Home » खुला पन्ना » नए भारत की हिन्दुमयी राजनीति

नए भारत की हिन्दुमयी राजनीति

👤 mukesh | Updated on:31 March 2021 7:11 AM GMT

नए भारत की हिन्दुमयी राजनीति

Share Post

- डॉ. अजय खेमरिया

आप इसे हिन्दुत्व की सशक्त चेतना का अभ्युदय कह सकते हैं। बहुसंख्यकवाद का उदय निरूपित कर सकते हैं। सही अर्थों में यह भारत के स्वत्व का संसदीय उदघोष है। वामपंथियों का स्वर्ग कहे जाने वाले बंगाल में जय श्रीराम और चंडी पाठ से चुनावी नतीजों की इबारत लिखी जा रही है। उधर नास्तिकता की उर्वरा भूमि वाले तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति अंतिम सांसें गिन रही है। केरल में मुख्यमंत्री पिनराई विजयन सबरीमाला मंदिर आंदोलन के हजारों समर्थकों से फौजदारी मुकदमे वापस ले रहे हैं। कमोबेश असम में भी हिंदू भावनाओं के आगे सेक्यूलर राजनीति पानी मांग चुकी है। यानी जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें एक केंद्रीय तत्व समान रूप से हावी है- हिन्दुत्व और हिंदू समाज।

क्या यह माना लिया जाए कि भारत की संसदीय राजनीति बदल चुकी है? मंदिर-मंदिर भागते सेक्युलरिज्म के चैम्पियन, इस सवाल का सबसे सामयिक और प्रमाणिक उत्तर भी हैं। भाजपा की जीत-हार एकतरफ रख दीजिए और एक तटस्थ अवलोकनकर्ता की तरह इस नए भारत की नई चुनावी राजनीति को समझने का प्रयास कीजिये। आपको एक बात सुष्पष्टता से समझ आएगी कि सत्ता की राजनीति अब तुष्टीकरण और हिन्दुत्व के मानमर्दन पर नहीं बल्कि हिन्दुत्व के चैम्पियन साबित करने पर आकर खड़ी हो गई है। यह एक असाधारण बदलाव है क्योंकि 2014 के दौर तक जिन्होंने संसदीय राजनीति को नजदीक से देखा है वे जानते हैं कि कैसे साम्प्रदायिकता के नाम पर बीजेपी को अलग-थलग किया जाता रहा है। गुजरात दंगों के नाम पर रामविलास पासवान एनडीए छोड़कर चले गए थे। नन्दीग्राम में चंडीपाठ करते हुए खुद को ब्राह्मण बताने वाली ममता बनर्जी ने सेक्यूलर राजनीति के नाम से ही अटलजी का साथ छोड़ा था। सेक्यूलर सरकार, सेक्यूलर राजनीति भारतीय लोकतंत्र की स्थाई अवधारणाएं बन चुकी थी।

यह भी सर्वविदित है कि 'देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है'- कहते हुए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह असल में हमारी राजनीतिक व्यवस्था में मुस्लिम तुष्टीकरण की शीर्ष लकीर को ही गहरा कर रहे थे। भारत माँ को डायन कहने वाले संसद में चुनकर आ रहे थे। लोहिया की अंगुली पकड़कर चलने वाले मुलायम सिंह खुद को मौलाना मुलायम कहने पर सीना चौड़ा कर लिया करते थे। यानी सेक्युलरिज्म और इसकी आड़ में मुस्लिम तुष्टिकरण एक दौर में संसदीय सत्ता की इकबालिया गारंटी था।

आज देश के हर कोने, हर दल में 360 डिग्री का बदलाव नजर आ रहा है। जिन जुमलों से सेक्युलरिज्म के महाग्रंथ लिखे गए उन्हें कोई भूल से भी जुबान पर नहीं लाना चाहता है। दिल्ली दंगों में मुसलमानों को अलग से कई गुना मुआवजा देने वाले अरविंद केजरीवाल खुद की सरकार को असल रामराज्य स्थापित करने वाली बताते हैं। वे दिल्ली के बुजुर्गों को अयोध्या तक निःशुल्क यात्रा का बजट प्रावधान कर रहे हैं। तेलंगाना में केसीआर मंदिरों और पुजारियों के अलावा ज्योतिषियों, वास्तुविदों की शरण में हैं। कभी ईसाई हो चुके आंध्र के सीएम जगनमोहन समारोहपूर्वक हिन्दू धर्म में वापस आकर मठ-मंदिरों के उन्नयन कार्य का प्रचार करते हैं। केरल की कम्युनिस्ट सरकार सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को खुद प्रवेश कराकर हिन्दू भावनाओं से खिलवाड़ में पीछे नहीं थी लेकिन पिनराई विजयन अब इस आंदोलन में अयप्पाभक्त हिंदुओं पर दर्ज पुलिस प्रकरण वापस लेने के अपने ही निर्णय को अहम चुनावी मुद्दे के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। सबसे आश्चर्यजनक तस्वीरे और दलीलें तो द्रविड़ राजनीति के गढ़ तमिलनाडु से आ रही है। द्रुमुक के नेता स्टालिन कह रहे हैं कि वे मंदिरों या हिन्दुत्व के विरोधी नहीं हैं।

चुनावी नतीजे किसी भी दल के पक्ष में आएं लेकिन मौजूदा माहौल का भगवा रंग में रंग जाना एक सामाजिक राजनीतिक परिघटना की पटकथा की तरफ इशारा करता है, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यनीति से सीधा जुड़ा है। संघ के सामाजिक प्रकल्प आखिर जिस धरातल पर भारत को खड़ा करना चाहते हैं, वह विराट हिन्दू चेतना का अभ्युदय ही है। सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि 'हिन्दू एकीकरण' की अवधारणा संसदीय राजनीति की चुनावी जय-पराजय से परे एक स्वतंत्र धरातल पर आकार ले रही है। संघ की स्थापना के साथ जिस दर्शन को डॉ. केशव बलिराव हेडगेवार भारतीय सन्दर्भ में प्रतिपादित कर कर रहे थे उसका सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल आज मजबूती से खड़ा हुआ नजर आ रहा है- "हिंदुओं की सामाजिक बहुलता उनकी सांस्कृतिक विविधता हिंदुत्व की एकता में कोई अवरोधक नहीं है।" इस मौलिक विचार को संघ भी मानता है और शंकराचार्य से लेकर गांधी, विवेकानंद तक इसी विमर्श को केंद्र में लेकर चले हैं। 2014 से 2020 की अवधि में उभरी भारत की सामाजिक-राजनीतिक तस्वीर को निष्पक्ष भाव से देखें तो इस तथ्य की ही पुष्टि होती है।

प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक उभार को एक कोने में रखकर भी विचार करें तो यह स्पष्ट है कि सेक्युलरिज्म की नकली प्रस्थापनाओं को बहुसंख्यक चेतना ने खारिज कर दिया है। इसलिये भविष्य में बीजेपी की चुनावी पराजय सकल हिन्दू चेतना का प्रतिनिधित्व करेगी, यह निष्कर्ष भी एक बड़ी बौद्धिक भूल होगी। सामाजिक न्याय, ब्राह्मणवाद, बहुजनवाद, फासीवाद, मनुवाद जैसे डरावने बौद्धिक उपकरणों से हमारी समवेत चेतना को सामाजिक स्तर पर सेक्यूलर राजनीति ने सशक्त राज्याश्रय से बंधक बना लिया था।

पिछले 95 वर्षों से संघ ने इन शरारती अवधारणाओं से जो धैर्यपूर्ण संघर्ष किया है, आज उसी का नतीजा है कि बहुसंख्यक की बात हर राजनीतिक दल करना चाहता। सामाजिक न्याय के नाम पर जो नवसामंत संसदीय राजनीति के ठेकेदार बन गए थे वे आज संघ के समावेशी राजनीतिक और सामाजिक प्रयासों के आगे पिटते जा रहे हैं। यूपी, बिहार, मप्र, हरियाणा, राजस्थान से लेकर पूर्वोत्तर, बंगाल, तमिलनाडु, केरल, पुडुचेरी के सामाजिक व राजनीतिक मिजाज को ध्यान से देखें तो पायेंगे कि सत्ता में सर्वहारा की वास्तविक भागीदारी सही मायनों में अब बीजेपी के प्लेटफॉर्म से सुनिश्चित हो रही है।

यूपी के 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव नतीजे केवल राष्ट्रव्यापी मोदी लहर के साथ विश्लेषित किया जाना गलत है क्योंकि यह दोनों नतीजे जाति आश्रित सिंडिकेट्स के लिए एकीकृत हिन्दू चेतना का संसदीय प्रतिउत्तर भी है। इसे यूं भी समझना चाहिये कि सामाजिक न्याय असल मायनों में कुछ प्रभुत्वशाली जातियों के मुस्लिम गठजोड़ से उपजा ऐसा नासूर था जो अंततः राष्ट्र की एकता के लिए खतरा तो है ही समानान्तर रूप से भारत के बहुसंख्यक कमजोर तबके के लिए भी मुख्यधारा से विमुख करता रहा है। संघ की आरम्भ से ही धारणा रही है कि आर्थिक, राजनीतिक न्याय का समान वितरण होना चाहिये। इसे लेकर संघ ने सदैव स्पष्ट नजरिया रखा है। बिहार के 2016 चुनाव में सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत के आरक्षण सबंधी व्यवहारिक बयान को बीजेपी की पराजय का कारण बताया गया था, लेकिन राष्ट्रीय सन्दर्भ में इसकी सफलता को आज कार्यरूप में सफल निरूपित किया जा सकता है- यूपी, बिहार में आज पिछड़ी और दलित जातियों का मौजूदा सियासी प्रतिनिधित्व असल में महज सोशल इंजीनियरिंग नहीं है बल्कि यह हिन्दू समाज के समावेशी उभार का दौर भी है।

खास बात यह है कि सब बीजेपी और मोदी के मजबूत भरोसे पर आकार ले रहा है। यानी ब्राह्मणवाद या मनुवाद की आस्थानुमा बौद्धिक दलीलों के मध्य सत्ता के जो चंद सिंडिकेट्स खड़े किए गए थे वे ध्वस्त हो चुके हैं। ब्राह्मणवाद के शोर में दलित और पिछड़ी जातियों के मध्य जो झूठी प्रतिक्रियावादी अस्मिता खड़ी की गई वह वास्तविक प्रतिनिधित्व के सवाल पर बेनकाब हो गई। अमित शाह की सोशल इंजीनियरिंग का नाम देकर इसके गहरे सामाजिक और सांस्कृतिक निहितार्थ को आज भी कमतर साबित करने का प्रयास किया जाता है लेकिन सच्चाई यह है कि संघ जिस हिन्दू समरूपता की बुनियादी वकालत दशकों से जमीन पर करता रहा है यह उसी की कार्य परिणीति है।आखिर कबतक ब्राह्मणवाद का नकली भय खड़ाकर अल्पसंख्यकवाद और फैमिली सिंडिकेट्स की दुकानें चल सकती थी?

70 साल से सेक्युलरवाद का मतलब सामाजिक न्याय की तरह ही सुन्नीवाद तक सिमटा रहा है। यानी संसदीय राजनीति में सेक्युलरवाद का मतलब क्या केवल सुन्नी मुसलमानों के तुष्टीकरण तक नहीं सिमटा? संघ ने इस खतरनाक अल्पसंख्यकवाद को सदैव चुनौती दी है और सतत सर्वधर्म समभाव की बात कही। इसीलिए आज समाज में सुन्नीवाद के विरुद्ध वातावरण निर्मित हुआ है। नतीजतन सामाजिक न्याय और सुन्नीवाद के गठजोड़ों से उत्पन्न सिंडिकेट्स प्रासंगिकता के लिए तरस रहे है। न केवल राजनीतिक मोर्चे पर अपितु समवेत भारतीय चेतना के स्तर पर भी हिंदुत्व की मूलशक्ति को अधिमान्यता मिल रही है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

Share it
Top