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बिचौलियों से मुक्त हुआ किसान

👤 mukesh | Updated on:21 Sep 2020 10:18 AM GMT

बिचौलियों से मुक्त हुआ किसान

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- प्रमोद भार्गव

कृषि एवं किसान की हालत सुधारने वाले विधेयक जबरदस्त हंगामें के बाद राज्यसभा से भी पारित हो गए। दरअसल तीन माह पहले जब इन तीन विधेयकों को अध्यादेश के रूप में लाया गया था, तब संसद में लगभग सभी दलों ने इनका स्वागत किया था। लेकिन अब, जब इन्हें कानूनी रूप देने के लिए लोकसभा में पारित कराने के बाद राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया तो एकाएक राजनीतिक गुल खिलने शुरू हो गए। सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के भीतर ही घमासान मच गया। भाजपा के सबसे पुराने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल की सांसद और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने तीनों विधेयकों को किसान विरोधी बताते हुए केंद्रीय मंत्रीमण्डल से इस्तीफा दे दिया। आधुनिक खेती और अनाज उत्पादन का गढ़ माने जाने वाले हरियाणा-पंजाब में अन्नदाता आंदोलन पर उतारू हो गए। अनुबंध खेती और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आशंकाएं सामने आने लगीं।

दरअसल इन विधेयकों के माध्यम से सरकार दावा कर रही है कि किसान मंडियों, आढ़तियों और बिचैलियों से मुक्त हो जाएगा और किसान को वैकल्पिक बाजार मिलेगा। औद्योगिक घरानों के पूंजी निवेश और तकनीकी समावेश से पूरे देश में कृषि उत्पादकता बढ़ेगी। फिलहाल देश में केवल हरियाणा-पंजाब में गेहूं की उत्पादकता 55-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, जो अंतरराष्ट्रीय कृषि उत्पादन दर से भी 13 प्रतिशत ज्यादा है। जबकि अन्य राज्यों में यही उत्पादकता आधी है। गोया, मंडियों का वर्चस्व खत्म कर अनुबंध-खेती लाभदायी होगी। किसानों को पूरे देश में फसल बेचने की छूट रहेगी। इससे किसान वहां अपनी फसल बेचेगा, जहां उसे दाम ज्यादा मिलेंगे।

भारत सरकार ने बाधा मुक्त खेती-किसानी के लिए 'कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अध्यादेश-2020, मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा पर किसान (सशक्तीकरण और सुरक्षा) अनुबंध अध्यादेश-2020 और आवश्यक वस्तु संशोधन अध्यादेश-2020 को कानूनी दर्जा दे दिया है। अभीतक किसान राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित की गईं मंडियों में ही उपज बेचने को बाध्यकारी थे। अब यह बाधा खत्म हो जाएगी। किसानों को अनुबंध खेती की सुविधा दी गई है। किसान अब कृषि-व्यापार से जुड़ी कंपनियों व थोक-व्यापारियों के साथ अपनी उपज की बिक्री का करार खेत में फसल बोने से पहले ही कर सकते हैं। मसलन किसान अपने खेत को एक निश्चित अवधि के लिए किराए पर देने को स्वतंत्र हैं। ये कानून किसान को फसल के इलेक्ट्रॉनिक व्यापार की अनुमति भी देते हैं। साथ ही निजी क्षेत्र के लोग, किसान उत्पादक संगठन या कृषि सहकारी समिति ऐसे उपाय कर सकते हैं, जिससे इन प्लेटफार्मों पर हुए सौदे में किसानों को उसी दिन या तीन दिन के भीतर धनराशि का भुगतान प्राप्त हो जाए। आवश्यक वस्तु अधिनियम को संशोधित करके अनाज, खाद्य, तेल, तिलहन, दालें, प्याज और आलू आदि को इस कानून से मुक्त कर दिया जाएगा। नतीजतन व्यापारी इन कृषि उत्पादों का जितना चाहे उतना भंडारण कर सकेंगे।

इस सिलसिले में किसानों को आशंका है कि व्यापारी उपज सस्ती दरों पर खरीदेंगे और फिर ऊंचे दामों पर ग्राहकों को बेचेंगे। हालांकि अभी भी व्यापारी इनका भंडारण कर नौकरशाही की मिलीभगत से कालाबाजारी करते हैं। इसे रोकने के लिए ही एसेंशियल कमोडिटी एक्ट बनाया गया है। लेकिन नौकरशाही इसे औजार बनाकर कदाचरण में लिप्त हो जाती है। चूंकि इन विधेयकों ने अब कानूनी रूप ले लिया है, इसलिए भारतीय कृषि को नए युग में प्रवेश के द्वार खुल गए हैं।

बावजूद किसान संगठन आशंका जता रहे हैं कि कानून के अस्तित्व में आने के बाद उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं खरीदी जाएगी। क्योंकि विधेयक में इस बावत कुछ भी स्पष्ट नहीं है। जबकि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि एमएसपी को नहीं हटाया जाएगा। मोदी के इस कथन को किसान जुबानी आश्वासन मान रहे हैं। क्योंकि एमएसपी पर फसल खरीद की गारंटी विधेयक नहीं देता है। बावजूद एमएसपी इसलिए बनी रहेगी, क्योंकि सरकार को लोक कल्याणकारी योजनाएं चलाने और आपात स्थितियों से निपटने के लिए अनाज का भंडारण करना जरूरी है। साथ ही पूरे देश की खाद्य सुरक्षा की गारंटी केंद्र सरकार की है। इसलिए भारतीय खाद्य निगम द्वारा अनाज की खरीद जारी रखना मजबूरी भी है और जरूरी भी। निगम और अन्य सरकारी व सहकारी एजेंसियां जो उपज खरीदती हैं, उसी पर एमएसपी दी जाती है। सरकार को यह गारंटी जरूर देनी चाहिए कि व्यापारी एमएसपी दर से नीचे फसल नहीं खरीद सकें। ये शंका दूर हो जाती है तो किसान निश्चिंत हो जाएगा।

विपक्ष का कहना है कि कंपनियां धीरे-धीरे मंडियों को अपने प्रभुत्व में ले लेंगी, नतीजतन मंडियों की श्रृंखला खत्म हो जाएगी और किसान कंपनियों की गिरफ्त में आकर आर्थिक शोषण के लिए विवश हो जाएंगे। यह आशंका इसलिए बेबुनियाद है, क्योंकि राज्यों के अधिनियम के अंतर्गत संचालित मंडियां भी राज्य सरकारों के अनुसार चलती रहेंगी। किसान को तो मंडी के अलावा फसल बेचने का एक नया रास्ता खुलेगा। साफ है, किसान अपनी मर्जी का मालिक बने रहने के साथ दलालों के जाल से मुक्त रहेगा। अपनी उपज को वह गांव-खेत में ही बेचने को स्वतंत्र रहेगा। अभीतक मंडी में फसल बेचने पर 8.5 फीसदी मंडी शुल्क लगता था, किंतु अब किसान सीधे व्यापारियों को फसल बेचता है तो उसे किसी प्रकार का कर नहीं देना होगा। नए कानून में तीन दिन के भीतर किसान को उपज का भुगतान करने की बाध्यकारी शर्त रखी गई है। साफ है, किसान को धनराशि के लिए व्यापारी के चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे।

नरेंद्र मोदी सरकार अस्तित्व में आने के बाद से ही खेती-किसानी के प्रति चिंतित रही है। अपने पहले कार्यकाल में न्यूनतम समर्थन मूल्य में भारी वृद्धि की थी, इसी क्रम में 'प्रधानमंत्री अन्नदाता आय सरंक्षण नीति' लाई थी। तब इस योजना को अमल में लाने के लिए अंतरिम बजट में 75,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। इसके तहत दो हेक्टेयर या पांच एकड़ से कम भूमि वाले किसानों को हर साल तीन किश्तों में कुल 6000 रुपए देना शुरू किए गए थे। इसके दायरे में 14.5 करोड़ किसानों को लाभ मिल रहा है। जाहिर है, किसान की आमदनी दोगुनी करने का यह बेहतर उपाय है। यदि फसल बीमा का समय पर भुगतान, आसान कृषि ऋण और बिजली की उपलब्धता तय कर दी जाती है तो भविष्य में किसान की आमदनी दूनी होने में संदेह नहीं रह जाएगा। ऐसा होता है तो किसान और किसानी से जुड़े मजदूरों का पलायन रुकेगा और खेती 70 फीसदी ग्रामीण आबादी के रोजगार का जरिया बनी रहेगी। खेती घाटे का सौदा न रहे इस दृष्टि से कृषि उपकरण, खाद, बीज और कीटनाशकों के मूल्य पर नियंत्रण भी जरूरी है।

बीते कुछ समय से पूरे देश में ग्रामों से मांग की कमी दर्ज की गई है। निःसंदेह गांव और कृषि क्षेत्र से जुड़ी जिन योजनाओं की श्रृंखला को जमीन पर उतारने के लिए 14.3 लाख करोड़ रुपए का बजट प्रावधान किया गया है, उसका उपयोग अब सार्थक रूप में होता है तो किसान की आय सही मायनों में 2022 तक दोगुनी हो पाएगी। इस हेतु अभी फसलों का उत्पादन बढ़ाने, कृषि की लागत कम करने, खाद्य प्रसंस्करण और कृषि आधारित वस्तुओं का निर्यात बढ़ाने की भी जरूरत है। दरअसल बीते कुछ सालों में कृषि निर्यात में सालाना करीब 10 अरब डॉलर की गिरावट दर्ज की गई है। वहीं कृषि आयात 10 अरब डॉलर से अधिक बढ़ गया है। इस दिशा में यदि नीतिगत उपाय करके संतुलन बिठा लिया जाता है, तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था देश की धुरी बन सकती है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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