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विमान हादसों की पुनरावृत्ति

👤 mukesh | Updated on:10 Aug 2020 7:47 AM GMT

विमान हादसों की पुनरावृत्ति

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- डॉ. रमेश ठाकुर

केरल के कोझिकोड एयरपोर्ट पर भीषण विमान हादसे ने हवाई यात्राओं की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। विमान जिस तरह क्षतिग्रस्त हुआ, उसे देखकर रोंगटे खड़े हो गए। नियमित हवाई यात्रा करने वाले हादसा देखकर इस सोच में पड़ गए कि उन्हें यात्रा करनी चाहिए या नहीं? प्लेन दो हिस्सों में टूटकर चकनाचूर हो गया। हादसे के जो तत्कालिक कारण सामने आए हैं, उससे सीधे सवाल एयरपोर्ट अथाॅरिटी, विमानन कंपनियों और उड्यन विभाग पर खड़े हुए हैं। हादसे की शुरुआती रिपोर्ट बताती है कि रनवे छोटा होने के चलते हादसा हुआ। कोझिकोड एयरपोर्ट का रनवे अगर लंबा होता तो हादसा नहीं होता? जबकि कई वर्षों से इस बात की मांग उठ रही थी कि रनवे को लंबा किया जाए।

कोझिकोड एयरपोर्ट का रनवे दिल्ली एयरपोर्ट के रनवे से छोटा है। कोझिकोड का रनवे 8800 फुट लंबा है, जबकि दिल्ली का 11000 फुट लंबा रनवे है। छोटे रनवों पर बारिश में प्लेनों की लैंडिंग कराना किसी बड़े खतरे से कम नहीं होता। रनवे जब भीग जाता है तो प्लेनों के फिसलने की आशंका बढ़ जाती है। दस वर्ष पहले मंगलुरू एयरपोर्ट पर भी कुछ ऐसा ही हादसा हुआ था। संयोग देखिए तब भी प्लेन दुबई से आया था। 22 मई 2010 को एयर इंडिया का विमान दुबई से आते वक्त रनवे को पार करते हुए पास की पहाड़ियों में जा गिरा था, जिसमें 158 लोगों की मौत हुई थी। उस हादसे से भी एयरपोर्ट अथाॅरिटी ने कोई सबक नहीं सीखा। दोनों हादसे कमोबेश एक जैसे ही हैं।

मंगलुरू और कोझिकोड के दोनों हादसों के बाद भी अगर कोई सतर्कता नहीं दिखाई तो ऐसे दर्दनाक हादसों की पुनरावृत्ति होती रहेगी और हवाई यात्री असमय मौत मुंह में समाते जाएंगे। कुछ वर्ष पूर्व केंद्र सरकार ने देशभर के एयरपोर्ट की सुरक्षा-समीक्षा की थी। रिपोर्ट में सामने आया था कि कई ऐसे रनवे हैं जो बोइंग विमानों का भार झेलने के लायक नहीं हैं। बोइंग विमानों का वजन लगभग 70 से 100 टन के आसपास होता है। लैंडिंग के वक्त एकदम तेजी से इतना भार जमीन पर पड़ता है तो कम दूरी के रनवे मुकाबला नहीं कर पाते। बारिश में छोटे रनवे की हालत और भी ज्यादा खराब हो जाती है। खराब मौसम में जब ये विमान लैंड करते हैं तो रनवे पर उनके टायरों की रबड़ उतर जाती हैं, जिससे ब्रेक लगाने के वक्त प्लेनों के फिसलने की आशंका बढ़ जाती है। उसी स्थित में अगर रनवे लंबे हों तो पायलट नियंत्रण कर लेता है लेकिन छोटे रनवे पर दुर्घटनाएं हो जाती हैं।

कोझिकोड के जिस एयरपोर्ट पर हादसा हुआ है उसके आसपास बहुत ज्यादा हरियाली है इसलिए वहां दूसरे एयपोर्टस् के मुकाबले विजिबिलिटी हमेशा कम रहती है। इसलिए उस रनवे पर हादसे की आशंका हमेशा बनी रहती हैं। इतना सबकुछ जानने के बाद भी एयरपोर्ट प्रशासन आंखें मूंदकर बैठा रहता है, अगले हादसे का इंतजार करता रहता है और देखते-देखते हादसा हो भी जाता है। दस साल पहले जो हादसा हुआ था उसमें भी विमान दो हिस्सों में ऐसे ही टूट गया था। हादसे का तरीका मौजूदा हादसे जैसा ही था। तेज बारिश में प्लेन की लैंडिंग कराना कोझिकोड रनवे पर खतरे से कम नहीं होता, फिर क्यों विमान को उतारने की इजाजत दी। मौजूदा विमान हादसे की जिम्मेदारी सीधे स्थानीय अथाॅरिटी, प्रशासन और एयरपोर्ट अथाॅरिटी ऑफ इंडिया की बनती है। जिम्मेदार टाॅप अधिकारियों पर केस दर्ज होना चाहिए, हादसे में हताहत बेकसूर हवाई यात्रियों की हत्या का मुकदमा होना चाहिए। मृतकों में मुआवजा राशि बांटकर घोर लापरवाही और मुंह खोले खड़ी कमियों पर पर्दा नहीं डालना चाहिए।

कुछ भी हो, कोझिकोड विमान हादसे ने हवाई यात्राओं की सुरक्षाओं की विश्वसनीयता खतरे में जरूर डाल दिया है। देश हो या विदेश हर जगह से समस-समय पर विमान दुर्घाटनाओं की खबरें आती रहती हैं। हवाई हादसे अब रेल हादसों की तरह आम होते जा रहे हैं। कोझिकोड हादसे के पूर्व की ज्यादातर घटनाओं में भी मानवीय व तकनीकी चूक सामने आई है। इसलिए अब हवाई सफर पूरी तरह रामभरोसे हो गया है। विमान घटनाओं के बाद जब जिम्मेवारी लेने की बात आती है तो सरकारें ये कहकर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं कि इसमें निजी विमान कंपनियों की हिमाकत है। सीधे तौर पर सरकारें घटना की जिम्मेदारी अपने सिर नहीं लेती।

हवाई यात्रियों के जेहन से किसी एक घटना का डर निकल भी नहीं पाता, दूसरी घटना हो जाती है। काठमांडू के त्रिभुवन इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर भी कोझिकोड की तरह लैंड करते वक्त बांग्लादेश का विमान फिसला था जिसमें 58 यात्री मरे थे। संसार भर में खतरों की समीक्षा पर आधारित सुरक्षा उपायों को लागू करने के लिए नागर विमानन सुरक्षा ब्यूरो सुरक्षा पद्धतियों को लगातार रूप से उन्नत तथा पुनः परिभाषित करते रहते हैं, पर नतीजा वही ठाक के पात। अल्जीरिया विमान हादसे के बाद भारतीय विमानन कंपनियों ने कुछ सकर्तता दिखाई थी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, सतर्कता भी फुस्स हो गई।

एविएशन क्षेत्र में भारत आज भी दूसरे देशों से काफी पीछे है। नए विमानन नियम, नई सहूलियतें, आधुनिक तामझाम, यात्रा में सुगमता की गारंटी और भी कई तमाम हवाई कागजी बातें उस समय धरी रह जाती हैं, जब बड़े प्लेन हादसों की खबरें आ जाती हैं। पिछले वर्ष इन्हीं दिनों में दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट के रनवे पर भी आमने-सामने एक साथ दो विमानों के आने से बड़ा हादसा होते-होते बचा था। इसे एटीएस का गलती कहें या विमानन कंपनियों की तकनीकी नाकामी, या फिर पायलटों की लापरवाही? कुछ भी हो इन हिमाकतों के बाद यात्रियों की जिंदगी दांव पर जरूर लग जाती हैं? हरियाणा के चरखी विमान हादसे को शायद ही कोई भूल पाए, याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उस हादसे को भारत में अबतक का सबसे बड़े हवाई हादसे में गिना जाता है। घटना 12 नवंबर, 1996 में घटी थी, जब दो विमानों में मिड एयर कॉलिजन हुआ, एक विमान सऊदी अरब का था, तो दूसरा कजाखिस्तान का। उस हादसे में दोनों विमानों में सवार सभी 349 यात्रियों में से कोई जिंदा नहीं बचा।

कोझिकोड विमान हादसे ने एविएशन क्षेत्र को दोबारा समीक्षा करने की जरूरत की तरफ इशारा किया है। ये तथ्यात्मक रूप से सच है कि अन्य मुल्कों के मुकाबले हमारा एविएशन सेक्टर अभी भी उतना विश्वस्तरीय नहीं है जितना होना चाहिए। हिंदुस्तान में महज दिल्ली, मुंबई जैसे दो-तीन ही इंटरनेशनल स्टैंडर्ड के एयरपोर्ट हैं, जबकि देश में एविएशन सेक्टर में भारी संभावनाएं हैं। यह क्षेत्र सालाना 14 फीसदी की दर से ग्रोथ कर रहा है। दुनिया के टॉप-5 कंट्री में शुमार होने के बावजूद भारतीय एविएशन सेक्टर सवालों के घेरे में है। हवाई यात्रियों में भारी इजाफा होने के बाद भी अभीतक टियर दो और टियर तीन श्रेणी के शहरों को हवाई रूटों से नहीं जोड़ा गया। बीते पांच वर्षों में एविएशन क्षेत्र को आधुनिक तकनीकों से लैस किया गया है लेकिन उसका सही ढंग से क्रियान्वयन नहीं किया गया। कोझिकोड जैसे हादसे उसी का नतीजा हैं। कोझिकोड विमान घटना के बाद भारतीय विमानन नेटवर्क को सर्तक हो जाना चाहिए। घटना के संभावित पहलुओं को चिह्नित कर उन्हें दुरुस्त करना चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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