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क्या लड़कियां सचमुच बातूनी होती हैं?

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:17 Sep 2018 3:53 PM GMT

क्या लड़कियां सचमुच बातूनी होती हैं?

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उषा जैन `शौरी'

ड़कों की तुलना में लड़कियें की बोलने की क्षमता ज्यादा होती है। कहते हैं लड़कियें की जुबान चलती है ते लड़कों के हाथ।

अर्चना बहुत बातूनी थी। अक्सर इसके लिये उसे डांट भी पड़ा करती। दादी कहतीं `अरे लड़की इतना न बोला कर, बोलने के बजाय काम करना सीख आगे वही काम आयेगा।' मम्मी भी झिड़क देती। क्या हर समय पैंची की तरह जबान चलती है। मुंह नहीं थकता तेरा बोलते हुये। जरा अपने मुंह को भी आराम दिया कर। बड़ा भाई राजू और दो कदम आगे था वह बोलती हुई अर्चना के मुंह पर हाथ रख देता। अब बोल देखता हूं कैसे बोलती है। कुछ समझदार होने पर इन वर्जनाओं का अंजाम यह हुआ कि अर्चना अपने में सिमटती चली गई। अब वह केवल हां, ना में ही बात खत्म कर देती। लेकिन यह कोई स्वस्थ व्यक्तित्व की निशानी नहीं है। ईश्वर पदत्त आवाज का आखिर कोई क्यों न सार्थक उपयोग करे। लेखक, कलाकार तो फिर भी अभिव्यक्ति का माध्यम ढूंढ़ लेते हैं, लेकिन आम आदमी अपने को कैसे अभिव्यक्त करे? यह कार्य बातचीत द्वारा संभव होता है। वाणी ही संपेषण का सहज, सुलभ, पाकृत तथा सशक्त जरिया है। जिस तरह हर व्यक्ति की शारीरिक रचना भिन्न होती है। मानसिक रचना भी भिन्नता लिये होती है। एक ही बात को कहने का तरीका भिन्न हो सकता है, अभिव्यक्ति का गलत रूप राई का पहाड़ बना सकता है और कड़वी से कड़वी बात भी परिमार्जित ढंग से रखी जाने पर कड़वी नहीं लगती। अभिव्यक्ति का अभाव किसी को भी विक्षिप्तावस्था तक पहुंचा सकता है। अंदर की घुटन व्यक्तित्व विकास पर पूर्णविराम लगा देगी। दरअसल अपने विचारों को आत्मविश्वास से जाहिर कर पाना भी एक कला है जो सबको नहीं आती। इसके लिये केवल उच्चशिक्षित होना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि देखा गया है कि कई बार पैक्टिकल दुनियादार लोग जिनके पास कोई स्कूल कॉलेज की डिग्री नहीं होती अपने को बहुत ही अच्छे से अभिव्यक्त करने की कला में माहिर मिलेंगे जबकि उच्चशिक्षित लोगों में कई ऐसे मिलेंगे जिनकी कम्युनिकेट करने की पावर बहुत ही धीमी होती है यह बात उन्हें अंदर ही अंदर कचोटती है चाहे वे इसे एकदम महसूस ना कर पायें। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार उनकी इस कमी के पीछे उनका त्रासद बचपन होता है। बचपन की रोकटोक, पाबंदियां व वर्जनाएं उनमें हीन भावना भर देती है। अपने पर उनका विश्वास कम हो जाता है। ऐसे में कभी-कभी वे हकलाने लगते हैं फलस्वरूप वे और भी चुप्पी साध लेते हैं। और भी कारण हो सकते हैं जो अपने को अभिव्यक्त करने में बाधक बन जाते हैं। सभी जानते है गरीबी जिल्लतपूर्ण जीवन जीने पर मजबूर करती है। एकल परिवार में रहकर बच्चे व्यवहारकुशल नहीं हो पाते।

दकियानूसी पारिवारिक पृष्ठभूमि, शारीरिक दोष, ये सब बातें हीनता उपजाती हैं। इस बोध से ग्रस्त होने पर व्यक्ति डायनेमिक नहीं हो पाता। खासकर घरेलू महिलाएं नौकरीपेशा महिलाओं के सामने अपने को कमतर समझती हैं। उनका वैचारिक दृष्टिकोण भी बहुत संकुचित होता है। घरेलू राजनीति में फंसी आंखें नकारात्मक बातों में ज्यादा लीन हो जाती है। अभिव्यक्ति को अंजाम देने के लिये मिलनसार एवं हंसमुख होना जरूरी है। तभी लोकपियता हासिल की जा सकती है जिनके एक्सपेसिव पावर, कम्युनिकेशन पावर से आप पभावित होते हैं उन पर ध्यान दें और उनसे सीखें। `नॉलेज इज पावर' ये पावर आपको बढ़ानी चाहिये। आशावादी दृष्टिकोण रखें। `पैक्ट्सि मेक्स ए वुमन परफेक्ट।' सार्थक अभिव्यक्ति की कला भी एक बार में नहीं आती।

निरंतर अभ्यास से ही हासिल की जाती है। इसका आधार है आत्मविश्वास। एक संतुलित व्यक्तित्व के लिये दिमागी जाले साफ होने जरूरी हैं। यह कार्य बातचीत द्वारा स्वचलित रूप से होता है।

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