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परशुराम मंदिरः ब्राह्मणों को रिझाने की सियासत

👤 mukesh | Updated on:11 Aug 2020 7:13 AM GMT

परशुराम मंदिरः ब्राह्मणों को रिझाने की सियासत

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- सियाराम पांडेय 'शांत'

अयोध्या में राममंदिर के भूमि पूजन के ठीक बाद समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश के हर जिले में परशुराम मंदिर बनाने की घोषणा कर दी है। उसके नेता और पूर्व मंत्री अभिषेक मिश्र ने उप्र की राजधानी लखनऊ में भव्य परशुराम मंदिर,108 फीट ऊंची भगवान परशुराम की प्रतिमा, वहां बड़ा पार्क और उसमें एजुकेशनल रिसर्च सेंटर खोलने की घोषणा की है। उनका दावा है कि एजुकेशनल रिसर्च सेंटर में किताबें लिखी जाएंगी। म्यूजिक तैयार किए जाएंगे। समाजवादी पार्टी का दावा है कि वह परशुराम जयंती तक भगवान परशुराम की प्रतिमा हर जिले में लगवा देगी। उसकी इस कोशिश को ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा रहा है। जब चुनाव सिर पर होता है तो सपा इस तरह के प्रयास करती भी है। इससे सपा के विरोधी दलों, खासकर भाजपा का परेशान होना स्वाभाविक है। कानपुर के बिकरू कांड के मुख्य अभियुक्त विकास दुबे और उसके सहयोगियों के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने के बाद से कुछ लोग योगी सरकार पर सवाल उठा रहे हैं। सपा, कांग्रेस और बसपा नेताओं के तत्कालीन बयान कमोबेश इसी तरह का संकेत देते हैं। इन दलों ने अपने ब्राह्मण नेताओं को आगेकर इसे प्रचारित कराया लेकिन वे इस बात को भूल गए कि विकास दुबे के जुल्मो के शिकार सभी ब्राह्मण समाज के ही थे, किसी अन्य जाति के नहीं।

तर्क यह दिया जा रहा है कि बदमाश सभी जातियों में हैं, फिर सरकार सिर्फ ब्राह्मणों को ही क्यों निशाना बना रही है। उनकी बात कुछ हद तक सही हो सकती है लेकिन उन्हें यह भी सोचना होगा कि अपराधी की कोई जाति नहीं होती। ब्राह्मणों को बरगलाकर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयोग राजनीतिक दल वर्षों से करते रहे हैं, अब समय आ गया है कि ब्राह्मणों को अपनी अहमियत समझनी चाहिए कि वे राजनीतिक उपयोग और उपभोग की वस्तु नहीं हैं।

सपा, बसपा और कांग्रेस अगर अपने विप्र नेताओं को आगे कर ब्राह्मण कार्ड खेल रही है तो विषस्य विषमौषधम की रीति-नीति पर अमल करते हुए भाजपा ने भी अपने ब्राह्मण नेताओं को ही जवाबी प्रहार-प्रतिकार के मोर्चे पर खड़ा कर दिया है। सच तो यह है कि उप्र में ब्राह्मणों के मुद्दे पर सियासी घमासान तेज हो गया है। भाजपा सांसद सुव्रत पाठक, मंत्री चंद्रिका उपाध्याय और सतीश द्विवेदी ने ब्राह्मणों के हित के मुद्दे को यथार्थ का आईना दिखाया है। उन्होने आरोप लगाया है कि अखिलेश और मुलायम सरकार में ब्राह्मणों को अपमान और उत्पीड़न के सिवा कुछ नहीं मिला। 2004 के लोकसभा चुनाव में छिबरामऊ के भाजपा कार्यकर्ता नीरज मिश्र की हत्या का जिक्र कर यह बताने की कोशिश की गई कि सपा राज में ब्राह्मण कभी सुरक्षित नहीं रहा। इन तीनों नेताओं ने यह भी आरोप लगाया कि सपा अपने शासनकाल में एमवाई यानी यादव और मुसलमान के हितों के दायरे से बाहर निकल ही नहीं पाई।

नौकरियां देने में भी ब्राह्मणों की उपेक्षा की गई। बेसिक शिक्षा राज्यमंत्री ने तो अखिलेश यादव से यहां तक पूछ लिया है कि सपा की स्थापना से लेकर अबतक कितने ब्राह्मण सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और कितने ब्राह्मण प्रदेश अध्यक्ष बने। समाजवादी पार्टी के कितने जिलाध्यक्ष ब्राह्मण हैं। लोकसभा और विधानसभा 2019 के चुनाव में कितने ब्राह्मणों को टिकट दिया गया। सपा सरकार में कितने निगमों और आयोगों के अध्यक्ष ब्राह्मण थे। ब्राह्मणों को सपा से जोड़ने में जुटे माता प्रसाद पांडेय और अभिषेक मिश्र को 2019 में लोकसभा का टिकट क्यों नहीं दिया गया। भाजपा अगर अयोध्या में रामलला का मंदिर बनवा रही है तो सपा को भी तो इसके समांतर कुछ करना चाहिए था। सो वह सभी जिलों में परशुराम मंदिर बनवा रही है। भाजपा पार्क और संग्रहालय बनवा सकती है तो सपा ने भी इस दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। योगी आदित्यनाथ ने 2017 में अपनी सरकार बनने के बाद अयोध्या में दीपोत्सव मनाना आरम्भ किया था और सरयू के तट पर 251 मीटर कांस्य प्रतिमा लगाने की घोषणा की थी। यह प्रतिमा 250 एकड़ में बननी थी। प्रतिमा के ऊपर 20 मीटर ऊंचा छत्र और नीचे 50 मीटर का चबूतरा भी बनना था। उस वक्त तो अखिलेश यादव योगी सरकार पर पैसे के दुरुपयोग का आरोप लगा रहे थे और सरकार को यह बता रहे थे कि उसके पास करने के लिए और भी कई उपयोगी काम हैं लेकिन अब समाजवादी पार्टी खुद प्रतिमाओं की राजनीति में उलझ गई है।

अखिलेश परशुराम मंदिर के बहाने ब्राह्मणों को अपनी ओर करने में सफल न हो जाएं, यह चिंता बसपा प्रमुख मायावती को भी सताने लगी है। उन्होंने कहा है कि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो वह सपा से अधिक भव्य भगवान परशुराम की प्रतिमा लगवाएंगीं। साथ ही उन्होंने सवाल भी उठाया है कि चुनाव के वक्त ही सपा को परशुराम की याद क्यों आ रही है। अपने कार्यकाल में भी वह परशुराम की प्रतिमा लगवा सकती थी। वहीं सपा ने कहा है कि जगजाहिर है कि अपने शासन में बसपा किसकी मूर्तियां लगती है।मतलब साफ है कि ब्राह्मणों को लेकर राजनीतिक दलों के बीच घमासान तेज हो गया है और 2022 के विधानसभा चुनाव तक इसमें कोई कमी नहीं आने वाली।

लोक जीवन में देवी-देवताओं की मूर्तियों का अपना महत्व होता है। उन मूर्तियों में श्रद्धा और विश्वास घनीभूत कर लोग उसमें देवी-देवताओं की अनुभूति कर लेते हैं। उन मूर्तियों की साधना-आराधना कर वे न केवल आत्मिक शांति प्राप्त करते हैं बल्कि दैवीय अनुग्रह-आशीर्वाद भी प्राप्त करते हैं लेकिन आजकल मंदिर बनाने की होड़ सी लग गई है।

देश में ऊंची मूर्तियों को लगाने की होड़ दरअसल गुजरात में नर्मदा तट पर 185 मीटर ऊंची लौह प्रतिमा स्थापित करने से आरंभ हुई थी। शिवसेना ने मुम्बई के पूर्वी समुद्र तट पर 212 मीटर ऊंची शिवाजी की प्रतिमा शिव स्मारक के रूप में स्थापित करने की घोषणा की थी।राजस्थान के शिवद्वारा में 351 फ़ीट की शिव प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा की गई। कर्नाटक में 125 फीट ऊंची मदर कावेरी की प्रतिमा लगाने की घोषणा की गई। यह सारी घोषणाएं दलीय और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के तौर पर की गईं।अच्छा होता कि इसी तरह की होड़ देश के विभिन्न राज्यों में विकास को लेकर लगी होती। देवी-देवताओं और महापुरुषों के चरित्र से भी अगर इस देश के नेताओं ने सबक लिया होता तो भी इस देश का कायाकल्प हो गया होता।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)

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