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कब मिलेगा देश को दलित खरबपति उद्योगपति भी

👤 mukesh | Updated on:6 Dec 2021 6:39 PM GMT

कब मिलेगा देश को दलित खरबपति उद्योगपति भी

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- आर.के. सिन्हा

याद रख लें कि भारत अपने को पूर्ण रूप से विकसित होने का दावा उस दिन ही कर सकेगा जब हमारे यहां होंगे हजारों की संख्या में दलित उद्योगपति/ आंत्रप्योनर। हमारे यहां वैसे तो दलित राष्ट्रपति, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री वगैरह बन ही चुके हैं। विज्ञान, शिक्षा, खेल वगैरह की दुनिया में भी दलित समाज से संबंध ऱखने वाले नौजवान बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन, अभी भी हमें अरबपति-खरबपति दलित उद्यमियों के सामने आने का इंतजार है।

अच्छी बात यह है कि दलित नौजवान कारोबार की दुनिया में अपने लिए अब जगह बनाने लगे हैं। उन्हें मोदी सरकार की खुली अर्थव्यवस्था में भरपूर अवसर मिल रहे हैं। वे उसका लाभ लेकर अब नौकरी मांगने के स्थान पर नौकरी देने लगे हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले समय में हमें कोई अरबपति दलित उद्यमी भी मिल ही जाएगा। वैसे यह सामान्य बात तो नहीं है।

जिस समाज का सदियों तक शोषण ही हुआ हो उसने बिजनेस जैसे प्रतिस्पर्धी क्षेत्र में अब अपनी इबारत लिखनी चालू कर दी। आगरा के रहने वाले रवीश पीपल उन दलित उद्यमियों में हैं जो नौजवानों के लिए प्रेरणा बन रहे हैं। वे रोजगार दे रहे हैं। रवीश फुटवियर बिजनेस से जुड़े हैं। उन्हें दुनिया भर की फुटवियर कंपनियां अपनी मांग के अनुसार माल बनाने का ऑर्डर देती हैं। रवीश पीपल भारत के फुटवियर उत्पादकों को डिजाइन, तकनीकी और मार्केटिंग की सलाह देते हुए उन कंपनियों को माल की सप्लाई करते हैं जहां से उन्हें ऑर्डर मिलता है। उनकी कंपनी में सभी जातियों के मुलाजिम हैं। वहां सिर्फ मेरिट के आधार पर नौकरी मिलती है।

यकीन मानिए कि दलित महिलाएं भी अब उद्यमी बन रही हैं। मुंबई की कल्पना सरोज का उदाहरण लीजिए। मुझे उनकी संघर्ष भरी कहानी बहुत प्रभावित करती है। वो कमानी ट्यूब्स की अध्यक्षा हैं। वे कहती हैं कि मोदी सरकार की उदार आर्थिक नीति से उन्हें लाभ मिला है। सरोज 1980 के दशक में अकोला से मुंबई आ गईं। तब तक आर्थिक उदारीकरण आने में कुछ साल शेष थे। सरोज मुंबई में दर्जी का काम करके रोजाना छोटी-सी रकम कमाने लगी। फिर उन्होंने बैंक लोन लेकर फर्नीचर की दुकान शुरू कर दी। यहां भी काम चला तो सरोज ने 1997 में मुंबई में एक जमीन खरीदी। साल 2000 में उन्होंने अपनी इमारत बेच दी। इससे उनकी छवि ऐसी महिला की बन गयी जो मुंबई में अपने दम पर कुछ कर सकती है। सरोज ने साल 2006 में ट्यूब बनाने वाली कंपनी कमानी ट्यूब की कमान संभाली, जो दिवालिया होने के कगार पर थी। अब उनकी कंपनी मुनाफा कमा रही है।

दलित उद्यमियों की बिजनेस के संसार में सफलता का श्रेय आउटसोर्सिंग को दिया जा रहा है। इसके चलते उद्यमिता का विस्फोट हुआ है, जिसमें दलितों को भी लाभ हुआ है। खुदरा बाजार में एफडीआई का दलित उद्यमियों के उभरते वर्ग पर' सकारात्मक असर हो रहा है। शिक्षित हो गए दलितों के लिए बिजनेस में अपार संभावनाएं लगातार बन रही हैं।

सच्चाई तो यह है कि देश में सरकारी नौकरियां तेजी से हर वर्ष घटती जा रही है। केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, बैंकों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में सभी जगह नौकरियां तेजी से घट रही हैं। दूसरी बात यह भी है कि जिन कारणों के चलते नौजवान सरकारी नौकरियों की तरफ आकर्षित होते थे, वह अब नहीं रहे। जैसे कि सरकारी नौकरियों में अब पेंशन नहीं रही। भ्रष्टाचार पर भी शिकंजा कसता जा रहा है। फिर किस बात के लिए इन्हें पाने को मारामारी की जाए।

आज सरकारी नौकरियां भी काफी बड़े स्तर पर अनुबंध पर ही मिलती हैं। इस वजह से भी बहुत सारे नौजवान, जिनमें अधिकांश दलित-पिछड़े समाज से आते हैं, उन्होंने अपना कोई बिजनेस करने का मन बना लिया है। यह एक सुखद स्थिति है। बहुत सारे नौजवान आउट सोर्सिंग के जरिए भी ठीक-ठाक पैसा कमा रहे हैं। दलित नौजवानों को भी लग रहा है कि वे आरक्षण के सहारे पूरी जिंदगी तो नहीं गुजार सकते। इसलिए दलित नौजवानों ने स्वरोजगार की ठोस पहल की है।

राजीव केन दलित समाज से आते हैं, जिन्हें लगा कि वे नौकरी के सहारे नहीं रह सकते। उन्होंने अपने बचपन में पिता के साथ मिलकर ईस्ट दिल्ली में स्कूटर मैकेनिक का काम किया है। कड़ी मेहनत और संघर्ष किया। इस काम में विशेषज्ञता हासिल करने के बाद राजीव केन ने लंबी छलांग लगाई। उन्होंने नोएडा में इलेक्ट्रिक स्कूटर और मोटर साइकिल का निर्माण करने वाली इकाई स्थापित की। उन्हें इस बाबत आसानी से लोन मिल भी गया। अब उनकी कंपनी के देशभर में डीलर हैं। उनका कामकाज बेहतरीन ढंग से चल रहा है। वे मानते हैं कि पेट्रोल-डीजल की निरंतर बढ़ने वाली कीमतों को देखते हुए आने वाला समय इलेक्ट्रिक स्कूटर, मोटर साइकिल और कारों का ही होगा।

बाबा साहेब अंबेडकर के गृह प्रदेश महाराष्ट्र में हजारों दलित नौजवान सफल उद्यमी बन चुके हैं। उनका जीवन स्तर भी तेजी से बदल रहा है। वे सिर्फ नौकरी से लेकर शिक्षण संस्थानों में अपने लिए आरक्षण भर की ख्वाहिश नहीं रखते। वे बिजनेस की दुनिया में अपनी जगह बना रहे हैं। अफसोस कि उत्तर भारत के मायावती और अखिलेश यादव जैसे घनघोर जातिवादी नेता दलित और पिछड़ी जातियों से आने वाले युवाओं को आरक्षण जैसे सवालों में ही उलझा कर रखना चाहते हैं। हालांकि उनकी पकड़ भी अब कमजोर होती चली जा रही है।

बेशक, कोई भी समाज जो कठिन दौर से गुजरता है, संघर्ष करता है, आगे चलकर तो तरक्की ही करता है। मारवाड़ियों को ही लें। ये राजस्थान-गुजरात की सूखी और बंजर धरती और मरुस्थल में पैदा हुए। अब देश के अनेकों बड़े उद्योगपति मारवाड़ी समाज से ही आते हैं। पारसियों को देखिए जो ईरान से भागकर आए, सिंधी जो सिंध छोड़कर आए। इन सबने विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष किया और संपन्न बने। देश विभाजन ने हजारों नौजवानों को आंत्रप्योनर बनाया था।

पाकिस्तान से 1947 में भारत आ गए अनेकों हिन्दू और सिख नौजवानों ने नए-नए कारोबार चालू करके अपने लिए जगह बनाई थी। विपरीत हालात में इन्होंने हिम्मत नहीं हारी। इनमें से कई आगे चलकर ब्रजमोहन मुंजाल (हीरो ग्रुप), महाशय धर्मपाल गुलाटी (एमडीएच मसाले), रौनक सिंह (अपोलो टाय़र्स), एचसी नंदा (एस्कोर्ट्स) बने। इन्होंने साबित किया कि वे विपरीत हालात में खड़े हो सकते हैं। अब दलितों का समय है, दलित व्यापार में अपनी क्षमताओं से आगे बढ़ रहे हैं। एक शेर से मैं अंत करना चाहूँगा- इस तरह तय की हैं हमने मंजिलें, गिर पड़े, गिरकर उठे, उठकर चले।"

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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