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आबादी घटने के संकेत और उसके प्रभाव

👤 mukesh | Updated on:22 Oct 2020 10:04 AM GMT

आबादी घटने के संकेत और उसके प्रभाव

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- प्रमोद भार्गव

भारतीय आबादी के सिलसिले में नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) की सांख्यिकीय रिपोर्ट-2018 ने देश में आबादी घटने के संकेत दिए हैं। इस सर्वेक्षण के आधार पर 2018 में एक मां की उसके जीवनकाल में प्रजनन दर 2.2 आंकी गई। इस विषय के जानकारों का मानना है कि भारत की जनसंख्या स्थिर हो सकती है और फिर कुछ वर्षों में घटने लगेगी। बालिकाओं के गिरते लिंगानुपात के कारण भी यह स्थिति बनेगी। ये हालात सामाजिक विकृतियों को बढ़ावा देने वाले साबित हो सकते हैं। ऐसे में विवाह की उम्र बढ़ाना निकट भविष्य में बड़ी समस्या पैदा कर सकती है।

एसआरएस की रिपोर्ट में जो आंकड़े सामने आए है, वे जन्म के समय लिंगानुपात के हैं। जैविक तौर पर जन्म के समय सामान्य लिंगानुपात प्रति एक हजार बालिकाओं पर 1050 बालकों का रहता है या प्रति एक हजार बालकों पर 950 बालिकाओं का एसआरएस की रिपोर्ट की मानें तो भारत में लिंगानुपात प्रति एक हजार बालकों पर बालिकाओं के जन्म के आधार पर गिना जाता है। यह 2011 में 906 था, जो 2018 में गिरकर 899 रह गया। केरल और छत्तीसगढ़ छोड़ देश के ज्यादातर राज्यों में पुत्र की आकांक्षा अधिक देखी गई है। 2020 के लिए संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के अनुमान के अनुसार भारत में लिंगानुपात 910 रहेगा, जो चीन को छोड़ दुनिया के सभी देशों से कम है। यह बिगड़ा लिंगानुपात विवाह व्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर डालता है।

बिगड़ते लिंगानुपात के चलते इस स्थिति में सुधार के लिए सरकारी हस्तक्षेप जरूरी है। भारत इस अनुपात को सुधार सकता है, क्योंकि उसके पास 15 से 49 वर्ष के प्रजनन योग्य आयु वर्ग के लोगों का बड़ा समूह है। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु विवाह की आयु घटाने के साथ अवैध संतान को वैधानिकता देना कानूनी रूप से अनिवार्य करना होगा। साथ ही लिंग परीक्षण और कन्या भ्रूण को कोख में ही नष्ट करने के उपाय बंद करने होंगे। इस हेतु आर्थिक समानता के उपायों के साथ युवाओं को प्रजनन, स्वास्थ्य शिक्षा और लैंगिक समानता के मूल्यों को प्रोत्साहित करना होगा।

अक्सर भारत या अन्य देशों में बढ़ती आबादी की चिंता की जाती है। लेकिन अब भारत में कुछ धार्मिक समुदायों और जातीय समूहों में जनसंख्या तेजी से घटने के संकेत मिल रहे हैं। भारत में जहां आधुनिक विकास व विस्थापन के चलते पारसी जैसे धार्मिक समुदाय और आदिवासी प्रजातियों में आबादी घट रही है, वहीं उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रचलन में आ जाने से एक बड़ा आर्थिक रूप से सक्षम समुदाय कम बच्चे पैदा कर रहा है। एक राष्ट्र के स्तर पर कोई देश विकसित हो या अविकसित हो अथवा विकासशील, जनसंख्या के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष एक प्रकार की सामाजिक व वैज्ञानिक सोच का प्रगटीकरण करते हैं।

अपने वास्तविक स्वरूप में जनसंख्या में बदलाव एक जैविक घटना होने के साथ-साथ समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक आधारों को प्रभावित करने का कारण बनती है। इसलिए भारत में जब पांच अल्पसंख्यक समुदायों में से एक पारसियों की आबादी घटती है तो उनकी आबादी बढ़ाने के लिए भारत सरकार मजबूर हो जाती है। दूसरी तरफ मुस्लिमों को छोड़ अन्य धार्मिक समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दर को नियंत्रित करने के कठोर उपाय किए जाते हैं। यह विरोधाभासी पहलू मुस्लिम समुदाय की आबादी तो बढ़ा रहा है, लेकिन अन्य धार्मिक समुदायों की आबादी घट रही है। इसीलिए जनसंख्या वृद्धि दर पर अंकुश लगाने के लिए एक समान नीति को कानूनी रूप दिए जाने की मांग कई समुदाय कर रहे हैं। हालांकि यह कानून बनाया जाना आसान नहीं है। क्योंकि जब भी इस कानून के प्रारूप को संसद के पटल पर रखा जाएगा तब इसे कथित बुद्धिजीवी और उदारवादी धार्मिक रंग देने की पुरजोर कोशिश में लग जाएंगे। बावजूद देशहित में इस कानून को लाया जाना जरूरी है, जिससे प्रत्येक भारतीय नागरिक को आजीविका के उपाय हासिल करने में कठिनाई न हो।

भारत में समग्र आबादी की बढ़ती दर बेलगाम है।15 वीं जनगणना के निष्कर्ष से साबित हुआ है कि आबादी का घनत्व दक्षिण भारत की बजाए, उत्तर भारत में ज्यादा है। लैंगिक अनुपात भी लगातार बिगड़ रहा है। देश में 62 करोड़ 37 लाख पुरुष और 58 करोड़ 65 लाख महिलाएं हैं। हालांकि इस जनगणना के सुखद परिणाम यह रहे हैं कि जनगणना की वृद्धि दर में 3.96 प्रतिशत की गिरावट आई है। 2011 की जनगणना के अनुसार हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 16.7 प्रतिशत रही, जबकि 2001 की जनगणना में यह 19.92 फीसदी थी। वहीं 2011 की जनगणना में मुसलमानों की आबादी में वृद्धि दर 19.5 प्रतिशत रही, वहीं 2001 की जनगणना में यह वृद्धि 24.6 प्रतिशत थी। साफ है, मुस्लिमों में आबादी की दर हिंदुओं से अधिक है। पारसियों व ईसाईयों में भी जन्मदर घटी है। जबकि उच्च शिक्षित व उच्च आय वर्ग के हिंदू एक संतान पैदा करने तक सिमट गए हैं।

आमतौर से जनसंख्या नियंत्रण के दृष्टिगत चीन को परिवार नियोजन संबंधी नीतियों को आदर्श रूप में देखे जाने और उनका विस्तार भारत में किए जाने की मांग उठती रहती है। चीन में आबादी को काबू के लिए 1979 में 'एक परिवार एक बच्चा' नीति अपनाई गई थी। लेकिन यह गलतफहमी है कि चीन में आबादी इस नीति से काबू में आई। जबकि सच्चाई यह है कि 1949-50 में चीन में सांस्कृतिक क्रांति के जरिए जो सामाजिक बदलाव का दौर चला उसके चलते वहां 1975 तक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार आम आदमी की पहुंच में आ गया था। साम्यवादी दलों के कार्यकताओं ने भी वहां गांव-गांव पहुंचकर उत्पादक समन्वयक की हैसियत से काम किया और प्रशाासन से जरूरतों की आपूर्ति कराई। नतीजतन वहां आजादी के 25-30 साल के भीतर ही राष्ट्रीय विकास के लिए कम आबादी जरूरी है, यह वातावरण निर्मित हो चुका था।

'एक परिवार, एक बच्चा' नीति चीन में कालांतर में विनाशकारी साबित हुई। इस नीति पर कड़ाई से अमल का हश्र यह हुआ कि आज चीन में अनेक ऐसे वंश हैं, जिनके बूढ़े व असमर्थ हो चुके मां-बाप के अलावा न तो कोई उत्तराधिकारी है और न ही कोई सगा-संबंधी। जबकि इस नीति को लागू करने से पहले चीन में एक लड़के पर औसत ग्यारह लड़कियां थीं। लेकिन अब स्त्री-पुरुष का अनुपात इतना गड़बड़ा गया है कि चीन ने इस नीति को नकारते हुए एक से अधिक बच्चे पैदा करने की छूट दे दी है। आबादी नियंत्रित के लिए कठोरता बरतने के ऐसे ही दुष्परिणाम जापान, स्वीडन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में देखने को मिल रहे हैं। इन देशों में जन्म-दर चिंताजनक स्थिति तक घट गई है। जापान में मुकम्मल स्वास्थ्य सेवाओं और पर्याप्त आबादी नियंत्रक उपायों के चलते बूढ़ों की आबादी में लगातार वृद्धि हो रही है। इन वृद्धों में सेवानिवृत्त पेंशनधारियों की संख्या सबसे ज्यादा है, इसलिए ये जापान में आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का बड़ा कारण बन रहे हैं।

प्रकृतिजन्य जैविक घटना के अनुसार एक संतुलित समाज में बच्चों, किशोरों, युवाओं, प्रौढ़ों और बुजुर्गों की संख्या एक निश्चित अनुपात में होना चाहिए। अन्यथा यदि कोई एक आयु समूह की संख्या में गैर आनुपातिक ढंग से वृद्धि दर्ज ही जाती है तो यह वृद्धि उस संतुलन को नष्ट कर देगी, जो मानव समाज के विकास का प्राकृतिक आधार बनता है। भारत में जिस तेजी से पेंशनधारी बुजुर्गों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है, वह आर्थिक व स्वास्थ्य सेवाओं की दृष्टि से तो संकट पैदा कर ही रही है, देश का भविष्य माने जाने वाले युवाओं के हितों का एक बड़ा हिस्सा भी बुजुर्गों पर न्योछावर किया जा रहा है। संतुलित मानव विकास के लिए यह दुराभिसंधि घातक है। लिहाजा एसआरएस रिपोर्ट पर गंभीरता से गौर करने की जरूरत है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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