात लगभग अकल्पनीय मानी जाती रही है पर एक कोरोना ने सबकुछ बदल कर रख दिया है। अब अर्थव्यवस्था और खेती किसानी के क्षेत्र में नई चुनौतियां सामने आने वाली हैं। इसका कारण भी है एक ओर जहां कृषि जोत छोटी होती जा रही है वहीं कृषि में तकनीक के प्रयोग से कुछ खास समय को छोड़ दिया जाए तो खेती के काम में मानव संसाधन की आवश्यकता कम हो गई है। जमीन सीमित है तो अब उसपर निर्भर होने वालों की संख्या अधिक। ऐसे में गांवों के हालात तेजी से बदलेंगे। सरकार को इसी दिशा में सोचते हुए आगे आना होगा।
1947-48 में सकल घरेलू उत्पाद में खेती की हिस्सेदारी लगभग 52 प्रतिशत थी जो अब लगभग 17 प्रतिशत रह गई है। सरकार की बजटीय सहायता में कृषि प्रावधान लगातार कम होता जा रहा है। हालांकि कृषि क्षेत्र में सुधार हुए हैं उससे खाद्यान्न के क्षेत्र में देश आत्मनिर्भर है। देश में जहां जनसंख्या वृद्धि की दर 2.55 प्रतिशत है तो कृषि उत्पादन की विकास दर 3.7 फीसदी होने से देश में खाद्यान्नों की कोई कमी नहीं है। हालांकि सरकार ने अब कृषि में विविधिकरण की आवश्यकता समझी है। यही कारण है कि अब कम्पोजिट खेती की बात की जा रही है जिसमें पशुपालन आदि संवद्ध कार्यों पर भी जोर दिया जा रहा है। दरअसल कृषि में उपकरणों का प्रयोग बढ़ने के बाद पशुधन को लेकर किसानों का रुझान कम होने लगा था। अब सरकार ने पशुपालन को बढ़ावा देने का फैसला किया है, जिससे किसानों की आय दोगुना करने के लक्ष्य को प्राप्त करने को महत्वपूर्ण माना गया है। मधुमक्खी, मछली पालन और इसी तरह के संवद्ध गतिविधियों से किसानों को जोड़ा जा रहा है। खेती में सेचुरेशन की स्थिति और रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति प्रभावित होने को देखते हुए जैविक खेती पर जोर दिया जा रहा है। हालांकि यह सब अनवरत गतिविधियां है।
कोरोना के कारण स्थितियों में जो बदलाव आ रहा है, उससे खेती के लिए दिए जा रहे पैकेज से कोई रास्ता नहीं निकल पाएगा। असल में गांवों में वापस आ रहे लोगों के कारण जो स्थितियां बनेगी उसका अध्ययन कर सरकार को कोई रोडमैप बनाना होगा। जहां तक आर्थिक पैकेज का प्रश्न है यह तो खेती के डोज का काम करेगा पर जो अतिरिक्त लोग गांवों में अपने घर आएंगे उनके कारण उत्पन्न होने वाली स्थितियों को समझना होगा। क्योंकि खेती का रकबा सामने है, आर्थिक पैकेज से जो लोग पहले से खेती में जुटे हैं उन्हें सहायता मिल जाएगी और यह जरूरी भी है पर जो ग्रामीण उद्योग-धंधों में काम करने के लिए, शहर में देनदारी में काम करने, मण्डी में काम करने, स्ट्रीट वेण्डर के रूप में काम कर रहे थे अब उसी बंटी-बंटाई जमीन में कैसे जीवन-यापन कर पाएंगे, यह विचारणीय होगा। यदि जमीन की और बंटाई होती भी है तो जोत इतनी रह जाएगी कि लागत तो बढ़ेगी ही इसके साथ ही पैदावार भी उतनी नहीं हो पाएगी। इसलिए कृषि वैज्ञानिकों और समाज विज्ञानियों को नए सिरे से ग्रामीण अर्थशास्त्र के सूत्र बनाने होंगे।
दरअसल अब कृषि विशेषज्ञों को नए सिरे से सोचना होगा। एक ओर कोरोना जैसे हालातों से निपटने के लिए कृषि उत्पादन बढ़ाना पहली आवश्यकता होगी तो दूसरी और कृषि लागत में कमी लाने और किसानों को उनकी उपज का पूरा मूल्य दिलाने के प्रयास करने होंगे। देखा जाए तो लोन का एक हिस्सा या लोन पर दिए जा रहे अनुदान का एक हिस्सा किसानों को इनपुट यानी खाद-बीज के अनुदान के रूप में दिया जाए और किसानों को उसकी लागत से अधिक आय मिल सके यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी हो गया है। हालांकि आर्थिक पैकेज में सरकार कुछ ठोस प्रस्ताव लेकर आई है पर इन प्रस्तावों का क्रियान्वयन समयबद्ध हो यह भी जरूरी हो जाता है। गांवों में आने वाले श्रमिकों/प्रवासियों को पशुपालन या इसी तरह के अतिरिक्त उत्पादक कार्य से जोड़ा जाए तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत होगी और शहरों पर पड़ने वाला अनावश्यक दबाव कम होगा। सरकार के साथ ही समाज विज्ञानियों को कोरोना के संदर्भ में आने वाली स्थितियों को लेकर चिंतन मनन करना होगा क्योंकि कोरोना का प्रभाव आज खत्म नहीं होने वाला है अपितु आने वाले कई वर्षों तक इसका प्रभाव समूचे वैश्विक गतिविधियों पर देखने को मिलेगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)